अच्छे दिन आए, मगर कार्यकर्ता क्यों जिताए?, सियासत में फिसलती जुबान, छूटती नब्ज

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राघवेंद्र सिंह

कार्यकर्ताओं खुश हो जाओ। आपके अच्छे दिन आने वाले हैैं क्योंकि चुनाव आने वाले हैैं। इसीलिए सभी पार्टियां अपने मैदानी रणबांकुरों को इकट्ठा कर रही हैैं। आलाह-ऊदल की वीरगाथाओं की तरह कार्यकतार्ओं की विरुदावलियां गाई जा रही हैैं। सत्ता में आने के बाद लगातार रसमलाई खाने वाले, पांचों उंगलियां घी और सिर कढ़ाही डाल माल सूटने वालों को खांटी कार्यकर्ता फिर याद आने लगे हैैं। वजह है उसकी ख्वाहिशें और ख्वाब दोनों बहुत छोटे होते हैैं।
Good days have come, but why do workers live ?, Politics slip out, Discontinuous Sages
पांच साल की सरकार में साढ़े चार साल उसकी उपेक्षा और अनादर कीजिए, चुनाव के छह महीने पहले उसकी वीरगाथा गाईये, थोड़ी मीठी-मीठी बातें करिए, उसके छोटे-मोटे काम तत्काल करने के आदेश दीजिए (भले ही न हों), इसके बाद कहिए, पहले गलतियां हो गई थीं, चुनाव जीत जाएं फिर सब ठीक कर देंगे। देव दुर्लभ कार्यकर्ता है, थोड़ी राजी नाराजगी के बाद पिघल ही जाएगा। अब ऐसा ही होता आया है। सभी पार्टियां अपने कार्यकतार्ओं को इसी तरह मनाती और भरमाती रहती हैैं। भोला कार्यकर्ता फिर खुद को ठगाने के लिए तैयार हो जाता है क्योंकि पार्टियों को कोई और नहीं हैं, कार्यकर्ताओं को कोई ठौर नहीं है। मगर इस बार ऐसा अनुमान पार्टी हाईकमानों के लिये गलत भी साबित हो सकता है। अभी तो भाजपा सक्रिय हुई है। कांग्रेस का मैदान में मोर्चा संभालना बाकी है।

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपनी टीम के साथ मध्यप्रदेश समेत जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैैं वहां खम्ब ठोंक कर जीतने की योजना पर काम कर रहे हैैं। इसलिए उन्होंने सीधे-सादे कार्यकर्ताओं से जो कहा उसका लब्बोलुआब यह है कि आपके एक-एक पल पर हमारा अधिकार है। लेकिन चुनाव साल में याद आ रहे जिताने वाले कार्यकर्ता सोच रहे हैैं कि हम मलाई में सपरिवार डुबकी लगाने वाले नेताओं को क्यों जिताएं? इसके संकेत उसने चार विधानसभा उप चुनाव अटेर, चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस में भाजपा की हार के साथ दे दिए हैैं। इसके बाद भी कोई न समझे तो उन्हें क्या कहेंगे?

कांग्रेस नए प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ भी कार्यकतार्ओं को सक्रिय करने के लिए ऐसे ही भाषा, शब्दावली या नारों, जुमलों को इस्तेमाल करेंगे। जहां भी चुनाव वहां ऐसा ही तो होता है। कार्यकर्ता भगवान हो जाते हैैं। चुनाव हुए, सरकारें बनी थोड़े दिन की शर्माशर्मी के बाद कार्यकर्ताओं की जगह अफसरों की चलती है। नेता जी अधिकारियों की आंखों से देखने और सुनने लगते हैैं। कुल मिलाकर जिताता कार्यकर्ता है और बाद में सरकार नौकरशाही की हो जाती है।

सियासत में पिछले कुछ सालों से नारों की जगह जुमलेबाजी ने ले ली है। पहले नारे थे- न जात पर न पात, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर। ऐसे ही प्रतिपक्ष की राजनीति में चमकते सूरज की तरह अटलबिहारी वाजपेयी का नाम था। जनसंघ से लेकर भाजपा तक नारे लगते थे- अटलबिहारी बोल रहा, इंदिरा शासन डोल रहा।

