राजेश बादल
कोरोना की नई प्रजाति के दुष्प्रभाव से बचने के लिए उठाए जा रहे क़दम इन दिनों चर्च का विषय हैं। इनमें सबसे अधिक आलोचना रात को लगाए जाने वाले कर्फ्यू की हो रही है। इसके समय का चुनाव लोगों के गले नहीं उतर रहा है। यह समझ से परे है कि भारतीय समाज कोरोना संक्रमण से वाकई लड़ना चाहता है अथवा उसे कर्फ्यू प्रमाणपत्र कहीं ले जाकर जमा करना है। रात के समय औसत आबादी घरों में बंद रहती है। कुल जमा एक या दो फ़ीसदी लोग बाहर निकलते हैं या फिर रात की पाली में नौकरी करने वाले लोग काम पर जाते हैं। ऐसे में रात के वक़्त सोशल डिस्टेंसिंग अपने आप ही हो जाती है। उस समय तो मास्क लगाने जैसा एहतियात बरतने की भी ज़रुरत नहीं होती। कहने में हिचक क्यों होनी चाहिए कि रात का कर्फ्यू एक दिखावे का उपाय है ,जो वास्तव में कोरोना की रोकथाम के लिए कारग़र नहीं माना जा सकता। यह तर्क किसके समझ में आएगा कि दिन में भीड़ भरे बाज़ार खुले रहें ,सार्वजनिक आयोजन होते रहें ,यातायात सामान्य चलता रहे ,छोटे बच्चों के स्कूल और अन्य शिक्षण संस्थाएँ पूरी रफ़्तार से भागती रहें और सरकारी दफ़्तर तथा औद्योगिक प्रतिष्ठान पूरी उपस्थिति से चलते रहें तो कोरोना से सभी सुरक्षित रहेंगे।पर ,उन्हें सर्वाधिक ख़तरा सन्नाटे में डूबी सड़कों से है।
आम जनता चुनावी रैलियों पर भी गंभीर ऐतराज़ कर रही है। पाँच प्रदेशों में विधानसभाओं के चुनाव सिर पर हैं। इनमें उत्तर प्रदेश और पंजाब घनी आबादी वाले राज्य हैं।वहाँ चुनावी रैलियों में लाखों लोग ढोकर लाए जाते हैं।राज नेताओं को और नागरिकों को इन रैलियों में बिना सामाजिक दूरी बनाए और मास्क के बग़ैर देखा जा सकता है। उत्तराखंड ,गोवा और मणिपुर में चुनौती अपेक्षाकृत कम गंभीर है।लेकिन इन पाँचों राज्यों के अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर होने के कारण संक्रमण के ख़तरे को अनदेखा नहीं किया जा सकता।दुनिया भर के डॉक्टर और अनुसंधानकर्ता अभी इस पर माथा पच्ची कर ही रहे हैं कि यह ख़तरनाक़ वाइरस चीन की प्रयोगशाला की उपज है अथवा नहीं। ऐसे में उसकी सीमाओं से सटे हिन्दुस्तान के करोड़ों निवासी सुरक्षित नहीं माने जा सकते। भारत सरकार और केंद्रीय चुनाव आयोग को यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए।
या था। कौन ऐसा था,जिसने अपने किसी न किसी परिचित,मित्र या संबंधी को नहीं खोया हो ? इसी दूसरी लहर के बीच लापरवाही भरे दो सार्वजनिक आयोजनों ने इन मौतों का आँकड़ा ज़्यादा विकराल बना दिया था। एक तो उत्तरप्रदेश में कुम्भ और दूसरा बंगाल में विधानसभा चुनाव। कुम्भ के दरम्यान लाखों लोग मुल्क़ के तमाम सूबों से आए और कोरोना का प्रसाद लेकर अपने गाँव – क़स्बों में लौट गए थे। इससे कोरोना दिनों दिन विराट आकार लेता रहा। आपको याद होगा कि पहले एक सप्ताह में ही कुंभ की जाँचों में पाँच हज़ार से अधिक श्रद्धालु संक्रमित पाए गए थे और एक सौ से अधिक साधू – संत गंभीर रूप से बीमार हुए। उनमें से एक महामंडलेश्वर समेत कई महंत अपनी जान खो बैठे थे।अनेक रपटों में यह ख़ुलासा हुआ था कि कुंभ ने कोरोना को महाकाल का रूप दे दिया था।
इसी तरह बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ।तीन चरण तक बड़ी सभाएँ होती रहीं।रैलियाँ और रोड शो नहीं रोके गए।तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने आयोग से फ़ौरन रैलियों पर बंदिश लगाने की माँग की थी मगर,चुनाव आयोग ने राज्य सरकार के औपचारिक अनुरोध को रद्दी की टोकरी में डाल दिया।अंततः बाद में पाँच सौ लोगों की हाज़िरी वाली सभाओं को अनुमति दी गई।लेकिन उस निर्देश को किसी ने नहीं माना।आख़िरकार ममता बनर्जी और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने अपनी ओर से ही रैलियाँ और कार्यक्रम रोक दिए।विडंबना यह कि आचार संहिता लगते ही राज्य की मशीनरी की कमान चुनाव आयोग के हाथ में आ जाती है और राज्य सरकार चाहती भी तो कुछ नहीं कर सकती थी।इस तरह दो बड़े और सघन आबादी वाले प्रदेशों में चुनाव तथा कुंभ के चलते स्थिति बिगड़ती गई।किसी ने उसके लिए ज़िम्मेदारी लेने का नैतिक साहस नहीं दिखाया।चुनाव आयोग को ध्यान रखना चाहिए कि वह रोबोट की तरह व्यवहार नहीं कर सकता।उसकी रिपोर्टिंग भारत के मतदाताओं को है,प्रधानमंत्री कार्यालय को नहीं।
ऐसे में चुनाव आयोग क्या करे ? समय पर एक निर्वाचित सरकार देना उसकी संवैधानिक बाध्यता है।लेकिन इस बाध्यता के नाम पर वह करोड़ों ज़िंदगियों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकता।स्थिति सामान्य होने तक रैलियाँ ,सभाएँ और रोड शो रोकना उसके अधिकार में है।यहाँ तक कि चुनाव टालना भी एक संविधान प्रदत्त उपाय है।हाल ही में उसने राज्य सभा चुनाव और कुछ उप चुनाव टालने का निर्णय लिया भी था। भारतीय मतदाताओं को याद होगा कि 1992 में विवादित ढाँचा गिराए जाने के बाद अनेक राज्यों में अशांति फैल गई थी।उसके बाद स्थिति सामान्य हो गई तो भी किश्तों में राज्यों में राष्ट्रपति शासन बढ़ाया जाता रहा। अर्थात चुनाव आयोग यदि चाहे तो उसके सामने स्थिति सामान्य बनाने तक चुनाव की तारीखें आगे बढ़ाने का खुला विकल्प है ।ऐसी सूरत में प्रदेश सरकार को भी अपनी सिफ़ारिश भेजनी होगी कि फ़िलहाल चुनाव कराने के लिए उपयुक्त समय नहीं है ।