नए साल में लोकतंत्र के मद्धम पड़ते सुर

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राजेश बादल


भयावह दौर है।दुनिया के तमाम हिस्सों में लोकतांत्रिक सरोकार सिकुड़ रहे हैं।मुल्क़ों की हुक़ूमतों और उनके शिखर पुरुषों के ज़ाती हित समूची व्यवस्था में प्रधान होते जा रहे हैं। सामुदायिकता और समाजों की बेहतरी हाशिए पर चली गई है।जिस मक़सद से शासन प्रणालियों के विविध रूपों की रचना होती है ,वही गहरे कुहासे में छिपते जा रहे हैं।एक सदी से जिन मूल्यों और सियासत के सिद्धांतों की वक़ालत की जाती रही है, अब उनकी निरंतर उपेक्षा पर सहानुभूति व्यक्त करने वालों का टोटा है। संसार के सरपंच अमेरिका से लेकर उत्तर कोरिया तक अपने तौर तरीक़े बदल रहे हैं।अफ़सोस यह है कि किसी भी देश की प्राथमिकताओं में अवाम की समस्याएँ सुलझाना नहीं रहा है।इक्का दुक्का अपवादों के जुगनू टिमटिमा रहे हैं,मगर वे इस बात की गारंटी नहीं देते कि आने वाले दिन जम्हूरियत और मानव अधिकारों की चकाचौंध से क़ायनात को भर देंगे।

सवालों के कटघरे में खड़े हम सबके लिए यह आत्ममंथन का दौर है।
इस बरस विश्व मंच पर दो विराट और प्राचीन गणतंत्र के रूप में प्रतिष्ठित देशों ने हताशा भरी तस्वीर प्रस्तुत की है। अपने अपने लोकतंत्र पर यह बड़े राष्ट्र अमेरिका और भारत कुछ समय पहले तक शेखी बघारते नज़र आते थे।अब इनकी अंदरूनी हालत ने पेशानी पर बल डाल दिए हैं ।यह राष्ट्र तो तेज़ी से उदार और आधुनिक लोकतंत्र की ओर क़दम बढ़ा चुके थे।पर अब इन देशों में आंतरिक हालत अफ़सोसनाक़ हैं । तमाम हदें पार कर दिन प्रतिदिन विकराल हो रही कट्टरता और विकृत राष्ट्रवाद ने आने वाली नस्लों के लिए शासन प्रणाली का एक ख़तरनाक़ स्वरुप प्रस्तुत किया है।यह लंबे समय तक दमकने वाली उम्मीद की किरण नहीं जगाता ।लगता है कि विश्व की लोकतांत्रिक शिखर संस्थाओं को नए सिरे से रचने और गढ़ने की आवश्यकता आ गई है। इस काम को करने वाले नए शिल्पी या विश्वकर्मा के लिए ज़रूरी सामान हमने जुटा दिया है।अब वह संसार के नक़्शे में जिस नई कृति को तैयार करेगा ,उसमें रौब गाँठते, मूँछों पर ताव देते किसी सनकी राजा का अक्स दिखाई देगा।यह कुछ कुछ मध्यकाल के बर्बर शासक की याद दिलाने जैसा होगा।
आज के विश्व में शासन पद्धति के लिए विचारधाराओं की आवश्यकता नहीं रही है ।एक स्थिति में आकर वे दम तोड़ देती हैं ।चाहे वामपंथ हो या समाजवाद, कोई मध्यम राष्ट्रीय मार्ग हो अथवा पूंजीवाद ।जिन प्रणालियों को इनसान ने अपनी सहूलियतों या सुविधाओं के लिए आकार दिया था ,वे अब उसी इनसान को चला रही हैं । उनका अस्तित्व नाममात्र के लिए ही रह गया है।संसार में सबसे बड़ी आबादी वाले चीन का चरित्र अब वामपंथी नहीं रहा है ।सबसे अधिक मानव श्रम का शोषण उसी देश में होता है ।वहाँ लोकतंत्र और अपने अधिकारों की बात करना जुर्म है। समूची शासक पार्टी एक व्यक्ति के हाथों में सिमट गई है ।अमेरिका में भी राष्ट्रपति नामक आला राजनेता अपनी सनक भरी ज़िद से देश को अराजकता के कग़ार तक ले जाने से झिझकता नहीं है।तो भारत के राजनीतिक मंच पर भी अब सामूहिक नेतृत्व बीते दिनों की बात हो गई है ।

शासन प्रबंध के सूत्र संवैधानिक संस्थाओं से फ़िसलते जा रहे हैं।कमोबेश एशिया, दक्षिण एशिया, मध्य एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के अनेक राष्ट्रों में भी इसी तरह के हालात बनने लगे हैं ।यानी अधिकतर देशों का लोकतांत्रिक ढांचा चरमराने की स्थिति में पहुंच गया है ।बाँझ होती जम्हूरियत में छिपी चेतावनी के सन्देश यदि हम नहीं पकड़ पा रहे हैं तो यह दुर्भाग्यजनक है।


तो इस बिखरते लोकतंत्र और लड़खड़ाती शासन पद्धतियों में आज क्या चेतावनी छिपी है ? एक किस्म की वैश्विक अराजकता की तरफ़ हम बढ़ते जा रहे हैं ।यह एक तरह का लोकतान्त्रिक ग्रहण ही तो है ? इन तमाम विषमताओं और जटिलताओं से उबरने के लिए क्या किया जाए ? यह एक गंभीर और सार्थक बहस की माँग करता है।जब तक आम आदमी की शासन प्रबंध में सक्रिय भागीदारी नहीं होगी,तब तक किसी भी सुधार की अपेक्षा बेकार है।यह तभी संभव है ,जब एकदम स्थानीय स्तर पर अधिकारों का विकेन्द्रीकरण हो ,स्थानीय संस्थाएँ मज़बूती से अपने पैरों पर खड़ी हों और एक तरह से सहकारिता – सिद्धांत लागू किया जाए। गांधी के ग्राम स्वराज की संकल्पना यही तो थी।गांधी जी की स्पष्ट धारणा थी कि आदर्श समाज एक राज्य रहित लोकतंत्र है। प्रबुद्ध और जागृत अराजकता की अवस्था है,जिसमें सामाजिक जीवन इतनी पूर्णता पर पहुँच जाता है कि वह स्वयं शासित और स्वयं नियंत्रित बन जाता है। आदर्श अवस्था में कोई राजनीतिक सत्ता नहीं होती ,क्योंकि किसी राज्य का अस्तित्व नहीं होता। हालाँकि महात्माजी यह भी मानते थे कि आदर्श की सम्पूर्ण सिद्धि असंभव है फिर भी ग्राम स्वराज राज्य रहित लोकतंत्र के समीप पहुँचता है।

राज्य वही उत्तम है ,जो कम से कम शासन करे। इसका अर्थ यह नहीं कि किसी देश में सरकार नामक कोई व्यवस्था ही नहीं हो। वरन उनका मतलब शासन एक ऐसे तंत्र में बदल जाए ,जिसमें सब काम समाज का हर अंग स्वमेव प्रेरणा से करे। आज की भाषा में हम उसे ऑटो मोड में डालना कह सकते हैं। असल में उस फ़रिश्ते की सुन ली गई होती तो आज यह दुर्गति नहीं होती।गांधी के रास्ते पर ही शासन संचालन के वैचारिक कल पुर्जों को ढालना होगा। उसके बाद ही हम सामूहिक नेतृत्व पर बात कर सकते हैं अन्यथा अपने हाथों विनाश की इबारत हम लिख ही चुके हैं।