ये एक-दो उदाहरण से समझा जा सकता है नारे भले ही दिमाग से निकलते थे मगर वे दिल पर असर करते थे। असर अब भी है मसलन -अच्छे दिन आने वाले हैैं…तब सियासत में नैतिकता भी थी, भावना भी थी और भरोसा भी था। अब जो कुछ है लोग उसे जुमलेबाजी कहते हैैं। राजनीति में जो माहौल है वह मध्यप्रदेश से लेकर पूरे देश में लगभग एक जैसा ही है। आप केवल शहर और राज्य बदल दीजिए, जो बात कहेंगे संदर्भ कोई भी एकदम फिट बैठेगी। यह है राजनीतिक दलों और नेताओं की सोच और उनके तालमेल पर असर।

भोपाल का ही जिक्र करें तो जुमलों और नारों को लेकर सूबे की सियासत गमार्यी हुई है। 4 मई आसमान से सूरज आग बरसा रहा था और भोपाल भेल के दशहरा मैदान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की शान में हो रहा कार्यक्रम राजनैतिक उबाल ला रहा था। हालांकि कार्यक्रम पार्टी अंदरूनी था क्योंकि ये आमसभा नहीं बल्कि चुनाव जिताने वाले करीब छह हजार कार्यकतार्ओं का सम्मेलन था।

कार्यकर्ताओं को माईबाप मानते हुए कहा गया कि चुनाव आप ही जिताते हैैं और इस साल नवम्बर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पहले से ज्यादा बहुमत से जिताएं और 2019 के लोकसभा चुनाव में सभी 29 सीटें भाजपा की झोली में डालें। ये वो योद्धा हैैं जो जनसंघ, जनता पार्टी और भाजपा के बनने से अब तक पार्टी के लिए दिनरात एक करते हैैं। हमारा विश्लेषण यहीं से शुरू होता है।

मांगने वाले का हाथ नीचे और दाता का हाथ ऊपर होता है। मगर यहां स्वाभिमान अभिमान या अहंकार इन सबका मिलाजुला संगम था। मंच से भाषण दे रहे नेताओं की भाषा तपती दुपहरी में नीचे बैठा चुनाव जिताऊ कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहा था कि नेता लोग उनसे चुनाव में जीत मांग रहे हैैं या मालिक के अंदाज में आदेश दे रहे हैैं। खैर, यह भी भाजपा के कार्यकर्ता स्वीकार कर सकता है। मगर ऐसे हजारों कार्यकर्ता हैैं जो खुद की दशा को देखते हुए ये सोच रहे थे कि आखिर हम इस बार भी भाजपा को जिताकर आप लोगों को मलाईखाने के लिए क्यों सत्ता में भेजें?

असल में भाजपा के देवदुर्लभ कार्यकर्ताओं में मध्यप्रदेश ही ऐसा राज्य है जिसे यह तमगा हासिल है लेकिन यह बदहाल देवदुर्लभ कार्यकर्ता देख रहे हैैं कि जिनको उन्होंने जिताया खासतौर से 2003 से अब तक वे और उनके परिजन मालामाल हो गए हैैं। इसमें सबसे खास बात यह है कि कोई भी सत्तारूढ़ नेता और संगठन के पदाधिकारी इन चुनाव जिताऊ कार्यकर्ताओं से यह नहीं पूछ रहे हैैं कि आखिर उनकी क्या दिक्कतें हैैं। कोई निजी या पारिवारिक परेशानी हो तो बताएं, पहले उनका निदान किया जाएगा उसके बाद यह चुनावी सेना पार्टी को विधानसभा चुनाव और लोकसभा में बहुमत दिलाए।

यह बड़े नेताओं की खुदगर्जी का ऐसा मामला है जो लाइलाज होता जा रहा है। अब यहां नेताओं को डाक्टर मान लिया जाए और कार्यकर्ता व जनता को मरीज तो यह जानकार उनकी नब्ज ही नहीं पकड़ पा रहे हैैं। मसलन कोई यह नहीं कह रहा है कि पहले कार्यकतार्ओं की समस्याओं के समाधान शिविर लगाए जाएं। कार्यकतार्ओं के यहां जितने लोग बेरोजगार हैैं, किस-किस के तबादले होना हैैं और कौन से कार्यकतार्ओं के पुत्र या परिजन उद्योग धंधों के लिये बैैंक से कर्जा चाहते हैैं। कितने कार्यकर्ता ऐसे हैैं जो अपने गांव, मोहल्ले और शहरों में दूसरी पार्टी से लाए गए नेताओं के कारण राजनैतिक मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैैं।

