राघवेंद्र सिंह
ये शीर्षक श्रमजीवी पत्रकारों के बीच एक नारे की पहली लाईन है और इसकी अगली लाईन है ‘पत्रकारों दलाली छोड़ो’ भोपाल के हमीदिया कॉलेज से एलएल बी. करने के बाद 1985-86 में मैंने शाम के अखबार सांध्य प्रकाश में नौकरी शुरू की थी। पहले जूनियर पत्रकारों को बतौर प्रशिक्षु रखा जाता था। इसमें खबरों के प्रूफ पढ़ने और प्रेसनोट बनाने से प्रशिक्षण का आरंभ होता था। हमारे हिसाब से वर्ष 85 से पत्रकारिता का सूरज भरी दोपहरी में तपने के साथ 2003 के बाद ऐसा लगता है पत्रकारिता ढलान पर आने लगी थी। बात 1992 के बाद की है। दैनिक नई दुनिया में पत्रकारों ने हड़ताल की, तब यह नारा बुलन्द हुआ दलालों पत्रकारिता छोड़ो…
उस समय मप्र श्रमजीवी पत्रकार संघ के अध्यक्ष शलभ भदौरिया थे और उनके अभिन्न मित्रों में थे जुझारु जगत पाठक। हड़ताल से पहले जगत दादा से पत्रकार संघ की अनबन थी। मगर हड़ताल के दौरान उनके भीतर का कामरेड जागा और वे हड़तालियों के तंबू मे आ पहुंचे और उनकी आमद से ही पत्रकारों में जोश आया। सुबह पांच-छह बजे तक नारेबाजी होने के साथ अखबार को छपने से रोकने के लिए बिजली कट करना और किसी तरह छपे अखबार को बंटने से रोकने के लिए पुलिस से भी दो- दो हाथ करना हमारी आँखों के सामने हुआ। इसमें एक डीएसपी का हाथ भी टूट गया था। तब मैं नई दुनिया में बतौर रिपोर्टर काम कर रहा था।
लेकिन पत्रकारिता और दलाली के बीच की लाईन में जब फंसे तो मुझ जैसे कई लोग आंदोलन करने वालों के साथ खड़े थे। अखबार प्रबंधन की खिलाफत में नौकरी जाने का अंदेशा मंडरा रहा था। लेकिन आंदोलन विशेष संवाददाता दिनेश जोशी और सरिता अरगरे से प्रबंधन के दुर्व्यवहार को लेकर था। इन दोनों के लिए भोपाल के पत्रकारों का एकजुट होना एक मिसाल बन गया था। आंदोलन सफल हुआ बाद में उसके क्या नतीजे हुए ये आज का विषय नहीं है लेकिन यह जरूर है कि तब पत्रकार केवल सच्ची पत्रकारिता और उसके मूल्यों के लिए भूखे रहकर भी काम करने का माद्दा रखते थे।
बात लंबी हो रही है मगर मुद्दा पत्रकारों का इसलिए एक बात और जोड़ूंगा कि तब सच्ची और अच्छी पत्रकारिता ज्यादा थी। यही वजह है कि अर्जुन सिंह से लेकर सुन्दरलाल पटवा,दिग्विजय सिंह और बाबूलाल गौर तक खबरों को लेकर न तो कोई भय था और न संकोच। अच्छी बात यह थी कि राजनेता भी इसका बुरा भले ही मानते हों मगर रोजमर्रा की बातचीत में उसे व्यक्त नहीं करते थे। होने को तो शिवराज सिंह चौहान तक कह सकते हैं व्यक्तिगत तौर पर यह सिलसिला चला। पूरे मामले में जनसंपर्क और सरकार के शुभचिंतक अलबत्ता 2003 के बाद पत्रकारिता को ज्यादा प्रभावित करने के प्रयास करने लगे।
अखबार और मीडिया हाउस के मालिकों की तरफ से मार्केटिंग डिपार्टमेंट से होता हुआ दलाली तक जा पहुंचा। कभी ऐसा होगा इसकी कल्पना कठिन है। लेकिन हम इसे जिस घिन आने वाले स्तर तक जाता देख रहे हैं उसी के चलते सत्ता , नौकरशाह, बिल्डर, उद्योगपति के साथ देह व्यापार,विष कन्या और अब अंग्रेजी में हनी ट्रेप जैसा नाम राजनेता अफसर,सैक्सी सुन्दरियों तक जा पहुंचा है। इसमें अखरने वाली बात ये है इन कड़ियों में अब मीडिया की भागीदारी भी बराबर की हो गई लगती है। जो आईना बदसूरती बताता था वो खुद ही स्याह हो गया है। और यहीं से शुरू होती है बात दलालो पत्रकारिता छोड़ो। क्योंकि पत्रकार दलाल नहीं हो सकता और दलाल कभी पत्रकार नहीं हो सकता।
