संस्मरण- फरफन्दो

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डॉ कीर्ति काले

लड़की के बारह तेरह वर्ष की आयु सीमा में प्रवेश करते ही भारतीय संस्कारवान समाज की आँखें गिद्ध हो जाती हैं, उसके नाखून चील की तरह पैने होकर अबोध नव कलिका को नोंचते के लिए आतुर होने लगते हैं। घर और बाहर का कोई भेद नहीं रहता।घर के रिश्तेदारों में से भी कईयों की ऩजरों में चाशनी- सी घुलने लगती है और रिश्ते के पावित्र सागर में से शैतान सिर उठाने लगता है। बचपन की देहरी पर खड़ी होकर किशोरावस्था के खुले आँगन को देखकर अचम्भित होती हुई वह अल्हड़ शीतल, मन्द, सुगन्धित हवा की ताज़गी के स्पर्श से आनन्दित होने को होती है तभी कोई लिजलिजा लार टपकाता हुआ स्पर्श उसे भीतर तक सिहरा देता है। दुनिया का बिल्कुल नया और भयानक चेहरा धीरे-धीरे बेनकाब होने लगता है। वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी सब कुछ देखती रहती है। महसूस करती रहती है। लेकिन किसी से कुछ भी नहीं कह पाती।

कक्षा आठ में थी तब मामा की गली में रहने वाला एक लड़का किसी न किसी बहाने घर आने लगा।उसका आना पता नहीं क्यों मुझे कुछ अच्छा नहीं लगता था। लेकिन आई बाबा को उसने अपनी बातों से सम्मोहित सा कर लिया था। मैं स्कूल जाती थी तो वो मेरे पीछे- पीछे आता था।इधर- उधर की बातें करता रहता था।उसका रोज़- रोज़ पीछे- पीछे आना और बेमतलब बातें करना कुछ अजीब सा लगने लगा था।आई बाबा के सामने तो संस्कारितों की तरह रहता था लेकिन मेरे पीछे- पीछे आते हुए उसकी हरकतें कुछ अजीब सी होने लगती थीं। मैं मन ही मन स्कूल जाने से घबराने लगी।पर स्कूल तो जाना ही होता था।छत्री मैदान आते ही मेरे पैरों की गति बढ़ जाती थी।ऐसा लगता था कि जल्दी से स्कूल के गेट के अन्दर चली जाऊं और आज उसकी घिनौनी शकल देखने से बच जाऊँ। लेकिन अचानक पता नहीं कहाँ से वो राक्षस की तरह आ ही जाता था और मैं धस्स सी रह जाती थी। फिर वही लिजलिजाहट भरी बातें।शी…….
एक दिन मैंने हिम्मत करके पूछ ही लिया क्यों आते हो रोज़ मेरे पीछे पीछे? मैं आई को बता दूंगी।वो बहुत रुँआसा होकर बोला क्या बताओगी।मेरी कोई बहन नहीं है। मैं तुम्हें अपनी बहन मानता हूँ।बहन के साथ- साथ चलना क्या बुरा है?
रक्षाबन्धन आने वाला है।तुम मुझे राखी बांधना। फिर हम पक्के बहन- भाई बन जाएँगे।
मैं भाई- बहन के इस अजीब रिश्ते को समझ नहीं पाई मैं। उसने घर आकर आई बाबा के सामने ऐसा इमोशनल ड्रामा किया कि रक्षाबन्धन वाले दिन आई मुझे उसके घर उसे राखी बांधने के लिए ले गई।दर असल उसके पूरे परिवार से हम सभी लोग परिचित थे।उसकी आई ने भी मेरी आई से राखी बांधने के बारे में कहा था।हो सकता है उसने उसके घर भी इमोशनल ड्रामा किया हो।मेरा तो दिमाग सुन्न हो गया था। वैसे भी दिमाग था ही कितना। जितना भी था वो अभी बच्चा ही तो था आखिर। खैर राखी बाँध दी।अब तो वो मेरा पक्का भाई बन चुका था।अब तो अधिकार पूर्वक मेरे पीछे पीछे नहीं मेरे साथ साथ चलने और मेरे कन्धे पर हाथ रखने का उसे लाईसेंस मिल गया था जैसे।उसका हाथ कन्धे पर आते ही ऐसा लगता था जैसे किसी ने जिन्दा छिपकली रख दी हो कन्धे पर। मेरे चचेरे भाई भी तो थे जिनके साथ मैं खूब खेलती थी। उन भाईयों के स्पर्श और इस नए बने भाई के स्पर्श में कोई साम्य नहीं था।इस जबरन बने भाई का छूना तो सौ बिच्छुओं के डंक मारने जैसा विषैला लगता था। लेकिन कहती तो किससे कहती।बाबा तो मुझे वैसे भी फरफन्दो कहते थे। कुछ न कुछ फसाद ज़ो करती रहती थी। और आई तो स्वयं राखी बांधवाने के लिए लेकर गई थी। उसके आई बाबा और भाई सब अच्छे थे लेकिन ये? मुझे स्कूल जाने के नाम पर बुखार आने लगा।कभी पेट दर्द होने लगा कभी सिर दर्द। लेकिन ये बहाने कब तक चलते।
एक बार शाम को मैं सहेलियों के साथ लेडिज पार्क के पास बनी व्यायाम शाला में खेलने जा रही थी तभी रास्ते में वो राक्षस आ गया।आज तो हद हो गई।उसने मेरा हाथ ज़ोर से पकड़ा और बाकी लड़कियों को कड़ककर कहा तुम लोग जाओ।ये आज मेरे साथ जाएगी।न जाने क्यों मेरी सारी सहेलियाँ एक दम उस पर टूट पड़ीं।किसी ने उसके बाल पकड़ कर खींचे किसी ने हाथ पकड़कर मरोड़ा,किसी ने शर्ट फाड़ दी। अचानक हुए इस आक्रमण से वह घबरा गया। किसी तरह पिटपिटाकर भाग गया। मेरी सहेलियों ने बताया कि वो उन्हें भी बहुत परेशान करता था।मामा के घर जाकर ये पूरी घटना मैंने मामा को बताई।मामा ने उसके आई बाबा को कड़ाईपूर्वक यह किस्सा सुनाया और उसे मुझसे दूर रहने की हिदायत दी। मुहल्ले भर के लोग इकट्ठे हो गए। खूब हंगामा हुआ।ये सब काण्ड चल ही रहा था तभी घर से बाबा भी आ गए। आते ही मुझे देखकर बोले फरफन्दो…….।

नोट – आपका भी यदि इससे मिलता-जुलता अनुभव हो तो बेहिचक लिखिए।समाज में जागरूकता लाना आवश्यक है।