चार मई को जब अमित शाह कह रहे थे कि मेरे राज्य में याने गुजरात में हमारी सरकार बनी, हालांकि इससे ऐसा संदेश चला गया कि भाजपा या गुजरात संगठन का होकर व्यक्ति और किसी प्रायवेट लिमिटेड कंपनी का हो गया है। मगर दूसरे ही वाक्य में अमित शाह अपनी फिसलती जुबान को रपटे से हटाकर फिर सुधार लेते हैैं। इसके बाद उनकी जुबान आगे भी फिसली। ऐसा लगा जैसे किसी का लिखा हुआ वाक्य उन्होंने पढ़ दिया। मध्यप्रदेश के संदर्भ में उन्होंने कहा हम यहां लगातार चुनाव जीत रहे हैैं, जबकि हकीकत यह है कि विधानसभा के चार उप चुनाव लगातार भाजपा हार गई क्योंकि ऐसा संभव नहीं है कि प्रदेश में भाजपा के चार उपचुनाव और एक लोकसभा झाबुआ में हारने की जानकारी अमित शाह को न हो।

हम विस्तार में नहीं जा रहे हैैं लेकिन नगरीय चुनाव में भी भाजपा ने बिखरी कांग्रेस के खिलाफ पूरी ताकत लगाई तो मतदान का प्रतिशत दोनों को बराबर याने 45-45 फीसद मिला था। यह सब देवदुर्लभ कार्यकर्ता से चुनाव जिताने की याचना आदेश के रूप में की जा रही थी। एक और बात जोड?ा चाहते हैैं। शाह के भोपाल प्रवास के ठीक पहले बतौर तोहफा सिवनी विधानसभा क्षेत्र के निर्दलीय विधायक दिलीप मुनमुन राय को भाजपा में शामिल किया गया।

यहां जोड़तोड़ करने वाले को शाबासी भले ही मिल जाए लेकिन सिवनी का वो कार्यकर्ता जिसने 2013 में मुनमुन राय के खिलाफ चुनाव लड़ा हो वह पार्टी और नेताओं को दुआएं तो नहीं दे रहा होगा क्योंकि मुनमुन राय की आमद के साथ सिवनी में उसका और उसके पीछे विधानसभा चुनाव का टिकट लेने की कतार में खड़े कार्यकतार्ओं का भविष्य चौपट हो गया। इस तरह के कई किस्से हैैं जिन्होंने देवदुर्लभ कार्यकताओं को भीतर तक तोड़ा है। उदाहरण के लिए मैहर में कांग्रेस से आए नारायण त्रिपाठी भाजपा ने टिकिट दिया और फिर विधायक बना दिया। ऐसे ही कांग्रेस से आए संजय पाठक मंत्री बने हुए हैैं।

भाजपा कार्यकर्ता चुनाव भी जिता रहा है। पार्टी को सत्ता ला रहा है और इसके बाद भी बाहर से आए नेताओं को उसके ऊपर बिठाया जा रहा है। हालांकि पहले ऐसा कभी कभी होता था। अब तो अमित शाह की भी यही लाइन है कि कैसे भी हो कुछ भी करो भाजपा को जिताओ। चाहे विरोधी दल के लोगों को तोड़कर पार्टी में लाना पड़े। ऐसे माहौल में भाजपा का कैडर कमजोर पड़ रहा है। संगठन में कार्यकतार्ओं की चिंता की बजाए इवेंट वालों की चिंता हो रही है। अध्यक्ष, मंत्री और पदाधिकारियों को अपने क्षेत्र के साथ प्रदेशभर के कार्यकतार्ओं के काम सुनने और करने पड़ेंगे।

जो पार्टी कार्यालय कार्यकर्ताओं जमा पूंजी से बना था अब वहां न ता उनकी पूछपरख है और न ही वे आकर समस्या का समाधान करा पाते हैैं। यही वजह है कि सत्ता के 15 सालों में कार्यालय में कार्यकतार्ओं की आमद धीरे-धीरे कम होती चली गई। कुल मिलाकर अमित शाह के मेगा शो में यह कहा गया कि कांग्रेस और मीडिया आपको भरमाएगा लेकिन आप गफलत में न आएं और चौथी बार फिर भाजपा को सरकार में लाएं। शानदार मंच, जोरदार इंतजाम और चुनाव जिताने वाले योद्धाओं की भीड़ इस पूरे तमाशे में यह सोचती रही कि उनकी चिंता कब की जाएगी जबकि उनके आंसू गालों पर आकर सूख गए हैैं।

