@ राकेश अचल
पूरी उम्र जुड़ी जा रही है लेकिन मै हिंदी का छात्र होने के बावजू अब तक ये नहीं समझ पाया कि आखिर ‘ खेल ‘ है क्या ? खेल कोई संज्ञा है,सर्वनाम है,क्रिया है,क्रिया विशेषण है ,अलंकार है ? फिल्म वाले कहते हैं कि -जिंदगी है खेल,कोई पास,कोई फेल .लगता है कि जिंदगी व्याकरण से ज्यादा इम्तिहान है .खेल प्रतिस्पर्द्धा है,पदक है,प्रतिष्ठा है ,देश का गौरव है,खजाना है .कुल मिलाकर खेल कुछ तो है ,जो भारत को छोड़ दुनिया खेलों की दीवानी है
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खेलों के बारे में बचपन से सुनते आये हैं. बचपन में घर वाले खेलों को लेकर दो दलों में विभक्त नजर आते थे. घर के बढ़े-बूढ़े कहते थे कि -बच्चों को खेलने-कूदने दो ‘लेकिन घर के दुसरे लोग कहते थे-‘ खेलोगे,कूदोगे होंगे खराब,पढोगे,लिखोगे तो बनोगे नबाब ‘.यानि बचपन से ही हमारे सामने विकल्प रख दिया जाता है कि हम खराब बनें या नबाब .अब आप ही बताइये कोई सिरफिरा ही होगा जो नबाब बनने के बजाय खराब बनना चाहता हो !
खेलों को लेकर घर ही नहीं खुद हमारा समाज और सरकारें तक एकराय नहीं हैं. एक तरफ सरकारी स्कूलों में खेल मैदान बनवाती है,खेल शिक्षक नियुक्त करती है,खेल मंत्रालय बनाती है,खेल मंत्री बनाती है और दूसरी तरफ खेल मंत्रालय का बजट चाहे जब क़तर देती है .खेल शिक्षकों के पद खाली रखती है .अलवत्ता सरकार जहाँ चाहे ,वहां खुद खेल कर जाती है .वो भी बड़े-बड़े खेल .ऐसे खेलों को बाद में ‘घोटालों ‘की संज्ञा दी जाती है .
खेलों को लेकर मै बचपन से संजीदा था,लेकिन बदनसीबी से मुझे किसी भी खेल में महारत हासिल नहीं हो पाई क्योंकि मेरे घर में सभी खेलों के दुश्मन थे और मुझे नबाब बनाने पर आमादा थे .मैंने भी खेलों के विरोधिओं से निबटने में अपनी पूरी तात लगा दी.मै खेल नहीं पाया तो क्या मैंने घर वालों का ही खेल बिगाड़ दिया .मै नबाब बनने के बजाय खबरनबीस बन गया .खबरनबीसी भी एक तरह का खेल ही तो है..खबरनबीसी बड़े से बड़े खेल को बना और बिगाड़ सकती है .वैसे अखबार वाले भी होशियार हों तो खुद बड़े-बड़े खेल कर जाते हैं ,उनके ऊपर छापे भी तब पड़ते हैं जब वे खेल-खेल में खेल करने की नाकाम कोशिश करने लगते हैं
अब आप ही सोचिये कि यदि खेल इम्पोर्टेन्ट न होते तो सारी दुनिया में तरह-तरह के खेल क्यों आयोजित किये जाते.?ओलम्पिक से लेकर एशियाई ,अफ़्रीकी,यूरोपीय देश अपने-अपने यहां स्थानीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक की पर्तिस्पर्धाएँ क्यों कराते ?खेल खेलने से कोई खराब होता है ये बात अब खारिज कर दी गयी है. अब आप खेल खेलते हुए किसी देश में ‘सर’ की उपाधि हासिल कर सकते हैं,भारत में हों तो भारत रत्न बन सकते हैं और यदि पाकिस्तान में हों तो प्रधानमंत्री बन सकते हैं .भारत में भी खिलाड़ियों को मंत्री बनाये जाने के उदाहरण हैं .यानि खेल घाटे का सौदा नहीं रहा .
