किस्सा-ए-अच्छे ख़ां उर्फ़ बहार-ए-आम

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श्रुति कुशवाहा

भोत गर्मी पड़ रई है ख़ां…उसपे मेहमानों का जमावड़ा। अच्छे मियां की गर्मियां इस बार मेहमानों की खातिरदारी में ही गुज़र रही हैं…

इस दफ़े दुबई वाले खालू आए हैं बरसों बाद अच्छे मियां के यां..बस ये ख़बर लगने की देर थी, बरेली वालू फूफी, उनकी तीन बेटियां अपनी छह बेटियों के साथ, गांव से रहमत मियां का पूरा ख़ानदान, और तो और खालू के पुराने पड़ोसी भी अच्छे मियां के घर टपक पड़े हैं…

अब अच्छे मियां का घर घर नहीं, पूरा शहर हो गया है। सुबह से जो चिल्लपो शुरू होती तो अगली सुबह तक जारी रहती। देगचियों में भर-भर के खाने पक रहे हैं…शुरू के तीन चार दिन तो ख़ूब बिरयान और ज़र्दा पका, लेकिन जब किसी ने जाने का ज़िक्र तक न किया तो खाने की सूरत बदलने लगी। बेगम साहिबा गोश्त से धीरे धीरे देसी चने और फिर टिंडे पर उतर आयी, पंचरतन दाल की जगह कुकर में तुअर की सीटी लगने लगी। उसपर बेगम की दिनभर की चिड़चिड़ाहट अलग…

गर्मी इत्ती ज़्यादा है कि उधर नहाकर निकलो इधर फिर पसीने से नहा जाओ। अच्छे मियां अब कोई कलेक्टर तो है नहीं कि बड़ा बंगला हो, चार छे कूलर लगे हो। सो सारे मेहमान छत पे और बरामदे मे सुलाए जाते। एक अदद कूलर है जो बैठक में चलता रहता, चार नए घड़े लाए गए लेकिन पानी है कि ठंडा होने का नाम नहीं ले रहा…

लेकिन अच्छे मियां की दिक्कत दरअसल कुछ और है। गर्मियां मतलब बहार-ए-आम…रसीला दशहरी हो या मशहूर लंगड़ा, हरे-पीले रंग का चौसा, रस गूदे से भरा बदामी, तोते सी शकल वाला तोतापरी या फिर केसर…अच्छे मियां की गर्मियां मतलब आम आम आम। और तो और, पिछले कुछ साल से तो वो मौसम में एक दो बार हापुस भी ले ही आते हैं। आम के बारे में उनका कहना है कि सड़क किनारे का सबसे सस्ता और बाज़ार का सबसे महंगा..हर आम एक बार तो चखना ही चिय्ये। अच्छे मियां की जिंदगी में दो ही खुशबुएं है जो उन्हें दीवाना बना देती है…एक बेगम की जुल्फों की और दूसरी आम की। लेकिन अबकी गर्मियों में मेहमानों ने उन्हें दोनों ही खुशबुओं से महरूम रक्खा है…

तो इस बार की गर्मियां आम बिन गुज़र रही हैं। अच्छे मियां हर दूसरे दिन आठेक किलो तरबूज ज़रूर ले आते, अब इतनी भीड़ में फल के नाम पर सिरिफ तरबूज की ही अय्याशी की जा सकती है साब। बीस बाईस लोगो को आम की दावत देना किसी आम आदमी के बूते कहां ? लेकिन इन सारे दुनियावी मसलों में अच्छे मियां का आम का मौसम निकला जा रहा है। एकाध बार उन्होने बेगम से कहा कि भी कहो तो दो चार किलो आम ले आऊं…न हो तो रस ही बना लेना। लेकिन बेगम ने जो आंखे तरेरी कि फिर पूछने की हिम्मत न हुई…

 

बीच में दो एक बार अच्छे मियां अपने दोस्त पांडे जी के घर जाके आम की कुछ फांके खा आए हैं, लेकिन ये तो वही हुआ कि और बढ़ती गई आग जितनी हवा दी…मुंह को स्वाद लगा और जी का तरसना बढ़ गया। ऐसा कोई ठिया भी नहीं कि छिपके दो चार आम उड़ा लिये जाए। और फिर आम का मज़ा ही क्या जो बेगम के बिन खाया जाए। हर गर्मी में आम खाना जैसे कोई त्योहार हुआ करता है। ढेर सारे आम खूब ठंडे पानी में डूबो दिये जाते, फिर खाने के बाद सजती आम की महफ़िल। बेगम काट काटकर दिये जाती और अच्छे मियां खाए जाते। इस मामले में बेगम की दरियादिली काबिले ग़ौर है, वो खुद आम काट काटकर चखा करती और सबसे मीठे बेहतर आम मियां जी के हवाले कर देती। बेगम को पता है कि मियां आम के बेतरह दीवाने हैं, इस बहाने वो उनपर कुछ अहसान और लाद देती जिसे बाद में साल भर वसूला जाता। लेकिन आम के लिए तो अच्छे मियां को सबकुछ मंज़ूर…

मगर इस बार का मौसम उदास है, ये बिन आम कट रहा है, गर्मियां बीत रही है और मेहमान जाने का नाम नहीं ले रहे। अच्छे मियां ने ग़ौर फरमाया कि बेगम अब रोटियों में घी लगाते वक्त कटोरी में ऊपर ही ऊपर चम्मच छुआती और रोटी पर फेर देती है, कहां वो शुरूआती दिन जब घी में तर रोटियां परोसी जा रही थी रिश्तेदारों को। लेकिन इस फर्क़ को भी मेहमानों ने नज़रअंद़ार कर दिया। गोया अबके आम की महफिल जमने की कोई सूरत ही नज़र नहीं आ रही…

रात को कोई साढ़े बारह बजे हैं, सारे मेहमान सो चुके। अच्छे मियां भी आधी नींद में है कि किसी ने उनके कंधों को छूकर जगाया। हड़बड़ाकर क्या देखते हैं कि बेगम खड़ी है सामने। बेगम ने उन्हें अपने कमरे में आने का इशारा किया है। अच्छे मियां ज़रा सकते में आ गए हैं, ज़रूर किसी रिश्तेदार ने कोई अहमकाना हरक़त कर दी है और अब उन्हें घंटे आध घंटे बेगम की जलीकटी सुननी होगी। हिम्मत जुटा अच्छे मियां कमरे में पहुंचते हैं…

जीते जी जन्नत नसीब होना शायद इसे ही कहते होंगे, ज्यों सारे बागों की खुशबू इस कमरे में उतर आई हो। कमरा गमक रहा है…लग रहा कि चांद रात हो जैसे। पूरे कमरे में आम की खुशबू फैली हुई है। बेगम ने धीरे से चिटखनी लगाई और एक तश्तरी मियां जी के सामने रख दी…रसभरे हापुस की फांकों से भरी हुई तश्तरी। लगता है किस्मत कुछ ज़्यादा ही मेहरबान है आज, बेगम ने ख़ुद अपने हाथ से एक फांक उठाई और मियां जी के मुंह में रख दी। अच्छे मियां ख़्वाब देख रहे हैं या ये हक़ीकत है, मुंह में मीठा रसीला आम है, कानों में बेगम की आवाज़…मौसम निकला जा रहा था और तुमने एक बार भी आम न खाये तसल्ली से, सो आज मैं सब्ज़ी लाने के बहाने ले ही आयी।

जाने किसमें ज़्यादा रस है, हापुस में या बेगम की आंखों में…..

श्रुति कुशवाहा जानी मानी लेखिका है