अलग बात है कि अब कोई चुनाव जिताने वाले कार्यकर्ता के आंसुओं से अपना कंधा भी गीला नहीं करना चाहता। यही वजह है कि पिछले साल अगस्त में जिन अमित शाह ने 230 सीट वाली राज्य की विधानसभा में अबकी बार 200 पार का नारा दिया था वह उसे दोहराने का साहस नहीं कर पाए। इतना तो उन्हें समझ में आ गया कि हवाई नारों और कार्यकर्ता की उपेक्षा कर लक्ष्य हासिल करना नामुमकिन भले न हो लेकिन मुश्किल जरूर है।

भूले ठाकरे और राजमाता को
पितृ पुरुष कहे जाने वाले कुशाभाऊ ठाकरे की स्मृति में जमीन का आवंटन रद्द हो गया है और सरकार ने उसका पुन:आवंटन नहीं कराया है। इसी तरह प्रदेश कार्यसमिति की एक बैठक में राजमाता विजयाराजे सिंधिया की फोटो नहीं होने पर लोगों ने आश्चर्य जताया था और इसके विरोध स्वरूप उनकी पुत्री जो शिवराज सरकार में मंत्री हैैं यशोधरा राजे ने बैठक में जाने से मना कर दिया था। इन बातों का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि अमित शाह ने इन दोनों नेताओं का जिक्र करते हुये कार्यकतार्ओं से भाजपा को बहुमत दिलाने की बात की है लेकिन किसी को ध्यान नहीं है कि ठाकरे और राजमाता द्वारा संस्कारित कार्यकर्ता की चिंता हो रही है या नहीं। अभी तो पार्टी भूखे पेट भजन कराने की कोशिश कर रही है जबकि सब जानते हैैं भूखे पेट भजन न होए गोपाला…।

कांग्रेस में एकता के नाथ बन पाएंगे कमलनाथ?
इधर कांग्रेस में भी जो डाक्टर-वैद्य हैैं वे भी जनता और अपने कार्यकर्ताओं की नब्ज नहीं पकड़ पा रहे हैैं। कह सकते हैैं कि सियासत में अब जो डाक्टर हैैं वे या तो काबिल नहीं या मर्ज ज्यादा संगीन हो गया है। पेट्रोल 80 पार मगर कांग्रेस जन आंदोलन नहीं कर पाई। किसानों की आत्महत्या बंद नहीं हो रही है और कांग्रेस उनकी आवाज को बुलंद नहीं कर पा रही है। युवाओं के लिए रोजगार के अवसर दावों के बावजूद घट रहे हैैं। कांग्रेस सरकार को जगाने वाला आंदोलन नहीं कर पाई।

अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैैं और डाक्टर हैैं तो दवाएं नहीं हैैं। ऐसे ही स्कूल में स्कूल चलो अभियान के तहत बच्चे तो पहुंच गए मगर उन्हें पढ़ाने के लिए मास्टर नहीं हैैं। ये मामले जनता से जुड़े हैैं और पसीना बहाने में कंजूस कांग्रेस यह भरोसा नहीं दिला पा रही है कि वह परेशान जनता के साथ है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाद कांग्रेस ने भी महाकौशल से कमलनाथ को कमान सौैंपी है। अब यहां कार्यकतार्ओं का दिल जीतकर जनता के बीच में सक्रिय करना और गुटबाजी में बंटी पार्टी को फिर से एकता के सूत्र में पिरोना कमलनाथ के लिए बड़ी चुनौती होगी। अक्सर कहा जाता है कि पत्रकारों को या बुद्धिजीवियों का एक मंच पर इकट्ठा करना और किसी मुद्दे पर सहमत करना मेंढकों को तौलने जैसा कठिन काम है।

लेकिन कमलनाथ के सामने 15 सालों से सत्ता के बाहर रहने के बाद भी कांग्रेस के नेताओं को एकजुट करना मेंढकों को तौलने से कम नहीं होगा। नर्मदा परिक्रमा से लौटे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अभी सियासी कम आध्यात्मिक भाव में ज्यादा डूबे हुए दिखे। इसलिए अग्रिम पंक्ति के बजाए परमहंसी भाव में कमलनाथ के रोड शो में वाहन में पीछे की पंक्ति में खड़े थे। हो सकता है यह कांग्रेस की रणनीति हो। बाद में दिग्विजय को आगे लाया जाए। ज्योतिरादित्य सिंधिया और सुरेश पचौरी अलबत्ता कमलनाथ के कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़े नजर आ रहे हैैं। भाजपा को कांग्रेसी फूट का अंदाजा है इसलिए एंटीइन्कमबैैंसी होने के बाद भी वह चुनाव जीतने के आत्मविश्वास में डूबी हुई है।

लेखक IND 24 के समूह प्रबंध सम्पादक हैं।