नई दिल्ली। इसी सप्ताह आधार और अयोध्या पर दो बड़े फैसले आए हैं। गौर करने वाली बात यह है कि दोनों ही जजमेंट बहुमत से दिए गए लेकिन एकमत से नहीं। हर केस में एक जज ने कोर्ट के फैसले से बिल्कुल अलग असहमति व्यक्त करते हुए अपना फैसला लिखा। ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि जज ऐसा क्यों करते हैं? क्या यह मायने रखता है?
First Aadhaar now Ayodhya, understand why it is important for justice to disagree with the judges
आगे की संभावनाएं
इमर्जेंसी पर जस्टिस एचआर खन्ना ने असहमति वाला फैसला देते हुए अमेरिकी जज चार्ल्स इवांस ह्यूज के शब्दों को दोहराते हुए कहा था कि इससे भविष्य में फैसले पर विचार करने की राह खुल जाती है। उनके शब्दों में, ‘किसी भी कोर्ट में असहमति एक आखिरी सहारा है, जो एक तरह से कानून की भावना पर विचार करने की अपील है। यह भविष्य के दिनों के लिए और बुद्धिमत्ता पर छोड़ दिया जाता है जब फैसला लिया जाएगा और वह गलती सुधारी जा सकती है, जिसको लेकर असहमति जताने वाले जज का मानना है कि कोर्ट को धोखा दिया गया है।’
क्या यह मायने रखता है?
भारत के लीगल सिस्टम के इतिहास में तीन सबसे बड़े असहमति वाले फैसले आए हैं। जस्टिस सईद फजल अली- जिन्होंने कहा कि मौलिक अधिकार अलग नियम के तौर पर काम नहीं करते हैं लेकिन इसे साथ पढ़ा जाना चाहिए क्योंकि ये ओवरलैप करते हैं। जस्टिस सुब्बाराव- जिन्होंने निजता के मौलिक अधिकार को संविधान की गारंटी दी थी। तीसरा फैसला जस्टिस एचआर खन्ना का था- उन्होंने कहा कि आपातकाल के दौरान जीवन के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता है। बाद में सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में इसका समर्थन किया गया।
इससे संबंधित एक रिपोर्ट के मुताबिक असहमति होने की संख्या में कमी आने से ऐसे संकेत मिलते हैं कि न्यायपालिका को बाहरी ताकतों (सरकार) या आंतरिक ताकतों (चीफ जस्टिस का प्रभाव) से प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है।
अयोध्या से जुड़े केस में असहमति
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने 2-1 के बहुमत वाले फैसले से अयोध्या भूमि विवाद की सुनवाई के दौरान 1994 के शीर्ष अदालत के फैसले में की गई टिप्पणियों पर फिर से विचार करने के मुद्दे को बड़ी बेंच के पास भेजने से इनकार कर दिया। यह फैसला चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण ने दिया जबकि तीसरे जज अब्दुल नजीर की राय अलग थी। उन्होंने अपने अलग फैसले में कहा कि 1994 के इस्माइल फारुकी मामले में यह टिप्पणी विस्तृत जांच किए बिना की गई है कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है और मुस्लिमों द्वारा नमाज खुले में सहित किसी भी स्थान पर पढ़ी जा सकती है। बहुमत के फैसले से अलग जस्टिस नजीर ने कहा कि संवैधानिक महत्व पर विचार करते हुए इस मामले को बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए।
आधार पर अलग राय
देश की सर्वोच्च अदालत ने बुधवार को आधार पर फैसला सुनाते हुए इसे संवैधानिक रूप से वैध करार दिया था। हालांकि आधार पर पांच सदस्यीय संविधान पीठ में शामिल न्यायमूर्ति डीवाई चन्द्रचूड़ ने बहुमत से इतर अपने फैसले में कहा कि आधार योजना संवैधानिक खामियों से ग्रस्त है क्योंकि यह निजता के अधिकार सहित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है।
उन्होंने कहा कि निजी कंपनियों द्वारा बिना सहमति के व्यक्तिगत सूचनाओं के इस्तेमाल से इसका कारोबारी मकसद से इस्तेमाल हो सकता है। उन्होंने आदेश दिया कि दूरसंचार सेवा प्रदाताओं द्वारा ली गई बायॉमीट्रिक सूचना और आधार विवरण को तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए।