तालिबान और हिंदुस्तान में अब कैसे निभेगी

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राजेश बादल


एक बार फिर तालिबान उस खूबसूरत पहाड़ी देश में अपने खुरदुरे और बर्बर चेहरे के साथ हुकूमत में लौट आए ।क्या किसी ने सोचा था कि अफ़ग़ान सरकार इतनी आसानी से घुटने टेक देगी।संसार की आधुनिकतम सेना के साए तले बीस बरस तक प्रशिक्षण पाने के बाद भी लड़ाकू पठान क़ौम इतनी दुर्बल और कमज़ोर हो गई कि वह अब अपने देश की हिफाज़त के लायक नहीं रही तो फिर उस मुल्क को कौन बचा सकता है? कोई देश कब तक अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों का मुंह ताकेगा।अमेरिकी या नाटो सेना को अनंत काल तक अफ़गानी लोगों की रक्षा करने की गारंटी क्यों लेनी चाहिए ? इस मायने में जो बाइडेन का कहना उचित है कि जब अफ़ग़ान सेना ख़ुद ही अपने लिए नहीं लड़ना चाहती तो अमेरिका को क्या पड़ी है कि वह अपने को मुसीबत में डाले।


लेकिन परिस्थितिजन्य साक्ष्य एक दूसरा सवाल यह खड़ा करते हैं कि कहीं यह अमेरिका से तालिबान के गोपनीय समझौते की पूर्व लिखित पटकथा का हिस्सा तो नहीं है ? इधर तालिबान घुसे,उधर सरकार ने अपने आप को चुपचाप देश निकाला दे दिया।करीब करीब सारे प्रदेशों में सरकार के गवर्नर सुरक्षित ठिकानों पर चले गए और फ़ौज के साथ तालिबान के घमासान की एक भी खबर नहीं मिली ।तालिबानियों से लड़ते हुए सेना उन्हें धूल चटाती तो शायद मुल्क की तस्वीर कुछ और हो सकती थी।या फिर जंग करते करते हार भी जाती तो अवाम के दिलों में फांस न चुभती ।पर इस प्रकार बिना लड़े ही समर्पण करने का यह ऐसा कलंकित अध्याय है,जिसके लिए पठानों को माफ़ नहीं किया जा सकता।यक़ीनन इससे अफ़ग़निस्तान में लोकतंत्र की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची है।शायद ही कोई देश अपने इतिहास के इस अध्याय को याद रखना चाहेगा।अमेरिका को तो वहाँ से देर सबेर निकलना ही था।लेकिन जिस ढंग से जो बाइडेन ने जल्दबाज़ी की,उससे अमेरिका की नैतिक, कूटनीतिक और रणनीतिक पराजय ही हुई है।अमेरिका की यह भूमिका पूरे उप महाद्वीप को भयभीत करने वाली है।अमेरिकी राष्ट्रपति देखते ही देखते नायक से खलनायक दिखाई देने लगे हैं।


हिन्दुस्तान के लिए भी यह बड़ा झटका दिखाई देता है।जब तालिबानी प्रवक्ता चेतावनी भरा सन्देश देते हैं कि हिंदुस्तान उनके मुल्क़ में फ़ौजी दखल नहीं दे तो उनकी समझ पर भी संदेह होता है।अव्वल तो भारत वहाँ सैनिक हस्तक्षेप करने की स्थिति में कभी भी नहीं था और न ही उसकी विदेश नीति में यह शुमार रहा है।मालदीव में जिस तरीक़े से भारत ने सेना भेजकर तख्तापलट नाकाम किया था,वह अब गुज़रे ज़माने की दास्तान है और मालदीव अफ़ग़ानिस्तान नहीं है।इसके बाद श्रीलंका में सेना भेजने के निर्णय पर आज भी भारत को कोई गर्व का अनुभव नहीं हो रहा है।इसलिए अफ़ग़ानिस्तान की ओखली में बेवजह अपना सिर क्यों देना चाहेगा।पहले सोवियत सेनाओं ने काबुल को बूटों तले रौंदा,फिर अमेरिका और उसके सहयोगियों ने।मगर इतिहासकार उन्हें विजेता का प्रमाणपत्र देने के लिए तैयार नहीं हैं।सेना भेजकर लंबे समय के लिए भारत अपने को वहां उलझाता ही क्यों ? सवाल यह है कि बदले हुए हालात हिंदुस्तान के लिए कौन सा चेतावनी भरा संदेश लेकर आए हैं ?


