गुरु घण्टाल बनाम गिद्ध

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डॉ . कीर्ति काले

व्यंग्य

 
अन्य मामलों में लड़कियाँ भले ही स्वयं को कोस सकती हैं, सामाजिक भेद भाव का शिकार मान सकती हैं
लेकिन एक मामला ऐसा है जिसमें लड़कियाँ लड़कों से कई किलोमीटर आगे दिखती हैं। धीरज रखो ,बताते हैं ।
लड़कों को ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु खोजने पड़ते हैं जबकि  लड़कियों का उद्धार करने गुरु स्वयं अवतरित हो जाते हैं।
गुलशन में  कोई कली चटकती है तो भंवरे गुंजारने लगते हैं। वैसे ही जब किसी 10,11,12साल की लड़की की प्रतिभा स्फुरित होती है तब किसिम किसिम के घण्टाल आने लगते हैं।
जब कक्षा आठ की छै माही परीक्षा में गणित विषय में हो गई  फेल
तब अचानक शुरू हुआ गुरू प्रगटीकरण का खतरनाक खेल।
पड़ौस के मुहल्ले में रहते थे।स्वयं को उसका भाई कहते थे। इस ताक में ही बैठे थे जैसे कि कब ये लड़की हो फेल
और शुरू करूं मैं अपना खेल ।  घर आने जाने लगे। मुहल्ला धर्म निभाते हुए  बिना फीस पढ़ाने लगे। कुछ दिन बीते शराफत में ।  फिर जान आयी आफ़त में। रफ कॉपी के पिछले पेज पर कलात्मक कलाकृतियाँ बनने लगीं, पढ़ाते-पढ़ाते भूलवश कंधे पर हाथ लगा टिकने।आँखों में घण्टालूपन शनै:शनै: लगा दिखने तो उसका ‌अबोध मस्तिष्क भी विचलायमान हुआ।वन प्लस वन ईक्वल टू टू  के स्थान पर जब वन प्लस वन ईक्वल टू वन लगे पढ़ाने और कॉपी के पिछले पेज पर कलाकृतियों के रंग लगे अधिक गहराने तब बड़ी हिम्मत कर मम्मी को बताया और बमुश्किल इस घण्टाल से पीछा छुड़ाया।
 कक्षा नौ में  किशोर हृदय में  जगा भाव।कविता लिखने पढ़ने का बढ़ने लगा चाव ।चाव लगते ही गुरु अवतरित हो गए। आदिकाल, भक्तिकाल को फर्लांघकर डायरेक्ट रीतिकाल विस्तारपूर्वक समझाने लगे । धीरे धीरे ये भी अपना असली रंग दिखाने लगे। कुछ समय पश्चात अनेक गुरुओं के मध्य उसे महादेवी वर्मा बना डालने की ऐसी लगी होड़ कि परेशान होकर वो  अपना सिर फोड़ती इसके पहले गुरुओं ने ही दिया एक दूसरे का सिर तोड़ ।
भाव था पर शिल्प नहीं था। ऐसे घण्टालों से सीखने का भी विकल्प नहीं था। इसलिए वो किताबों की ओर मुड़ी।
लेकिन वहाँ भी घण्टालों की टोलियाँ आ जुड़ीं।
कौन सी किताब पढ़नी चाहिए कौन सी नहीं किससे लाभ है किससे हानि। लाइब्रेरी में बढ़ने लगी घण्टालों की कहानी।
उसने लाईब्रेरी जाना भी कर दिया बन्द लेकिन फिर भी कम नहीं हुए घण्टालों के  छल छन्द।
प्रतिभा थी ,सीखने की भी प्रबल थी इच्छा
लेकिन सब तरफ गुरुओं की जगह घण्टाल ही आतुर थे  देने को दीक्षा। अनेक महाकवियों की पंक्तियां सुना सुनाकर समझाते रहे कि गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही काव्य रचवाता है। गुरु के स्पर्श मात्र से लोहा सोना बन जाता है।
नगर की काव्य गोष्ठियों में गई।वहाँ की तो फिजा ही थी नई नई। दादा कहलवाने के इच्छुक अनेक महापुरुष सठिया जाते। महिला रचनाकारों के साथ अपने झूठे सच्चे प्रेम प्रसंग चटखारे ले लेकर सुनाते।उसकी ओर कसमसाई दृष्टि से देखते । आँखों आँखों में आँखें सेंकते हुए रेंकते कि काव्य के क्षेत्र में तभी आगे बढ़ोगी जब इस तरह के रसीले  पाठ पढ़ोगी।
उसके संकल्प बहुत कुछ सीखने पर अड़े थे लेकिन कैसे सीखते? चारों ओर तो गिद्ध ही गिद्ध  खड़े थे।उसकी हम उम्र सहेलियों के अनुभव भी नहीं थे अलग। बहुतों ने मान ली थी हार।परेशान होकर किसी ने कॉलेज छोड़ दिया था तो किसी ने ये संसार।
ये उम्र पंख फैलाकर निशंक उड़ने की है,अनेक कलाओं से जुड़ने की है। इसी उम्र में होती है कुछ नया कर गुजरने की ललक,इसी उम्र में दिखती है सुनहरे भविष्य की झलक। इसी उम्र की आँखों में पलते हैं सतरंगी सपने,इसी उम्र में पराए भी लगने लगते हैं अपने। ब्रह्माण्ड के रहस्य खोजने का होता है माद्दा , परिवर्तन करने की होती है जिद्द लेकिन विडम्बना देखिए इसी उम्र के पंख नोंचने को लालायित मण्डराने लगते हैं खतरनाक चील,कौए और गिद्ध।
सरकार कहती है बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ। लेकिन नए ज़माने की बची हुई बेटियों पहले अपने आप को मजबूत बनाओ । गुरु घण्टालों को  सबक सिखाओ ।पलायन की राह नहीं पकड़नी है।ये हमारी लड़ाई है, हमें ही लड़नी है। बिना लड़े हरगिज़ मत हारो।स्वयं के सपनों को नहीं इन गुरु घण्टालों में छिपे गिद्धों को मारो।
जाने मानी लेखिका
नयी दिल्ली