अरुण यादव : राजनीति की बिसात पर ‘ढ़ाई घर’ चलते रहना समझदारी नहीं होती

0
893

पंकज शुक्ला

सहकारिता नेता सुभाष यादव के पुत्र अरुण यादव कुछ दिनों पहले तक मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे और इसके पहले केन्द्रीय मंत्री। कांग्रेस हाईकमान ने यादव में संभावनाशील नेतृत्व देखा था तथा वरिष्ठ नेताओं के विरोध के बाद भी उन्हें चार साल तक प्रदेश की एकछत्र कमान सौंपे रखी। इस दौरान यादव ने जो चाहा वह किया।
Arun Yadav: It is not prudent to keep a ‘free house’ on a board of politics
जिस तरह शतरंज के मोहरों में से एक मात्र घोड़े को यह सुविधा होती है कि वह किसी भी मोहरे को क्रास कर ढाई घर की चाल चल सकता है, उसी तरह यादव ने मान्य राजनीतिक परंपराओं को लांघा लेकिन जब विरोधियों को मौका मिला तो सभी ने एक सुर में यादव को नजरअंदाज कर दिया। समर्थक इस प्रयास में लगे हैं कि यादव को कोई बड़ी जिम्मेदारी मिल जाए। नई जिम्मेदारी मिलने तक उनके पास आत्मावलोकन का समय है।

रविवार को भोपाल में यादव समाज का जमावड़ा हुआ। 2018 में मप्र में होने वाले चुनाव के मद्देनजर यहां लगभग हर दिन कोई संगठन या समाज एकजुट होकर राजनीतिक अधिकारों की मांग कर रहा है। लेकिन, यादव समाज का सम्मेलन इस मायने में थोड़ा भिन्न था कि यहां समाज के साथ एक नेता यानि अरुण यादव के सम्मान की आवाज उठाई गई। सम्मेलन में मांग उठी की अरुण को कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी जाए। समर्थक तो यहां तक कह गए कि उन्हें दोबारा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया जाए।

अरुण यादव ने जनवरी 2014 में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद क्षत्रपों में बंटी पार्टी को ऊर्जा देने के बहुतेरे प्रयास किए। वे भाजपा से तब लोहा रहे थे जब पार्टी के अन्य बड़े नेता मप्र में लगभग निष्क्रिय ही थे। यादव ने नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के साथ जोड़ी बनाते हुए तथा अकेले भी पदयात्राएं की। प्रदेश के कई हिस्सों में पहुंच कर कांग्रेस संगठन की सांसें बनाए रखीं। लेकिन अब मिशन 2018 की जंग के अंतिम चरण में फिलहाल वे और उनके समर्थक पैवेलियन में बैठे हैं और उनके इस अवदान को रेखांकित भी नहीं किया जा रहा। शायद, यही कारण रहा कि यादव समाज को अपने इस नेता के समर्थन में आगे आना पड़ा।

यादव के लिए यह विचारणीय विषय हो सकता है कि पार्टी ने उन्हें केवल पिछड़ा वर्ग का होने के नाते ही राष्ट्रीय सचिव या प्रदेश अध्यक्ष नहीं बनाया था बल्कि उनमें सक्षम युवा नेतृत्व देख कर कमान सौंपी थी। यूं तो वे अपने पिता की दबंग छवि के विपरीत सौम्य स्वभाव के नेता हैं लेकिन अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने कुछ ऐसे जिद भरे निर्णय लिए जो उन्हें सारे नेताओं का कोपभाजक बना गए।

उन्होंने न केवल कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेताओं के समर्थकों को घर बैठाया बल्कि इन नेताओं को भी नजरअंदाज किया। इन निर्णयों में उन्हें कांग्रेस के महासचिव तथा मप्र के तत्कालीन प्रभारी मोहन प्रकाश का साथ मिला। विरोध दिल्ली तक पहुंचा लेकिन हाईकमान ने अरुण पर ही भरोसा दिखाया। यहां अरुण जरा चूक गए।

वे भूल गए कि राजा की ताकत उसके सिपहसालार और सेना ही होते हैं। यदि वे बड़े नेताओं का मान रखते हुए अपनी रेखा बड़ी करते तो संभव था कि उन्हें वर्तमान प्रदेश नेतृत्व यूं नजरअंदाज नहीं करता। ले?किन अभी ह्यटीम अरुणह्ण का प्रदेश कांग्रेस समिति से बाहर होना तथा उनके निर्णयों को पलटा जाना क्रिया की प्रतिक्रिया ही है।

अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद निराशा में अरुण ने बयान दिया कि वे लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे। यह बयान उनकी हताशा को दिखाने वाला ही था। इस बयान के एक पखवाड़े बाद ही अरुण को कोई पद देने की मांग उठाई जाने लगी है। यानि, पद के बिना राजनीतिक अस्तित्व ही संकट में है। याद करेंगे तो अरुण पाएंगे कि अपने शीर्ष के दिनों में उन्होंने जिन मित्रों की सलाहों पर काम किया उनमें से अधिकांश सलाहें आगे चल कर नकारात्मक सिद्ध हुई हैं। वे युवा हैं और राजनीति का लंबा पथ उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। उन्हें बस कुछ देर ठहर कर अपने अतीत का आकलन करने की आवश्यकता है, भविष्य के सूत्र स्वयं समझ आ जाएंगे।