प्रादेशिक पार्टियों में कलह और सामंती चरित्र

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TIO राजेश बादल

हिंदुस्तानी लोकतंत्र में प्रादेशिक पार्टियों को ग्रहण सा लग गया है।स्थापना के दशकों बाद भी जम्हूरियत से उनका ज़मीनी फ़ासला बढ़ता जा रहा है।बहुदलीय तंत्र किसी भी गणतांत्रिक देश की ख़ूबसूरती का सबब होता है।पर जब दलों के अंदर राजरोग पनपने लगें तो फिर प्रजातांत्रिक शक्ल के विकृत होने का ख़तरा बढ़ जाता है।बिहार में लोकतांत्रिक जनतापार्टी(लोजपा) काआंतरिक घटनाक्रम कुछ ऐसी ही कहानी कहता है।चिराग़ रामविलास पासवान के उत्तराधिकारी हैं।जिस तरह राजतंत्र में राजकुमार ही उत्तराधिकारी होता था और कभी कभी हम पाते थे कि उत्तराधिकार के लिए जंग छिड़ जाती थी।ऐसी ही अंदरूनी लड़ाई इस नन्ही सी पार्टी में भी नज़र आ रही है।राजघराने की तर्ज़ पर राजा के भाई ने भतीजे की पीठ में खंजर घोंप दिया।

वैसे तो यह इस प्रदेश की इकलौती कहानी नहीं है।इसी दौर में लालूयादव ने आरजेडी को जन्म दिया।वे घनघोर समाजवादी और लोकतंत्र समर्थक लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में प्रशिक्षित हुए थे।लेकिन उनका लोकतंत्र राजतंत्र में तब्दील हो गया,जब उन्होंने पत्नी और सियासत के ककहरे से अपरिचित राबड़ीदेवी को मुख्यमंत्री बना दिया।उसके बाद अगली पीढ़ी भी राजपाट संभालने लगी।सत्तारूढ़ जेडीयू के मुखिया नीतीशकुमार क्या अपने आप में सामंती चरित्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते?पड़ोसी उत्तरप्रदेश ने भी यही कहानी दोहराई।मुलायमसिंह ने समाजवादी पार्टी बनाई । कुछ बरस बाद पार्टी उनके पुत्र व भाई की कलह का शिकार बन गई।अंततः कमान पुत्र अखिलेश यादव के हाथ में आई।इन दलों में एक और स्थाई रोग चस्पा हो गया।ये दल,यादव कुल की जातियों के रौब तले दब गए।इसी तरह बहुजन समाज पार्टी का उदभव कुछ जातियों से नफ़रत के बीज से हुआ।इन दलों ने समर्थकों को लोकतांत्रिक बनाना तो दूर,उन्हें सामंती प्रजा बना दिया।क्या मायावती के बाद दल में स्वाभाविक निर्वाचित प्रतिनिधियों की दूसरी पंक्ति नज़र आती है ? इन दलों को अन्य जातियों के वोटों की खातिर कुछ टुकड़े उनको भी डालने पड़े।पर समग्र समाज का प्रतिनिधित्व करने में ये दल नाकाम रहे।इसीलिए ढाई -तीन दशक बाद भी बौने ही हैं।राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकसित नहीं हो पाए।वे शायद राष्ट्रीय होना ही नहीं चाहते।अपनी छोटी छोटी रियासतों से ही गदगद हैं।

