शशी कुमार केसवानी
पंजाब का इतिहास रहा है कि एक समय तक हर नेता का उपयोग होता है उसके बाद वो हासिए पर चला ही जाता है, पंजाब की जनता भी ज्यादा समय तक किसी भी नेता को नहीं झेल पाती। इस बार जरूर कैप्टन अमरिंदर सिंह को लंबे समय तक झेला। पंजाब में लंबे समय तक वहीं राज कर सकता है जिसके कनाडा में बसे सिखो से अच्छे रिश्ते हो वो ही पंजाब में टिक पाता है। पंजाब में 2022 के विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने जहां कई दिग्गजों को नजरअंदाज किया तो वहीं कई राजनीतिक घरानों में सियासी संकट छा गया है। इन घरानों का कभी अपने दलों में रसूख था लेकिन आज एक टिकट भी नसीब नहीं हो सकी। पार्टी की बेरुखी ने इन घरानों व दिग्गजों को हाशिए पर ला दिया है।बरनाला परिवार
दिवंगत सुरजीत सिंह बरनाला का सिक्का कभी पंजाब से लेकर दिल्ली तक चलता था। 1985 से 1987 तक पंजाब के सीएम रहे थे। बरनाला ने पंजाब की कमान ऐसे समय में संभाली, जब अस्सी के दशक में उग्रवाद पंजाब में चरम पर था। 1985 की गर्मियों में संकटग्रस्त पंजाब में शांति बहाल करने और राजीव-लोगोंवाल संधि के बाद अकाली दल के उदारवादी नेता बरनाला मुख्यमंत्री बने।
तमिलनाडु के राज्यपाल रहते बरनाला ने 1991 में द्रमुक सरकार भंग करने की सिफारिश करने से मना कर दिया था। उस समय चंद्रशेखर प्रधानमंत्री थे। इंकार के बाद जब बरनाला का बिहार स्थानांतरण किया गया तो उन्होंने राज्यपाल के पद से इस्तीफा देना उचित समझा। बरनाला उत्तराखंड और आंध्र प्रदेश के भी उपराज्यपाल चुके थे।
वह केंद्र में मोरारजी देसाई की सरकार में कृषि मंत्री थे और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रसायन एवं उर्वरक मंत्री थे। 2002 में अकाली दल ने सुरजीत सिंह बरनाला के बेटे गगनजीत सिंह बरनाला को टिकट दी, जो चुनाव जीतकर विधायक बने। 2016 में परिवार कांग्रेस में आ गया लेकिन फिर से अकाली दल में चला गया। इस बार सुरजीत सिंह बरनाला के बेटे एडवोकेट सिमरप्रताप सिंह बरनाला टिकट की मांग कर रहे थे लेकिन अकाली दल ने टिकट नहीं दिया। बरनाला परिवार अब हाशिये पर चला गया है।
केपी परिवार
जालंधर का केपी परिवार कांग्रेस की अनुसूचित जाति व दोआबा की राजनीति का केंद्र रहा है। मोहिंदर सिंह केपी के पिता दर्शन सिंह केपी भी पंजाब के मंत्री रहे हैं। आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी थी, जिसके बाद मोहिंदर सिंह केपी राजनीति में आ गए। बेअंत सिंह की सरकार से लेकर कैप्टन सरकार में वह मंत्री रहे। 2009 में वह जालंधर से लोकसभा सदस्य बने। पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रधान भी रहे। 2014 में वह होशियारपुर संसदीय क्षेत्र से मैदान में थे लेकिन चुनाव हार गए। 2017 में उनको आदमपुर से टिकट दिया गया लेकिन वह चुनाव नहीं जीत सके। इस बार पार्टी ने उनका टिकट काट दिया है।
केवल सिंह ढिल्लों
केवल सिंह ढिल्लों 2012 में कांग्रेस के टिकट पर बरनाला से विधायक चुने गए थे। उस समय अकाली दल और भाजपा गठबंधन की सरकार सत्ता में थी। 2017 में वह विधानसभा चुनाव हार गए थे लेकिन 2019 में कांग्रेस ने उनको लोकसभा चुनाव लड़वाया था, जिसे वह जीत नहीं पाए। इस बार कांग्रेस ने केवल ढिल्लों का टिकट काट दिया है और केवल सिंह ढिल्लों का परिवार हाशिये पर चला गया है।
दसूहा में साही परिवार की राजनीति भी हाशिये पर
20 साल से कांग्रेस की पक्की सीट पर पहली बार कब्जा करने वाले साही परिवार को भाजपा ने अलविदा कह दिया है। 1985 से रमेश चंद्र डोगरा का विजयी रथ 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के अमरजीत सिंह साही ने रोक लिया था। 2012 के विधानसभा चुनाव में भी साही ने डोगरा को हरा दिया था। चुनाव के एक साल बाद साही की मौत के बाद उपचुनाव हुआ था। भाजपा की तरफ से अमरजीत साही की पत्नी सुखजीत कौर साही ने फिर से मैदान फतेह किया। 2017 में यह सीट कांग्रेस के मिक्की डोगरा के पास चली गई थी। इस बार भाजपा ने साही परिवार की राजनीति पर विराम लगाकर रघुनाथ सिंह राणा पर दांव खेला है।
सतपाल गोसाई का परिवार
1980 में भाजपा की स्थापना से लेकर 2012 तक छह विधानसभा चुनाव लड़कर तीन में जीत हासिल करने वाले सतपाल गोसाई लुधियाना में ही नहीं, बल्कि पूरे पंजाब में भाजपा का स्तंभ माने जाते थे। स्वास्थ्य मंत्री रहे गोसाई के पास पंजाब के डिप्टी स्पीकर पद की दो बार जिम्मेदारी रही। पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर रहे गोसाई पहले बिजली विभाग में कार्यरत रहे। 2022 में उनके परिवार को भी नजरअंदाज कर दिया गया। उनके परिवार में किसी को टिकट नहीं दिया गया है। गोसाई का पोता अमित काफी तेजतर्रार व युवा भाजपा का प्रवक्ता रहा है लेकिन पार्टी ने उनको टिकट नहीं दिया।