मुगल-ए- आजम सरीखी है “ दास्तान-ए- मुगल-ए-आजम”

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TIO, ब्रजेश राजपूत
( ग्राउंड रिपोर्ट )

कुछ किताबें होती हैं जो आपको लुभाती हैं आओ मेरे पास और मुझको पढो। मेरे बुक शेल्फ पर रखी “दास्तान ए मुगल ए आजम” ऐसी ही किताब है जो मुझे पिछले कई दिनों से बुला रही है। मगर मैं जितनी बार उसके पास गया उसके चित्रों और चित्रकारियों में डूब गया और पढना भूल गया। आज जब कसम खाकर उसे पढने बैठा तो पढते पढते लगा कि उफ मैं कितने दिनों तक इस बेहतरीन किताब के किस्सों से दूर रहा। ये किताब जाने माने पत्रकार राजकुमार केसवानी ने लिखी है। केसवानी जी से उनके पाठक हर रविवार को रसरंग में उनके कालम आपस की बात के मार्फत पिछले तेरह साल से मुलाकात करते आ रहे हैं और जानते हैं कि वो कितना डूब कर गहराई में जाकर लिखते हैं। मैंने कई दफा उनसे पूछा कि फिल्मों के किस्सों का अनंत खजाना आपके हाथ कैसे लग गया जो खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। मगर वो हंस कर टाल देते हैं पर उनके खजाने का कोहिनूर हीरा तो अब जाकर उन्होंने पाठकों के सामने पेश किया है “दास्तान ए मुगल ए आजम” के तौर पर।
तकरीबन चार सौ पन्नों की इस रंगबिरंगी किताब में साठ साल पहले रिलीज हुयी और अब तक हिंदी फिल्मों की बादशाह बनी हुयी फिल्म “मुगल ए आजम” के ख्वाब के हकीकत बनने की कहानी है। ये ख्वाब देखा था के. आसिफ यानिकी कमरूददीन आसिफ ने जिन्होंने 1922 में खेले गये मशहूर ड्रामे अनारकली की कहानी सुनी और इसी पर फिल्म बनाने की ठानी। के. आसिफ फिल्मी दुनिया के सबसे बडे डायरेक्ट में गिने जाते हैं मगर केसवानी जी ने ये भी तलाश लिया कि आसिफ साहब ने मुंबई में शुरूआत लेडीज टेलर के तौर पर की मगर आने वाले दिनों में फिल्मी दुनिया के बडे ‘ स्टोरी टेलर ‘ बन गये। यही इस किताब की खासियत है कि इस महान फिल्म से जुडे हर किरदार के कद्रदानों का जिक्र उनके खानदानों के साथ किया गया है। और वो भी अनेक दुर्लभ फोटोग्राफ के साथ। वो कलाकार जो पर्दे पर हमें दिखे और जो नहीं दिखे उन पर भी इस किताब में बेहतरीन किस्से दर्ज हैं। शहजादा सलीम से लेकर अनारकली को इस फिल्म के लिये चुनने से लेकर उनके पहनावे, उनके बोल चाल और अंदाज तक पर आसिफ ने दीवानगी की हद तक काम किया। एक जगह लेखक ने लिखा भी है कि जब फिल्म बनाने वाला आसिफ जैसा दीवाना हो जो हर काम को परफेक्शन से भी एक कदम आगे की हद तक जाकर काम करने का आदी हो, तो उस दीवानगी की दास्तानें भी सदियों तक दोहराई जाती हैं। तो ऐसी कई दास्तानें हैं कलाकारों को चुनने, उनसे बेहतरीन काम लेने और उसे बेहतर से बेहतर तरीके से पेश करने की।
‘ मुगल ए आजम’ को 1944 में शुरू करने से लेकर अगस्त 1960 यानिकी फिल्म रिलीज तक के आसिफ की राह में इतनी मुश्किलें आयीं कि मिर्जा गालिब का ये मिसरा “ मुश्किलें मुझ पे इतनी पडी कि आसां हो गयीं” पूरे वक्त याद आता रहता है। इस कामयाब फिल्म का बनना जितना दिलचस्प और हैरतअंगेज किस्सों से भरा है तो उसकी रिलीज के किस्से भी कम रोचक नहीं है। केसवानी जी ने इसके रिलीज के दौरान टिकट खिडकी के जो नजारे लिखे हैं उनकी कल्पना आज नहीं की जा सकती। मुंबई के सिनेमा हाल मराठा मंदिर में पहली बार पांच अगस्त 1960 को रंगीन टिकटोें के लिये तीन दिन तक दीवानों की कतार बरसते पानी में लगी रही। पचहत्तर पैसे से लेकर दो रूप्ये तक के ये टिकट सौ से दो सौ रूप्ये में ब्लेक में बिके। पाकिस्तानी दर्शकों में भी इस फिल्म को लेकर इतनी दीवानगी थी कि वो वीसा लेकर ये फिल्म देखने ही आते थे ऐसे में मराठा मंदिर के मालिक ने इस पाकिसतानी दर्शकों के लिये कतार में ना लगकर सिनेमा हाल के अंदर ही टिकट देने का इंतजाम किया। ऐसे अनेक दिल को छू लेने वाले किस्सों से भरी है ये किताब जिसमें उस जमाने के दुर्लभ फोटोग्राफ के साथ ही हैं मशहूर चित्रकार एम एफ हुसैन की रंगीन पच्चीस पेंटिग्स जो इस फिल्म की सीरीज के तौर पर हुसैन साहब ने बनायी थी। ये पेंटिग्स पहली बार के. आसिफ के लंदन में बसे बेटे अकबर आसिफ की इजाजत पर किसी किताब में इस शानदार तरीके से इस्तेमाल की गयीं है। हुसैन साहब भी इस फिल्म के जादू से बच ना सके थे।
इस किताब का हर पन्ना रोचक किस्सों और रंगीन अनदेखी तस्वीरों से भरा है और अहसास कराता है कि आप वाकई ‘ मुगल ए आजम ‘ देख रहे हैं। साथ ही लिखे हैं वो डायलाग्स जो कई सालों तक लोग़ों की जबान पर चढे रहे जैसे ..
अकबर – मालुम हुआ कि तुम अपनी मुहब्बत की आग में मुगलों का ताज पिघलाकर एक रक्कासा के पैरों की पाजेब बनाना चाहते हो , तुम हिदुस्तान के तख्त पर एक हसीन लौंडी को नचाना चाहते हो और तुम,,,
सलीम – और आप इस भरे दरबार में अपनी होने वाली बहू को जलील करना चाहते हैं।
अनारकली – जिल्ले इलाही को साहिब ए आलम की जिंदगी मुबारक हो ,,
अकबर – और तुझे तेरी मौत,,
अब इन डायलाग्स को पढने के बाद वो बेमिसाल फिल्म के एक एक सीन याद आ जाते हैं जिसको यदि किसी ने नहीं देखा तो फिर क्या देखा। इसलिये इस फिल्म को दोबारा देखिये और ना देख पायें तो इस किताब को जरूर देखिये और नजर ना भटके तो पढिये भी,, हांलाकि मंजुल पब्लिशिंग हाउस की इस किताब की कीमत थोडी ज्यादा ही है।
ब्रजेश राजपूत,
एबीपी नेटवर्क़, भोपाल