नई दिल्ली। उपेंद्र कुशवाहा का गुरुवार को महागठबंधन का हिस्सा बनने के साथ ही बिहार की पॉलिटिक्स जातियों की गोलबंदी के एक नए दौर में प्रवेश करती दिखी। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार के नामवर चेहरों- लालू यादव और नीतीश कुमार से मुकाबिल होते हुए बीजेपी ने अगर 40 में से 31 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाबी हो पाई थी, तो उसमें उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान का बड़ा योगदान था। बीजेपी ने इनके साथ ही गठबंधन करके जातियों की गोलबंदी की लड़ाई में बाजी मारी थी। इस गठबंधन के सहारे बीजेपी के पक्ष में अपरकास्ट+अति पिछड़ा+दलित गोलबंद हुआ था।
Bihar’s politics again in the new round of nationwide mobilization
यह बात दीगर है कि वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में जब लालू+नीतीश+कांग्रेस का महागठबंधन बना, तो बीजेपी के लिए उपेंद्र कुशवाहा+रामविलास पासवान समीकरण कामयाबी की वह इबारत दोबारा नहीं लिख पाया, क्योंकि इस गठबंधन के जरिये वहां यादव+कुर्मी+मुसलमान का नया समीकरण तैयार हो गया। वर्ष 2019 से पहले एक बार फिर वहां समीकरण बदल चुके हैं। नीतीश कुमार अब एक बार फिर एनडीए का हिस्सा बन चुके हैं। पासवान अभी एनडीए का हिस्सा तो बने हैं, लेकिन उनकी नाराजगी जगजाहिर है। वहीं, वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में एनडीए का हिस्सा रहे जीतनराम मांझी भी अब यूपीए के साथ आ चुके हैं। उपेंद्र कुशवाहा ने भी बिहार की ह्यआवाजह्ण पर यूपीए का हिस्सा बनने की बात कबूल कर ली है।
यूपीए के साथ क्यों आना पड़ा
बात सिर्फ यह भर नहीं है कि उपेंद्र कुशवाहा को बीजेपी जब उतनी सीटें देने को तैयार नहीं हुई, जितनी वह मांग रहे थे, तो वह एनडीए छोड़कर यूपीए का हिस्सा बन गए। बात यह भी है कि बिहार की पॉलिटिक्स में कुशवाहा और नीतीश दो ऐसे विरोधी हैं, जो कभी एक पाले में रह ही नहीं सकते। नीतीश कुमार जब एनडीए से अलग हुए थे, तभी कुशवाहा के लिए एनडीए में जगह बनी थी। जब नीतीश कुमार फिर से एनडीए का हिस्सा बने, उसके बाद कुशवाहा के लिए एनडीए में असहज स्थिति पैदा होना स्वाभाविक ही थी।
बीजेपी के लिए उपेंद्र कुशवाहा के मुकाबले नीतीश कुमार को तवज्जो देना ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर बीजेपी कुशवाहा के आगे झुकने को तैयार नहीं हुई। वहीं, कुशवाहा को राजननीतिक रूप से कमजोर करने के लिए उनकी पार्टी में ह्यसेंधमारीह्ण भी शुरू हो गई। तीन सांसदों (जिनमें से एक खुद कुशवाहा हैं) में से एक ने उनके खिलाफ बगावत कर दी, तो विधानसभा में पार्टी के दोनों विधायकों ने भी कुशवाहा के फैसले के इतर एनडीए में रहने की बात कह दी। राजनीति के अनुभवी खिलाड़ी नीतीश कुमार को यह बात अच्छी तरह से मालूम है कि चुनाव के मौके पर अगर पार्टी के सांसद-विधायक साथ छोड़ना शुरू कर दें, तो मोल-भाव की ताकत कम पड़ जाती है। नीतीश कुमार उपेंद्र कुशवाहा के खिलाफ इसी रणनीति पर काम करते दिखे। लोकसभा चुनाव में इतने बड़े घटक (एनडीए) से अकेले मुकाबिल हो पाना कुशवाहा के लिए मुमकिन ही नहीं था।
असर क्या होगा
बिहार की पॉलिटिक्स को बारीकी से समझने वाले मानते हैं कि सांसदों और विधायकों के साथ छोड़ देने से भले ही कुश्वाहा की मोल-भाव की ताकत कम हो गई हो, लेकिन वोटबैंक उन्हीं के नाम और चेहरे का है। कुशवाहा अति पिछड़े वर्ग की जिन जातियों की नुमाइंदगी करते रहे हैं, वह अब भी उनके साथ खड़ी दिख रही हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी का साथ मिलने पर वह अपनी पार्टी के निशान पर तीन सांसद जिता लेने में कामयाब हो गए थे। लालू यादव और कांग्रेस उन्हें अति पिछड़ी जातियों को अपने साथ रखने के लिए इस्तेमाल करेगी। बड़ा फायदा देखते हुए उपेंद्र कुशवाहा को उनकी मांग के अनुरूप सीटें देने में भी आरजेडी और कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी। चुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन बिहार में एनडीए के खिलाफ हुआ यह महागठबंधन प्रभावी दिखेगा जरूर।