शिमला में भारी जलसंकट, देश के 70 फीसदी हिस्से में भी पानी की किल्लत

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नई दिल्ली। शिमला में फिलहाल पानी का जो संकट देखने को मिल रहा है, वैसी ही परिस्थिति बहुत जल्द देश के दूसरे हिस्सो में भी देखने को मिल सकती है। इसकी वजह यह है कि मौजूदा समय में देश के 60 से 70 फीसदी हिस्से में पानी की भारी कमी देखी जा रही है।1997 के बाद से अब तक देश का 57 प्रतिशत हिस्सा सूखा प्रभावित हो गया है। इतना ही नहीं देशभर में करीब 50 लाख झरने और जल स्त्रोत हैं जिनमें से अकेले 30 लाख हिमालय के क्षेत्र में हैं, बावजूद इसके इनमें से ज्यादातर झरने और जल स्त्रोत पानी की बढ़ती मांग, जमीन का गलत इस्तेमाल और पर्यावरण के गिरते स्तर की वजह से तेजी से सूख रहे हैं।
Heavy drainage in Shimla, 70 percent of the country’s water also lacks water
भूमिगत जल पर फोकस करना जरूरी
एक्सपर्ट्स की मानें तो भूमिगत जल की निरंतरता को बरकरार रखने पर फोकस किया जाना चाहिए। इसके लिए पॉलिसी, प्रोग्राम और प्रॉजेक्ट्स बनाने की जरूरत है क्योंकि भारत, दुनिया में सबसे ज्यादा भूमिगत जल का इस्तेमाल करने वाला देश है। भारत में पीने के पानी की 80 प्रतिशत और दो-तिहाई सिंचाई के पानी की मांग भूमिगत जल से ही पूरी होती है। साउथ एशियन नेटवर्क आॅफ डैम्स, रिवर्स ऐंड पीपल के हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘हमें समझना होगा कि भूमिगत जल कहां से आता है और भूमिगत जल खत्म ना हो इसके लिए भी जरूरी कदम उठाने होंगे फिर चाहे वह नदियां हो, वेटलैंड, जंगल या फिर लोकल वॉटर बॉडी।

ग्राउंड वॉटर को नियंत्रित करने के लिए जरूरी कदम उठाने की जरूरत है और यह केंद्रीय इंस्टिट्यूट्स के जरिए नहीं बल्कि कम्युनिटी के प्रयासों के जरिए संभव हो सकता है।’  वर्षाजल संचयन पर जोर देते हुए ठक्कर ने कहा, बड़े-बड़े बांध बनाकर और नदियों को एक दूसरे से इंटरलिंक करके कोई फायदा नहीं होगा। यूनाइटेड नेशन्स की वर्ल्ड वॉटर रिपोर्ट 2018 के सुझाव के मुताबिक पानी के लिए नेचर बेस्ड सलूशन ठइर यानी प्रकृति आधारित हल निकालने की जरूरत है। इसके तहत पानी की मांग को अवक्षेपण, नमी, रिसाव, प्रसार और जमा करके रखने की प्रक्रिया जरिए पूरा किया जा सकता है ताकि मनुष्य की जरूरत के हिसाब से एक निश्चित लोकेशन पर पानी की क्वॉन्टिटी को बढाया जा सके।

सेंट्रल वॉटर कमीशन और सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड का नवीनीकरण करने वाली कमिटी की रिपोर्ट कहती है कि भारत की कई प्रायद्वीपीय नदियों में मॉनसून में तो पानी होता है लेकिन मॉनसून के बाद इनके सूख जाने का संकट बरकरार रहता है। देश के ज्यादातर हिस्सों में पानी का लेवल बहुत नीचे चला गया है, साथ ही कई जगहों पर भूमिगत जल में फ्लोराइड, आर्सेनिक, मक्यूर्री और यहां तक की यूरेनियम भी पाया जा रहा है। मौसम में बदलाव की वजह से भी सूखा और बाढ़ जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

बढ़ती जनसंख्या का मतलब है कि प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता भी घट रही है। औसत रूप से साल में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता साल 2001 में जहां 1 हजार 820 क्यूबिकमीटर थी वहीं 2011 में यह घटकर 1 हजार 545 क्यूबिकमीटर रह गई। वहीं रिपोर्ट्स की मानें तो 2025 में यह घटकर 1 हजार 341 और 2050 तक महज 1 हजार 140 क्यूबिकमीटर रह जाएगी। प्रति व्यक्ति वार्षिक जल की उपलब्धता अगर 1 हजार 700 मीटर क्यूबिकमीटर से कम हो जाए तो इसे पानी की कमी की स्थिति के रूप में देखा जाता है। देश के कई इलाकों में तो पानी की स्थिति राष्ट्रीय औसत की तुलना में बेहद कम है जिसे पानी की तंगी के रूप में देखा जा रहा है।