असल में सरकार में बैठे लोगों के लिए पत्रकारिता में दलाली पसंद है। नए जमाने के हिसाब से मीडिया उद्योग हो गया है तो उसमें मालिकों के लिए खबर नहीं बल्कि सरकार से माल लाने और अफसरों से काम निकलवाने वाला मीडिया मैनेजर(दलाल) पसंद है। इसके लिए मीडिया और इवेन्ट मैनेजरों की एक नई नस्ल पैदा हुई है जो रेड लाईट एरिया से होती हुई वैश्विक भाषा में बैंकाक की मौजमस्ती भरी दुनिया बनाने में लग गई। भोपाल इंदौर में जो सैक्स सुन्दरियां नाम इसलिए दिया जा रहा है कि कभी चंबल के बीहड़ों में दस्यु गिरोह में जो महिला डकैत होती थीं उन्हें बाद में दस्यु सुन्दरी कहा गया। सत्ता के गलियारों में पिछले बीस साल में जो बीहड़ विकसित हुए हैं उसमें चंबल के दस्यु सम्राटों और उनके गिरोह को ठंडा रखने वाली सुन्दरियां अब पढ़ी लिखी फर्राटे से अँग्रेजी बोलने वालियों का गिरोह भी हनी ट्रैप के नाम से काम कर रहा है।
सियासत के लिए ईमानदार पत्रकारिता सबसे ज्यादा खतरनाक है। इसलिए एक योजना के तहत सरकारें किसी भी पार्टी की हों उनका निशाना पत्रकारों और खबरों को संदेहास्पद बनाना रहा है। मीडिया हाउस को पैसे का लाभ देने के बाद सरकारों ने अपने दलालों को कब पत्रकारों का चोला पहनाकर अपना गुलाम बनाया पता ही नहीं चला। पिछले पन्द्रह दिनों से मध्यप्रदेश में मंत्री सांसद विधायक अफसर और उद्योगपतियों के बीच बिछने वाली सैक्स सुन्दरियों के सौदे कराने में दलाली करने वाले कथित पत्रकारों के नाम आ रहे हैं। इसमें मीडिया से जुड़ी महिलाएं भी शामिल हैं। जांच में लगी एजेंसी और सरकार को एक बिन मांगी सलाह है कि वे सियासी तौर पर अपने दुश्मन और दोस्त के नाम जब सुविधाजनक हालात हों तब उजागर करें लेकिन मीडिया से जुड़े जो भी नाम सैक्सी सुन्दरियां बता रहीं हैं उन्हें जितना जल्दी हो सके जनता के सामने लाएं। ऐसा नहीं होने पर ये मान लेना चाहिए कि पत्रकारिता और राजनीति तो अपनी जगह है लोकतंत्र के लिए प्रति घंटे नुकसान हो रहा है। अगर पत्रकारिता में पवित्रता हालांकि अभी यह शब्द किताबी लगता है मगर इस पेशे की ईमानदारी संकट में आई तो सभी को नुकसान है।
फिलहाल मीडिया हाउस में दिल्ली से लेकर चंबल, बुन्देलखण्ड और भोपाल में मीडिया की आड़ में दलाली करने वाले पत्रकारों के नाम यहां की फिजां को गन्दा कर रहे हैं। ये तमाम लोग सत्ता में बैठे लोगों की मूंछ और पूंछ के बाल रहे हैं। घबराहट सब में है लेकिन सवाल आईने का है। उसके गंदे रहने से साफ सुथरी पत्रकारिता के चेहरे हैं वे भी बदरंग के रूप में बदनाम हो रहे हैं। बात यहीं रुकती जो भले राजनेता और सज्जन अधिकारी भी मुसीबत में हैं। सोशल मीडिया पर जोक चल पड़े हैं कि शाम होते ही नेता और अधिकारी अपने घर पत्नी से फोन कर पूछते हैं आज सब्जी में क्या लेकर आना है। खबर ये है कि सरकार ने हनी गैंग के मनी मामले में शामिल लोगों के नाम उजागर करने के बजाए ठंडे बस्ते में डाल दिए हैं।
हनी मनी मामले में डीजीपी वीकेसिंह औऱ एसटीएफ के मुखिया पुरुषोत्तम शर्मा में गाजियाबाद फ्लैट को रेस्टहाऊस बनाने के मामले में शर्मनाक विवाद शुरू हो गया है। फ्लैट किराए से लिय़ा था एसटीएफ से जुड़े लोगों को रुकने के लिए मगर इसके दुरुपयोग की खबरें आ रही हैं। मुख्यमंत्री कमलनाथ के आने तक इन दोनों अफसरों में तनातनी चलती रहेगी। खबर ये भी है कि एसटीएफ में दो महिलाओं का भी दखल है। एक डीएसपी रैंक की है तो दूसरी भोपाल में पदस्थ एक थाने की एएसआई।
मध्यप्रदेश के साथ छत्तीसगढ़,महाराष्ट्र की राजनीति में बवाल मचाने वाले सैक्स स्केंडल की जांच के लिए अंतर्राज्यीय अधिकारियों की टीम बनाने की बात भी हो रही है। चूंकि इसमें मंत्री सांसद और आईएएस,आईपीएस अफसरों की सैक्स रिकार्डिंग और आडियो क्लीपिंग भी है। ऐसे में प्रदेश के जूनियर आफीसर मंत्रियों और बड़े अफसरों से निर्भय होकर कैसे पूछताछ कर सकते हैं ? कहा जा रहा है केन्द्र सरकार या हाईकोर्ट मामले की गंभीरता को लेकर संज्ञान ले और विभिन्य राज्यों के चुनिन्दा अफसरों की जांच टीम बनाए और इसकी निगरानी सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति करें।

लेखक IND24 के प्रबंध संपादक हैं