आधुनिक माध्यमों से टकराव कितना घातक

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राजेश बादल


केंद्र सरकार और सूचना – सामग्री विस्तार करने वाली परदेसी कंपनियों के बीच तनातनी अब निर्णायक मोड़ पर है। इस चरण में भारतीय बुद्धिजीवी समाज का दख़ल अब ज़रूरी दिखाई देने लगा है। कंपनियों के साथ विवाद का सीधा सीधा समाधान अदालत के ज़रिए नहीं हो तो अच्छा।दोनों पक्षकारों को ही किसी व्यावहारिक निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए।केंद्र सरकार चाहे तो इस पचड़े से बाहर निकलने के लिए किसी तीसरे तटस्थ पक्ष को मध्यस्थ बना सकती है।इसका कारण यह है कि दूरगामी नज़रिए से बीजेपी के लिए इसके सियासी परिणाम मुश्किल भरे हो सकते हैं।

ऊपर से देखा जाए तो इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय की ट्विटर को चेतावनी में कुछ अनुचित नहीं लगता । भारतीय क्षेत्र में सक्रिय सूचना विस्तार करने वाले किसी भी अवतार को भारत के नए आईटी नियमों का पालन करना चाहिए।इससे पहले ट्विटर को तीन महीने की मोहलत दी गई थी कि वह नए नियमों को लागू करे।इनमें एक नोडल संपर्क व्यक्ति की नियुक्ति करना भी शामिल है ,जो उपभोक्ताओं की शिक़ायतों का निराकरण करने में सक्षम हो। यह मामला न्यायालय में लंबित है।मुक़दमों के बोझ तले दबे न्यायालय से निर्णय आने में वक़्त तो लगेगा ही। यक़ीनन केंद्र सरकार चाहती होगी कि फ़ैसले से पहले ही मामले का पटाक्षेप हो जाए तो बेहतर।
दरअसल सरकार की शीघ्रता का एक कारण सियासी भी हो सकता है।इसका एक उदाहरण तो हाल ही में आया,जब भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा और बी एल संतोष ने ट्विटर पर दो दस्तावेज़ परोसे।इन पर कांग्रेस पार्टी ने एतराज़ किया।ट्विटर की अपनी अंदरूनी पड़ताल में पाया गया कि एक दस्तावेज़ में कांग्रेस के लेटरपैड के साथ छेड़छाड़ की गई है।तब उसने मैन्युपुलेटेड की मोहर लगा दी।तथ्यों की पड़ताल करने वाली प्रामाणिक संस्था ऑल्ट न्यूज़ ने भी अपनी जाँच में इस इरादतन शरारत को सच पाया।ज़ाहिर है कि बीजेपी को यह रास नहीं आना था।उसे कैसे मंज़ूर हो सकता था कि सारी दुनिया जाने कि उसके प्रवक्ता ने दस्तावेज़ में शरारत करके ट्विटर के मंच का दुरूपयोग किया है।बता दूँ कि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भले ही मैन्युपुलेटेड सामग्री प्रचलन में हो,भारतीय दंड संहिता में इसे फ़र्ज़ीवाड़ा अथवा जालसाज़ी माना जा सकता है।इसकी वैधानिक व्याख्या का नतीज़ा ग़ैर ज़मानती वारंट या गिरफ़्तारी भी हो सकती है।


अब ट्विटर की स्थिति साँप-छछूँदर जैसी हो गई है।वह मैन्युपुलेटड टैग हटाती है तो इस अपराध की मुज़रिम बनती है कि वह जानबूझकर नक़ली दस्तावेज़ के ज़रिए भारत के करोड़ों उपभोक्ताओं को वैचारिक ठगी का निशाना बना रही है।इसके अलावा संसार में फैले भारतीय मूल के करोड़ों लोग अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनों के तहत ट्विटर के विरुद्ध वैधानिक कार्रवाई कर सकते हैं कि वह नक़ली दस्तावेज़ बिना मैन्युपुलेटेड का टैग लगाए दे रही है।लोग उस पर आँख मूंदकर भरोसा कर सकते हैं।दूसरी ओर ट्विटर यदि टैग नहीं हटाती तो भी भारत में फ़र्ज़ी और भ्रामक प्रचार की मुज़रिम बनती है।कांग्रेस पार्टी या कोई अन्य उसके विरुद्ध आपराधिक मामला दर्ज़ करा सकता है।इसके अलावा भारत सरकार का कोप भाजन भी उसे बनना पड़ेगा।

इस समूचे घटनाक्रम का राजनीतिक पहलू यह है कि आठ विधानसभाओं के चुनाव सर पर हैं।हमने देखा है कि चुनावों के दरम्यान सोशल – डिज़िटल माध्यमों का भरपूर उपयोग – दुरूपयोग होता है।हाल ही के बंगाल विधानसभा चुनाव इसकी उम्दा बानगी हैं।इन मंचों से झूठी सूचनाएँ भी फैलाई जाती हैं।राजनीतिक विरोधियों का चरित्र हनन किया जाता है।सभी दल इसमें शामिल होते हैं।अनुभव कहता है कि इसमें भारतीय जनता पार्टी बाज़ी मार ले जाती है।कांग्रेस ,समाजवादी पार्टी ,बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शिवसेना समेत अनेक दल इसमें पिछड़ जाते हैं।ऐसे में ट्विटर,व्हाट्स अप या अन्य डिज़िटल अवतारों से यदि बीजेपी की जंग जारी रही तो आने वाले चुनाव उसके लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकते हैं।निश्चित रूप से पार्टी यह जोख़िम उठाना पसंद नहीं करेगी ? अतीत में उसने कभी अपने जिस श्रेष्ठतम तीर का इस्तेमाल सियासी विरोधियों को निपटाने में किया था ,वह अब उलट कर आ लगा है और उसके गले की हड्डी बन गया है।शायद इसीलिए आईटी के नए नियमों पर न तो संसद में बहस हुई और न क़ानूनी जामा पहनाया गया। नए नियमों के तहत भारत में एक संपर्क अधिकारी की नियुक्ति से सरकार की उस तक सीधी पहुंच हो जाएगी । वह उस अधिकारी को येन केन प्रकारेण प्रभावित भी कर सकेगी ।


वैसे इक्कीसवीं सदी में आए दिन विकसित हो रहे नए नए डिज़िटल मंचों का सौ फ़ीसदी साक्षरता वाले पश्चिम और यूरोप के कई देश सार्थक , सकारात्मक और रचनात्मक उपयोग कर रहे हैं।भारत ही इतना बड़ा राष्ट्र है ,जहाँ के राजनेता डिज़िटल संप्रेषण और अभिव्यक्ति की पेशेवर संस्कृति नहीं सीख पाए हैं। वे सियासी विरोधियों को पटख़नी देने के लिए किसी भी भाषा में ट्वीट कर सकते हैं।इन नए नए मंचों पर कम शब्दों पर अपने को व्यक्त करना होता है ,जो भारतीय नेताओं को नहीं आता।ज़्यादातर राजनेता पढ़ते लिखते नहीं हैं।वे भाषा के मामले में एक जंगलीपन या गँवारू अभिव्यक्ति करते हैं।आख़िर दुनिया का विराट और प्राचीनतम लोकतंत्र इन असभ्यताओं को क्यों स्वीकार करे ? अपने को एक भद्र और शालीन तरीक़े से अभिव्यक्त करने का ढंग इन राजनेताओं को कब आएगा ?