चुनाव के दबाव में सहमती भाजपा…

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बाखबर/
राघवेन्द्र सिंह

किसी पार्टी की सत्ता हो तो संगठन मजे में रहता है। 15 साल से ये सौभाग्य भाजपा को हासिल है। पहले कभी इस तरह का पॉवर कांग्रेस इन्जॉय करती थी। अब कांग्रेस पॉवर पाने की एक्सरसाइज में जुटी है। उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है इसलिए वह बेफिक्री से चौके-छक्के लगाने में जुटी है। दूसरी तरफ सत्ता की रस-मलाई खाने वाले भाजपा संगठन में काबिलियत की बजाय अवसरवादियों की भीड़ चुनाव जीतने के दबाव में दबी, सहमी और बिखरी सी नजर आ रही है। भाजपा की यही कमजोरी कांग्रेस की ताकत बनी हुई है। संगठन में कैडर कमजोर होने की वजह से भाजपा बागियों को तो मनाने की कोशिश कर रही है लेकिन वफादारों की उपेक्षा उसे बूथ स्तर तक घबराहट में फंसा रही है।
BJP under the pressure of election …
भाजपा संगठन की कमजोरी पिछले दिनों अमित शाह की यात्रा के दौरान तब और उजागर हुई जब मंडल स्तर तक संपर्क के मामले में राष्ट्रीय अध्यक्ष को कमजोर फीडबैक मिला। यह समय भाजपा में बदलाव का भले ही न हो लेकिन खबर यह है कि अमित शाह ने रणनीति पर मैदान में सही काम नहीं होने की वजह से नाराजगी जताई। असल में टिकट मांगने वाले बागियों को तो पार्टी मनाती दिखी लेकिन उम्मीदवारी की चाहत रखने वाले जो भले नेता बागी नहीं हुए उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है।

मसलन उन्हें पार्टी का काम करने और जनता से संपर्क के लिए न तो भाव दिए जा रहे हैं और न ही आवश्यकता के मुताबिक सम्मान दिया जा रहा है। जबकि जिताने वाले नेताओं और कार्यकर्ताओं में वफादारी सबसे महत्वपूर्ण है। यह बीमारी कांग्रेस में भी है मगर वहां लीडर खुद ही सक्रिय हो रहे हैं। अमित शाह ने इन्हीं मुद्दों पर भाजपा संगठन और जिम्मेदार नेताओं की डटाई और खिंचाई की है। जो नेता टिकट मांगते थे उनमें से कई को तो इसलिए काम नहीं दिया कि वह भितरघात करेंगे और कुछ को तो क्षेत्र के बाहर ही भिजवा दिया। ऐसे में पार्टी ने अपने नेताओं पर अविश्वास किया जो विजय दिलाने में अहम भूमिका निभा सकते थे।

असल में अमित शाह चुनाव को लेकर माइक्रो मैनेजमेंट के लिए जाने जाते हैं। शक्ति केंद्र, मतदान केंद्र और फिर पन्ना प्रभारी इसी मैनेजमेंट का हिस्सा माना जाता है। संगठन के नेताओं का बूथ मैनेजमेंट करने वाले कार्यकर्ताओं से उतना लगाव नहीं दिख रहा है जितना जीतने के िलए होना चाहिए। शाह अपनी पूर्व की यात्राओं में संगठन को निर्देशित कर गए थे कि वह मंत्री और विधायकों को यह बताए कि कार्यकर्ता ही आपकी जीत का आधार है इसलिए कार्यकर्ता के मान-सम्मान और उनके काम खासकर निजी कार्यों को चिंता के साथ पूरा करें। मगर ऐसा हो नहीं पाया। शाह ने तो समय रहते यह नुस्खे सुझाए थे। उन्हें अंदाज था कि 15 साल की सरकार के बाद चौथी बार चुनाव जीतना कठिन काम है। ऐसा लगता है कि चुनाव के बाद शायद शाह साहिब संगठन में बड़ा बदलाव करेंगे। जिन नेताओं पर उनका नजला गिरा है उनके तो परफॉर्मेंस न सुधरने पर बचने की संभावना कम लगती है।

अगले साल लोकसभा के चुनाव होने हैं। राज्य में सरकार बनाने में दिक्कत हुई तो दिल्ली में भाजपा को कितनी सीटें मिलेंगी, एनडीए को कितना बहुमत मिलेगा, इस पर ही निर्भर करेगा कि प्रधानमंत्री कौन होगा। हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा कमजोर होती है तो एनडीए में भाजपा का नहीं बल्कि सामूहिक निर्णय से प्रधानमंत्री चुना जाएगा। मध्यप्रदेश को लेकर अमित शाह की चिंता लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ज्यादा गहरी है। इसलिए दबाव में आई प्रदेश भाजपा डरी, सहमी और बिखरी सी है।