भारत की भूमिका अफगानिस्तान को मलबे के ढेर से एक मुल्क में बदलने की श्रमसाध्य कहानी है।अफ़सोस कि अफ़गानियों ने हिंदुस्तान की अब तक की सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।अब हिंदुस्तान अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहा है।शांति और सदभाव के प्रतीक बुद्ध को बामियान में विस्फोट से उड़ाए जाने के बावजूद भारत ने वहां पानी पर जो इबारत लिखने का प्रयास किया था ,वह अदृश्य हो चुकी है।हिंदुस्तान अब नए सिरे से अफ़ग़ानिस्तान में खुद को खोजने का प्रयास शुरू करेगा ।अभी वहां परदेसी फ़ौज के रहने से भारत के लिए एक राहत भरी स्थिति थी।वह इस देश के पुनर्निर्माण में सशक्त योगदान से अपने स्थाई सिरदर्द पाकिस्तान को हमेशा परेशान करता रहा है।इसी वजह से अफ़गानिस्तान सरकार भी नाटो सेनाओं और भारतीय सहयोग से पाकिस्तान के खिलाफ़ आक्रामक तेवर अपनाती रही है।बदले हालात में तालिबान पर सबकी नज़र है ।कह सकते हैं कि दो हज़ार इक्कीस का तालिबान बीस बरस पुराना उग्रवादी संगठन नहीं है।लड़ाकू भूमिका के अलावा उसने कुछ वर्षों से अनेक अवसरों पर कूटनीतिक समझदारी भी दिखाई है ।फ़िलवक़्त वह भारत और पाकिस्तान से कुछ दूरी बनाकर चल रहा है ।उसके कुछ उपधड़ों को निश्चित रूप से पाकिस्तान का संरक्षण और मदद मिलती रही है।लेकिन अब उसने भारत की रचनात्मक भूमिका को सराहा है और आने वाले दिनों में भारत ही इकलौता पड़ोसी है जो अगर सहयोग करता है तो उस देश का भला हो सकता है।पाकिस्तान की अंदरूनी खस्ता हालत के मद्देनजर वह ख़ुद को बहुत सुविधाजनक स्थिति में नहीं पा रहा होगा ।


तो भारत के लिए सबसे पहले ज़रूरी क्या है।नहीं भूल सकते कि जब पाकिस्तान में जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ़ की सरकार को हटाकर फ़ौजी तानाशाही शासन स्थापित किया था तो भारत ने संबंध नहीं रखने का ऐलान किया था।बाद में उन्हीं मुशर्रफ़ को अटलबिहारी वाजपेई ने आगरा न्यौता था।म्यांमार में आंग सान सू ची की सरकार बनने से पहले फ़ौजी शासन ही था और हमारे संबंध मधुर थे।भूटान की राजशाही भी हमें पसंद है और बांग्लादेश में शेख़ मुजीब की हत्या के बाद जनरल ज़िया उर्रहमान की सैनिक सरकार से भारत ने संबंध बनाकर रखे ।इराक़ में तानाशाह सद्दाम हुसैन से भी हिंदुस्तान के बेहतर रिश्ते रहे क्योंकि कश्मीर पर सद्दाम हमेशा भारत के साथ रहा।इन प्रसंगों का ज़िक्र इसलिए कि आज के दौर में जो आपके साथ है,आपको उसका साथ निभाना चाहिए।बाक़ी शासन प्रणालियों के आधार पर किसी देश से संबंध तोड़ लेने को समझदारी नहीं कहा जा सकता।अगर तालिबान अपने शासन चिंतन पर पुनर्विचार करते हैं तो नए सिरे से रिश्तों की रचना करने में कोई झिझक नहीं होनी चाहिए। पाकिस्तान -चीन से संबंधों में तनाव को देखते हुए हर हाल में नई हुकूमत पर भारत होना चाहिए। यह बात हमारे हुक्मरानों को ध्यान में रखनी होगी ।