आओ ! अब हम भी आपस में लड़ें

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राजेश बादल

लेखक राजेश बादल वष्ठि पत्रकार है आज तक चैनल से लंबे समय तक जुड़े रहे। बाद में
राज्यसभा टीवी के संपादक रहे।

पिछले सप्ताह भारतीय टेलिविज़न के आदिकाल प्रस्तोता -पत्रकार विनोद दुआ के ख़िलाफ़ दिल्ली में बीजेपी के एक प्रवक्ता ने एफआईआर दर्ज़ कराई। चंद रोज़ बाद उनके विरोध में एक और मामला हिमाचल पुलिस ने पंजीबद्ध किया।यह मामला हिमाचल प्रदेश के एक अंदरूनी ज़िले के बीजेपी उपाध्यक्ष ने दर्ज़ कराया।इसके बाद वहाँ की पुलिस आई और उनके दरवाज़े हाज़िरी का फ़रमान चिपका कर चली गई।हिमाचल की पुलिस ने तो श्री दुआ पर देशद्रोह का मामला लगाया है।दिल्ली वाले प्रकरण में उन पर सांप्रदायिकता भड़काने और ग़लत सूचनाएँ देने का आरोप है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में कह दिया कि यह तो एफआईआर का मामला ही नहीं बनता । हिमाचल वाला यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन है।
पत्रकार बिरादरी को यह भी याद है कि कुछ समय पहले रिपब्लिक टीवी के संपादक अर्नब गोस्वामी के ख़िलाफ़ महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में भी ऐसे ही कुछ केस रजिस्टर किए गए थे। श्री अर्नब पुलिस के समक्ष पेश भी हुए थे।उन पर भी साम्प्रदायिकता फैलाने और कांग्रेस के शिखर नेताओं के बारे में अभद्र टिप्पणियों का आरोप है। उन्हें भी अदालत से फौरी राहत मिल गई थी। सियासी और पत्रकारिता जगत में यह माना जा रहा है कि श्री गोस्वामी के ख़िलाफ़ प्रकरण दर्ज़ होने के बाद श्री दुआ के ख़िलाफ़ मामले एक तरह से जवाबी कार्रवाई है।

मीडिया संसार का कमोबेश हर पत्रकार जानता है कि सचाई यही है। यह स्थापित तथ्य है कि अर्नब गोस्वामी अपने शो और चैनल में भारतीय जनता पार्टी और इसके नेताओं की कोई आलोचना नहीं होने देते।लेकिन वे कांग्रेस के शिखर नेताओं की कड़ी आलोचना करते हैं। यह सिलसिला चैनल शुरू होने के बाद से लगातार चल रहा है।अर्थात हम मान सकते हैं कि अर्नब की स्वाभाविक सहानुभूति भारतीय जनता पार्टी के साथ है।इस तरह वे ज़ीटीवी और इंडिया टीवी के साथ एक प्लेटफॉर्म पर खड़े दिखाई देते हैं।मीडिया के कुछ अन्य संस्थान भी बीजेपी के साथ खुलकर समर्थन करते दिखाई देते हैं ।

दूसरी ओर श्री दुआ अतीत में क़रीब बीस बरस कांग्रेस की सरकार रहते हुए ही सरकारी दूरदर्शन पर कांग्रेस सरकार की कई नीतियों के मुखर आलोचक रहे हैं। एनडीटीवी के साथ जब श्री दुआ का जुड़ाव था तो वे कमोबेश सभी पार्टियों के निरपेक्ष आलोचक की भूमिका में रहे हैं।जब उनका शो एनडीटीवी पर प्रसारित होता था तो श्री अर्नब गोस्वामी भी वहाँ काम करते थे।एनडीटीवी संस्थान की पहचान हमेशा एक ज़िम्मेदार पत्रकारिता करने वाले संस्थान की रही है।अलबत्ता बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार केंद्र में आई तो इस संस्थान ने प्रखर आलोचक की भूमिका निभाई। लेकिन तब तक श्री दुआ का नाता इस संस्थान से टूट गया था।इसके बाद द वायर और स्वराज एक्सप्रेस के साथ उनका रिश्ता बना। इन दोनों मीडिया संस्थानों की छबि बीजेपी समर्थक नहीं मानी जाती ।

तो यह अर्थ लगाया जा सकता है कि भारतीय पत्रकारिता भी इन दिनों साफ़ साफ़ दो धड़ों में बँट गई है।एक पक्ष के साथ है तो दूसरा धड़ा प्रतिपक्ष के साथ। ऐसे में एक आम पत्रकार के लिए निजी तौर पर सही और ग़लत का निर्णय करना मुश्किल हो सकता है।फिर भी निवेदन यह है कि ऐसे वैचारिक संकट की घड़ी में दिल से कोई निर्णय न लें। वे दोनों धड़ों के प्रतीक पुरुषों -श्री दुआ और श्री अर्नब के पच्चीस ,पचास या सौ पुराने शो देखें। उनका स्वयं विश्लेषण करें। उसके बाद अपनी धारणा बना लें। क्योंकि जो समाज इतना बुद्धि निरपेक्ष हो जाए कि दो पीढ़ियों के दिग्गज पेशेवरों की भूमिका पर कोई फ़ैसला न ले सके और अपनी अपनी वैचारिक अक़्ल धारा को सही माने तो फिर क्या कहने को रह जाता है ?

एक तथ्य पर हमें और ध्यान देना पड़ेगा। दोनों मामले अदालत में विचाराधीन हैं। लंबित हैं। विद्वान न्यायाधीशों की योग्यता पर हमें सवाल उठाने का अधिकार नहीं है। इसलिए अदालत का फ़ैसला आने तक धीरज और संयम से हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए। सोशल मीडिया के तमाम अवतारों को कुरुक्षेत्र का मैदान नहीं बनाया जाना चाहिए।सख़्ती के साथ इन पर चुप्पी धारण करना ही बेहतर है। इससे न्यायालय के अपने विवेक पर भी असर पड़ सकता है।अगर इसका पालन करेंगे तो ज़िम्मेदार पत्रकारिता के सरोकारों का पालन करते नज़र आएँगे। अन्यथा सियासत ने तो हमें आपस में लड़ने के लिए चाकू -छुरे एक दूसरे के हाथ में दे ही दिए हैं मिस्टर मीडिया !