बिना फाटक की रेलवे लाइन पर उम्मीदवार

0
446

बाखबर/
राघवेंद्र सिंह

एक विज्ञापन शायद बहुत लोगों को याद न हो लेकिन आज के दौर में खासतौर से सियासत में उसका उल्लेख करना लाजमी लगता है। विज्ञापन था एक ड्राईवर जिन्हें चुनाव के दौर में उम्मीदवार कह सकते हैं बस लेकर बिना फाटक की रेलवे लाइन दाएं – बाएं देखे बिना पार कर जाता था। इस जान जोखिम वाली लापरवाही पर उसके साथी और शुभचिंतक कहा करते थे ये आदत ठीक नहीं है। इससे जान भी जा सकती है। जवाब में ड्राईवर साब कहते थे कोई फर्क नहीं पैंदा यह रिस्क ड्राईवर रोज ही उठाता था। एक बार की बात है रेल पटरी पर आ रही एक ट्रेन, ड्राईवर और उनकी बस को उड़ा देती है। इसके बाद दूसरा दृश्य ड्राईवर के घर का होता है जिसमें दीवार पर फोटो टंगी है,नीचे अगरबत्ती लगी है और फ्रेम में लगा ड्राईवर का चित्र कहता है फर्क पैंदा है।
Candidates on the railway line without gate
चुनाव का दौर है और उम्मीदवार जीतने की कोशिश में लगे हैं। हर बार होता है कि टिकट एक को मिलता है और नाराज कई हो जाते हैं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत जीवन में चुनाव लड़ने वाले को जितनी शिद्दत से पता होती है उतनी शायद ही कोई जान पाता हो। मामला चाहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के विधानसभा क्षेत्र बुदनी का हो या दिग्विजय सिंह के चिरंजीव जयवर्धन सिंह के राघौगढ़ का हो। यहां सौ फीसदी जीतने वाले भी अपने से थोड़ा भी कोई असंतुष्ट है तो उसे मनाने में लगे हुए हैं। उनका सोच शायद यह नहीं है कि चुनाव तो जीत रहे हैं कुछ लोगों की नाराजी से क्या फर्क पड़ता है।

अब मिसाल के तौर पर भोपाल की हुजूर सीट भाजपा का परंपरागत गढ़ है। यहां दूसरी बार रामेश्वर शर्मा को पार्टी ने स्थानीय नेताओं के विरोध के बावजूद मैदान में उतारा है। बजरंग दल के भोपाल नगर निगम में पार्षद और फिर नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाते हुए शर्मा उन भाग्यशाली नेताओं में हैं जिन्हें हुजूर में हुजूर कहलाने का मौका मिला है। चतुराई जुगाड़ और दबंगई में शर्मा को कोई सानी नहीं है। इसलिए भाजपा के नए नवेले मगर भारी भरकम हुए नेता वी.डी.शर्मा की दावेदारी को उन्होंने खारिज करा दिया। अब रामेश्वर के लिए हुजूर बिना फाटक की रेल पटरी जैसा है।

बागियों को तो वे मुख्यमंत्री की मदद से मैदान से हटवाने में कामयाब हो गए लेकिन उनका दिल नहीं जीता तो भितरघात तय है। ऐसे में कोई ये नहीं कह सकता कि नाराज लोगों से कोई फर्क नहीं पड़ता। इसी तरह ग्वालियर की बागी हुई मेयर समीक्षा गुप्ता को मनाने में सारे दिग्गजों को पसीना आ गया। झांसी की रानी बनी समीक्षा की जिद को लेकर पार्टी में भले ही लोग कहें कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन जानकार कहते हैं फर्क तो पड़ेगा। अब यहां संगठन की भूमिका कम और उम्मीदवार का रोल ज्यादा महत्वपूर्ण है।

अगर प्रत्याशी सतर्क नहीं हुए सेबोटेज न रुका तो फिर मुश्किल है। भोजपुर से पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दर लाल पटवा के भतीजे का मुकाबला फिर कांग्रेस के दिग्गज सुरेश पचौरी से है। इस दफा भाजपा में बगावत खूब हुई थी लेकिन संगठन के साथ पटवा ने भी कोशिश की तो रास्ते के कांटे और गिट्टियां कम हुई हैं। मगर पूर्णिमा जैन के कांग्रेस में शामिल होने के बाद कुछ बड़े नेता भी भाजपा छोड़ सकते हैं। अभी तक पटवा की हालत ऐसी है दो कदम आगे बढ़ते हैं और तीन कदम पीछे हो जाते हैं।

जबलपुर मध्य से भाजपा के शरद जैन के लिए कांग्रेस से ज्यादा अपनी पार्टी के बागी युवा तुर्क धीरज पटैरिया और उनकी टीम खेल बिगाड़ रही है। अब यहां फिलहाल शरद जैन यह नहीं कह सकते कि संगठन उनके साथ है इसलिए धीरज के बागी होने से कोई फर्क नहीं पैंदा। इंदौर की तीन नम्बर सीट जहां से कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश मैदान में हैं लेकिन यहां के आकाश पर भाजपा के भितरघातियों का ग्रहण लगा हुआ है। असंतुष्टों का मानना है कि कैलाश विजयवर्गीय के लिए तो वे अपने कैरियर से समझौता कर सकते हैं लेकिन उनके बेटे की वजह से अपना कैरियर कैसे खत्म कर सकते हैं। अब यह चुनौति आकाश से ज्यादा भाजपा के संकटमोचक नेताओं में शामिल रहे कैलाश की है। ऐसे ही होशंगाबाद सीट भी भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बिना फाटक के रेल पटरी की तरह है।

यहां भाजपा से विधानसभा अध्यक्ष डा.सीताशरण शर्मा और उनके खिलाफ गुरू रहे सरताज सिंह हैं। यहां भी भाजपा प्रत्याशी ने असंतुष्टों की नाराजी दूर कर उन्हें सक्रिय नहीं किया तो फिर परिणाम पर फर्क आ सकता है। छतरपुर की राजनगर विधानसभा सीट से कांग्रेस से बागी नितिन चतुवेर्दी जीते या हारें कांग्रेस को मैदान से बाहर करने की स्थिति में बने हुए हैं। चतुवेर्दी के साथ उनके परिवार की मजबूत विरासत है। यहां कांग्रेस उम्मीदवार असंतुष्टों को सक्रिय नहीं कर पाए तो उनके लिए हालात करेला और नीम चढ़े जैसे हैं।

हमने शुरूआत की थी शिवराज सिंह की बुदनी विधानसभा से यहां अरुण यादव को सुर्खियों में बनाए रखने के लिए प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ और टीम दिग्विजय मेहनत करती दिख रही है। लेकिन टीम शिवराज की चिन्ता अरुण यादव नहीं बल्कि जीत का अंतर बढ़ाने की है। जब मुख्यमंत्री अपने क्षेत्र में चिन्ता कर रहे हैं दिग्विजय सिंह अपने बेटे को ज्यादा बहुमत से जिताने का प्रयास कर रहे हैं तो फिर सारा दारोमदार उम्मीदवार पर ही आकर टिकता है। पार्टी का काम था टिकट देना और जीतने के लिए लोगों को मनाने,बहलाने फुसलाने के फामूर्ले तो उम्मीदवार को ही खोजने पड़ेंगे और उन पर भी उसे ही करना होगा। नहीं तो फ्रेम में लगी फोटो कहेगी फर्क पैंदा है…