नई दिल्ली
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के महत्वकांक्षी मून मिशन चंद्रयान-2 को चंद्रमा तक पहुंचने में 48 दिनों का समय लगेगा जबकि आज से पांच दशक पहले लॉन्च हुए अपोलो-11 को मात्र चार दिन लगे थे। क्या आप जानते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है।
साल-1959 को लॉन्च हुए तत्कालीन सोवियत रूस के लूना-2 को चांद तक पहुंचने में केवल 34 घंटे का समय लगा था। जबकि उसके 10 साल बाद साल 1969 में लॉन्च हुए अपोलो-11 को चार दिन छह घंटे और 45 मिनट का समय लगा था। इसी मिशन में पहली बार किसी अंतरिक्ष यात्री को चंद्रमा की सतह पर भेजा गया था।
तो चंद्रयान -2 को एक महीने से अधिक समय क्यों हो रहा है? इसका जवाब रॉकेट के निर्माण, ईंधन की मात्रा और चंद्रयान की गति में निहित है।
अंतरिक्ष में, लंबी दूरी को कवर करने के लिए उच्च गति और सीधे प्रक्षेप पथ (जिस रास्ते पर यान सफर करता है) की आवश्यकता होती है। अपोलो -11 के लिए नासा ने एक सुपर हैवी-लिफ्ट लाॉन्चर सैटर्न पांच रॉकेट का उपयोग किया था। यह रॉकेट प्रति घंटे 39,000 किमी से अधिक की यात्रा करने में सक्षम था।
रॉकेट के शक्तिशाली इंजन ने सिर्फ चार दिनों में अपोलो-11 को 3.8 लाख किमी दूर चांद तक पहुंचाया। हालांकि, 1969 में अपोलो मिशन के लिए नासा को तब 13 सौ करोड़ रुपये (वर्तमान में 84 सौ करोड़ रुपये) खर्च करना पड़ा था।
भारत के पास अमेरिका के नासा जितना शक्तिशाली रॉकेट नहीं है जो चंद्रयान -2 को सीधे चंद्रमा पर ले जा सके। यही कारण है कि इसरो ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का लाभ उठाने के लिए एक दूसरे मार्ग को चुना, जो चंद्रयान-2 को चंद्रमा की ओर ले जाने में मदद करेगा।
बाहुबली रॉकेट के नाम से विख्यात जीएसएलवी मार्क-3 की क्षमता केवल चार टन तक का वजन उठाने की है जबकि, चंद्रयान का वजन 3.8 टन है। यह रॉकेट चंद्रयान को केवल जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर ऑर्बिट तक छोड़ सकता था। वर्तमान में चंद्रयान की प्रणोदन प्रणाली इसे अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा रही है। पृथ्वी की अंतिम परिक्रमा के दौरान चंद्रयान-2 का त्वरण इतना बढ़ जाएगा कि वह चंद्रमा की कक्षा तक पहुंच सके।
चंद्रमा पर जाने के लिए अंतरिक्ष यान को न्यूनतम 11 किमी प्रति सेकंड के वेग की आवश्यकता होती है। उसमें से 10.3 किमी प्रति सेकंड वाहन यानी रॉकेट के बचे हिस्से द्वारा प्रदान किया जा रहा है जबकि शेष 700 मीटर प्रति सेकंड चंद्रयान के प्रणोदन प्रणाली द्वारा प्रदान किया जा रहा है।
चंद्रयान-2 में छोटा इंजन होने के कारण इसे लगातार नहीं चलाया जा सकता है इसलिए गति को बनाए रखने के लिए इसे थोड़ी-थोड़ी देर में चलाया जा रहा है। अगर इसरो के पास सैटर्न पांच जैसा शक्तिशाली इंजन होता तो चंद्रयान-2 भी कम समय में चांद तक पहुंच सकता था।