अच्छे मियां की दीवाली दीवाली आ रई है ख़ां…बोले तो लड्डू, गुझिया, मठरी, चूड़ा, चकली, शकरपारे उड़ाने का मौसम…रंग बिरंगी रंगोली, खूब सारी रोशनी और झमाझम आतिशबाजी…अच्छे मियां का फेवरेट त्योहार है दीवाली। मने उनका बस चले तो वो इसे भी नेशनल फेस्टिवल ही डिक्लेअर करा के मानें…
यूँ तो सारे ही त्योहार मज़े देते हैं मियां को, लेकिन दीवाली की तो बात ही निराली है। अच्छे मियां के लिये दीवाली सिर्फ एक त्योहार नहीं, यादों की भरी पूरी पोटली है। इस पोटली में एक मोहल्ला है बचपन वाला..उस मोहल्ले में बहुत सारे घर हैं अलग-अलग रंग के। इन घरों में कुछ पेड़ हैं जो साझा हैं..जिनपर किसी एक का मालिकाना हक़ नहीं। कटहल कटा तो हर घर में बंटा..जामुन टूटे तो सबने लूटे, लौकी की बेल लगी भले चौहान साब के यहां हो लेकिन फैली डिसूज़ा मैडम की छत पर है। अरहर पर जब फलियां लगती तो सारे बच्चे दिन में उसी की दावत उड़ाते, शिल्पा दीदी के घर लगने वाले अनार दूर-दूर तक मशहूर थे और अमरूद तो सबसे डेमोक्रेटिक पेड़ था। जैसे ये पेड़ साझा थे..वैसे ही सबका हंसना-रोना, सुख-दुख, वार-त्योहार भी एक ही थे…
तो ऐसे मोहल्ले में आंखें खोली थी अच्छे मियां ने..यहीं मूंछें निकलनी शुरू हुई फिर यहीं पर जवानी के कई खूबसूरत साल भी गुज़रे। इसी मोहल्ले में दीवाली की रौनक से रूबरू हुए अपने अच्छे ख़ां। क्या दिन थे वो भी..पुताई वाला आता तो सारे लोग एक साथ ही हिसाब किताब कर लेते। एक लाइन से शुरू होता पुताई का सिलसिला और सबकी सहूलियत के मुताबिक लगभग सारे ही घर पुत जाते महीने भर में। अच्छे मियां के मकान की सालान पुताई भी दीवाली पर होती, ईद पर नहीं। इस दौरान साफ-सफाई, छोटा-मोटा सामान लाना, मजदूरों को पानी पिलाना और उनका थोड़ा हाथ भी बंटा देना..अच्छे मियां की छुटकू पलटन का यही काम था। यूँ कभी वो थक भी जाते लेकिन एक तो त्योहार का जोश..उसपर कुछ दिनों बाद मिलने वाले पकवानों के तसव्वुर में बच्चे सारी थकान भूल जाते…
पुताई के बाद तो तैयारियों का सिलसिला ही चल निकलता। किराने की दुकान से झोले भर-भर सामान आते घरों में। बच्चों के लिए तो जैसे सबसे खुशी भरे दिन थे ये..उस वक्त दीवाली पे लंबी छुट्टियां लगती थी, और यही मौक़ा था जब साल के सबसे अच्छे कपड़े भी सिलवाए जाते। अच्छे मियां के अब्बा हुज़ूर भी दीवाली पर उन्हें नए कपड़े दिलवाते, उनकी अम्मी को भी नया जोड़ा मिलता इस मौक़े पर। फिर धीरे-धीरे घरों से पकवानों की खुशबुएं उठने लगती। और यही सबसे बेचैन और बेसब्र दिन होते बच्चो के लिये। उस वक़्त सख्त ताक़ीद होती कि पूजा होने से पहले कोई इन पकवानों को हाथ तक न लगाएगा, लेकिन भला बच्चे मानने वाले थे ये बात।
अच्छे मियां, शब्बीर, अमर, टिंकू, मोहन, राजकुमारी, गुड़िया, तारा समेत सारे बच्चे बस एक मौके की फिराक़ में होते। लेकिन मजाल है जो कहीं भी उनकी सेंधमारी कामयाब हो जाए। बच्चों की इन खुराफात पर मोहल्ले की सारी दादी, चाची, बुआ, दीदी का ऐसी कड़ी नज़र होती मानो उनके अंदर जेम्स बॉन्ड की रूह घुस गई हो। ज्यों किसी बच्चे ने कारस्तानी की, मौक़े पर ही कान उमेठ दिये जाते। ये पूरी कार्रवाई बच्चे की उम्र और शरारत का वज़न देखकर होती, कई बार तो एक-दो चपत भी लग जाया करती। उस समय पड़ोसियों के बच्चों पर भी इतना हक़ था कि प्यार हो या मार…कोई किसी बात का बुरा नहीं मानता। दीवाली वाले दिन दोपहर से ही आंगन में रंगोली बननी शुरू हो जाती, अच्छे मियां के पड़ोस में रहने वाली कुसुम दीदी अपने घर की रंगोली बनाने के बाद उनके आंगन में भी एक सुंदर सी रंगोली बना जाती। रात में पूजा के बाद इस वाली रंगोली पर भी एक दीया रख देती सावित्री चाची…
पूजा खत्म और धमाल शुरू..इसी पल के इंतज़ार में तो पुताई से लेकर अब तक का वक्त कटा था अच्छे मियां का। अब शुरू होता थाल भर-भर पकवानों के आने का सिलसिला। मोहल्ले के जितने घरों में कड़ाही चढ़ी थी..हर जगह से अलग अलग चीज़ें आनी शुरू हो जाती। यूं पहले से ही तय रहता कि दीवाली की रात घर पर खाना नहीं बनेगा। पहले तो इन पकवानों को ही ठूंस-ठूंसकर खाया जाता, फिर रात का खाना पड़ोस की सावित्री चाची के घर होता। ये एक रवायत हो गई थी जो मोहल्ला छोड़ने तक बरक़रार रही…
मोहल्ला भला कभी छूटता है…? भीतर ही रह जाता है कहीं। आज जब मोहल्लों की जगह मल्टीस्टोरिज़ तनने लगी हैं, ईद और दीवाली को किसी खास मज़हब तक महदूद कर दिया है, यहां तक कि रंगों का भी बंटवारा हो गया है..अच्छे मियां को अपना पुराना मोहल्ला बेतरह याद आता है। याद आता है कि जिस माहौल में उनकी ज़िंदगी की बुनियाद रखी गई, वो माहौल अब धुंआ-धुंआ हो रहा है। अब त्योहारों से पहले प्रशासन को सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम करने पड़ते हैं, फलां त्योहार शांति से मनाया गया..ये खबरों की हैडलाइन होती है…
“किस सोच में पड़ गए तुम, ये हर बार का है तुम्हारा…” बेगम की हांक से अच्छे मियां ख़यालों की दुनिया से वापस लौटे। “जल्दी चलो, रश्मि भाभी ने कहा था कि वक्त पर आ जाना, खरीदारी के बाद गुझिया बनाने में भी मदद करनी है उनकी, और ज़्यादा सोचा न करो, हम तो कोशिश कर ही रहे हैं न कि दीवाली भी उतनी ही हमारी रहे, जितनी ईद है रश्मि भाभी की”…कहते हुए मीठी झिड़की दी बेगम ने मियांजी को… मुस्कुराते हुए कुर्ता बदलने चल दिए हैं अच्छे मियां…