आरबीआई के एक्शन से हिली विदेश में निवेश करने वाली कंपनियां, देना होगा डिक्लेरेशन

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मुंबई। कई कंपनियां विदेशी निवेश को लेकर रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया (आरबीआई) की पूछताछ से हिल गई हैं। ये निवेश पिछले कई साल के दौरान इन कंपनियों में हुए हैं। कंपनियों को निवेश की जानकारी के साथ डेक्लरेशन भी देना है। ऐसे में उन्हें गलत रिपोर्टिंग के गंभीर परिणाम का डर सता रहा है। आरबीआई ने इसके लिए कंपनियों को डिटेल फॉर्मेट दिया है।
Companies that invest in foreign companies from the action of RBI, will have to give declaration
इसके मुताबिक कंपनी के बड़े अधिकारी (कंपनी सेक्रेटरी या कोई डायरेक्टर) को साइन किया हुआ डिक्लेरेशन देना होगा, जिसमें लिखा होगा, अब तक जो विदेशी निवेश मिला है और जिसकी जानकारी दी जा चुकी है, उसका इस्तेमाल प्रिवेंशन आॅफ मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट 2002 (पीएमएलए) के मुताबिक किया गया है।

अधिकांश कंपनियां यह डिक्लेरेशन नहीं देना चाहतीं। दरअसल, कई कंपनियों ने विदेशी निवेश की लिमिट या विदेशी करंसी में कर्ज संबंधी पाबंदियों से बचने की तरकीब अपनाई थी। वे नहीं चाहतीं कि नए रिपोर्टिंग सिस्टम की वजह से इसकी डीटेल सामने आए। लॉ फर्म खेतान ऐंड कंपनी में पार्टनर मोइन लाढा ने कहा, ह्यआरबीआई और सरकार कुल विदेशी निवेश और उसकी क्वॉलिटी पर नजर रखना चाहते हैं। हालांकि, कंपनियों को कुछ आशंकाएं हैं।

ड्राफ्ट फॉर्म्स को देखने के बाद यह समझ नहीं आ रहा है कि विदेशी निवेश को पीएमएलए जैसे सख्त कानून से साथ क्यों जोड़ा जा रहा है, जबकि यह कानून खास मामलों से निपटने के लिए बनाया गया है। कंपनियों से 22 जुलाई तक सभी डायरेक्ट और इनडायरेक्ट इन्वेस्टमेंट के शुरूआती डेटा शेयर करने हैं। मोइन ने कहा, कंपनियों के लिए वैसे भी इनडायरेक्ट इन्वेस्टमेंट पर नजर रखना मुश्किल होता है।

विदेशी निवेश हासिल करने वाली कंपनी या लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप को यह भी बताना होगा कि फेमा के उल्लंघन को लेकर उसकी जांच एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट (ईडी), सीबीआई या कोई दूसरी एजेंसी तो नहीं कर रही है। कंपनियां यह नहीं समझ पा रही हैं कि अगर उन्हें कोई नोटिस मिला है तो क्या उसे जांच मानकर उसकी जानकारी देनी होगी?

आईसी यूनिवर्सिल लीगल के सीनियर पार्टनर तेजस चितलांगी ने कहा कि कंपनियों को निवेश के ऐसे स्ट्रक्चर की भी जानकारी देनी होगी, जिन्हें सख्त रुख अपनाए जाने पर तत्कालीन नियमों का उल्लंघन माना जा सकता है। इसी वजह से कंपनियों ने स्ट्रक्चर की जानकारी पहले नहीं दी थी। चितलांगी ने कहा कि यह मुश्किल स्थिति है क्योंकि इससे पहले के नॉन-कंप्लायंस के मामलों के सामने आने का डर है।