हरियाणा में चौधरी देवीलाल ने जिसकी नींव डाली,क्या वह दल युवराजों के अपने खंडित साम्राज्य में तब्दील नहीं हो चुका है?वे जनादेश का मखौल उड़ाते दिखाई देते हैं।जिस पार्टी से चुनाव अभियान में मोर्चा लेते हैं,परिणाम आने के बाद उसी से हाथ मिलाकर गद्दी नशीन हो जाते हैं।पुराने ज़माने के छोटे राजाओं की तरह।सिद्धांत-सरोकार कपूर की तरह उड़ जाते हैं।पढ़े लिखे मतदाता भी इन नए नरेशों की स्तुति करते हैं।कमोबेश यही हाल पंजाब का है।वहाँ अकाली दल भी सामूहिक नेतृत्व को तिलांजलि देकर एक परिवार को ही क्षत्रप बना बैठा है।क्या उस परिवार से अलग कोई राजनेता उस पार्टी का अध्यक्ष बनने की सोच भी सकता है ? महाराष्ट्र में सरकार चला रही शिवसेना भी उत्तराधिकार परंपरा निभा रही है।एक ज़माने में इस दल में चचेरे भाइयों के बीच शक्ति संघर्ष देखने को मिला था।अंततः युवराज उद्धव ठाकरे के हाथ में कमान आई।शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी कोई अपवाद नहीं है।इस पार्टी के भीतर कितने चुनाव हुए हैं।क्या वाकई दल में सब कुछ गणतांत्रिक ढंग से चल रहा है।शरदपवार के बिना पार्टी के अस्तित्व की कौन कल्पना कर सकता है।तमिलनाडु में सत्ताधारी द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) का भी हाल ऐसा ही है।करुणानिधि ने राजा की तरह पार्टी को चलाया।राजपरिवार जैसे संघर्ष इसके अंदर भी हुए,शक्ति केंद्र पनपे और फिर एक युवराज के हाथ में कमान आ गई।नवोदित आमआदमी पार्टी का भी यही हाल है।अरविंदकेजरीवाल से बड़ी आशाएँ थीं।लेकिन क्या हुआ।इस पार्टी पर भी तानाशाही के घुड़सवार चढ़ बैठे।उनकी टीम में स्वतंत्र सोच रखने वाले अधिकतर लोग उनके साथ नहीं रहे।आशुतोष,कुमारविश्वास,किरणबेदी,योगेंद्रयादव,प्रशांतभूषण,आशीषखेतान,मेधा पाटकर, एडमिरल रामदास,कपिल मिश्रा,अंजलि दमानिया,कप्तान गोपीनाथ और प्रो.आनंद कुमार तक उनसे पल्ला झाड़ चुके हैं।अरविन्द की कार्यशैली दरअसल निरंकुश अधिनायक की है।

वैसे तो 25-30 बरस एक विराट लोकतंत्र की आयु में कोई ख़ास मायने नहीं रखते,मगर हिंदुस्तान में इन वर्षों ने यक़ीनन लोकतंत्र का चेहरा विकृत किया है।नब्बे के दशक में जब राजनीतिक अस्थिरता के खेत में कुकुरमुत्तों की तरह ढेर सारी प्रादेशिक पार्टियों की फसल उगी तो उम्मीद थी कि जम्हूरियत की फसल लहलहाएगी।पर ऐसा न हुआ।इन दलों ने लोकतंत्र मज़बूत करने के बजाए उसमें घुन लगा दिया।वे भूल गए कि जातियों की महामारी के कारण यह देश पहले ही बहुत भुगत चुका है।भारतीय संविधान की भावना तो ऐसी नहीं है।तो अब क्या माना जाए।इस मुल्क़ की मिटटी या मिजाज़ सिर्फ़ राजतन्त्र के लिए बचा है? एक अखिल भारतीय रियासत राष्ट्र की छोटी छोटी आधुनिक रियासतों का सहारा लेकर हुक़ूमत करे।जब कोई महीन सा राजपरिवार बड़ा हो जाए तो वह सल्तनत संभाल रहे राजघराने को हटा दे।अवाम धीरे धीरे लोकतंत्र को बौना होते तब तक देखती रहे,जब तक कि वह दम न तोड़ दे।यदि ऐसा हुआ तो निश्चित ही वह बेहद दुखद होगा।इस आलेख का मक़सद केवल प्रादेशिक पार्टियों की शैली पर ध्यान केंद्रित करना था।दोनों बड़ी पार्टियों पर आईन्दा विश्लेषण करेंगे।