एक ख़ास बात ये है खेलों का आबादी,गरीबी -अमीरी से कोई लेना देना नहीं है .खेल के लिए सबसे जरूरी है भावना ,जिसे खेल भावना कहते हैं .हमारे अब्बा हुजूर कहते थेकि खेल भावना सभी भावनाओं की आपा है,खाला है .इसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता . अब्बा मरहूम फरमाते थे कि जहा खेल भावना नहीं ,वहां समझ लीजिये कि सवा सत्यानाश होगा ही.आप कोई भी खेल खेलिए उसमें खेल भावना तो होना ही चाहिए .
खेलों और सियासत के डीएनए में बड़ा साम्य है. दोनों में बल का इस्तेमाल होता है.मानसिक बल के साथ बाहुबल भी दोनों की जरूरत है .दोनों में केवल एक ही भेद है कि खेल के मैदान का खिलाड़ी तो सियासत के मैदान में खेल सकता है लेकिन सियासत का खिलाड़ी कभी भी खेल के मैदान में कामयाब नहीं होता .सियासत का खिलाड़ी खेल संगठनों पर नाग बनकर बैठ जरूर सकता है.बैठता भी है और यहीं बैठे-बैठे वो खेलों का भत्ता बैठा देता है .
खेलों के सिक्के में एक पहलू हार का और दूसरा जीत का होता है .लेकिन इसके लिए कुछ अहर्ताएं हैं ,सियासत के खेल में ऐसी कोई अहर्ता नहीं है. खेलों में आपको क्रमश :सोना,चांदी और कांसा मिलता है लेकिन सियासत के खेल में केवल सोना ही सोना मिलता है या फिर मिट्टी पलीत हो जाती है खेलना हँसी खेल नहीं है .आपने आमिर खान की दंगल तो देखी ही होगी. दंगल मिस की हो तो चक दे इंडिया देखी होगी,अरे भाग मिल्खा भाग तो देखी ही होगी ये सब ऐसे खेल हैं जो ओलम्पिक में शामिल हैं ,बदनसीबी से जिस खेल का भारत रत्न हमारे यहां है उसका खेल किसी ओलम्पिक में शामिल नहीं है .हमारे यहां भगवान भी ऐसे ही बदनसीब खेल में होते हैं.बाक़ी खेलों में तो बस खिलाड़ी होते हैं .
खेल की दुनिया बहुत व्यापक है ,सियासत की दुनिया से दस गुना बड़ी.इसमें ताश का खेल भी खेल है और घुड़दौड़ का खेल भी खेल है .कुछ लोगों के लिए तस्करी खेल है,तो कुछ के लिए आतंकवाद खेल है. कुछ लोग मोहब्बत को खेल समझते हैं और खेलते हैं तो कुछ के लिए नफरत फैलाना खेल है. किसी के लिए झूठ बोलना कहे है तो कोई सच बोलने को हंसी-खेल समझकर मन बहला लेता है .कुल जमा हर खेल में रियाज,ताकत और नसीब साथ -साथ चलता है .
हम हिन्दुस्तान वाले खेलों के मामले में खुश नसीब हैं. हमारे यहां मैदानी खेलों में भी बड़े-बड़े खिलाड़ी हुए हैं और सियासत के खेल में भी .श्याद ही ऐसा कोई हल्का होगा जिसका खेल हमारे यहां न खेला जाता हो .जैसा मैंने शुरू में ही कहा कि हमारे यहां तो जिंदगी ही सबसे बड़ा खेल है .हर खेल के नियम-कायदे होते हैं,रैफरी होते हैं ,लेकिन जिंदगी के खेल का कोई नियम नहीं,कोई कायदा नहीं,कोई रैफरी नहीं .सब खुद करना होता है और जहां चुके,वहीं समझिये कि खेल खत्म .लेकिन ऊपर वाले का शुक्र है कि धरती पर कोई खेल एक बार शुरू हो जाये तो कभी बंद नहीं होता.अनवरत जारी रहता है..
आप तो जागरूक नागरिक हैं.आपने देखा ही होगा कि हाल ही में हमारे यहां बंगाल में खेल हुआ .एक तरफ ममता जी थीं और दूसरी तरफ मोदी जी. जनता किनारे पर थी.ममता जी कहती रहीं कि-खेला होबे ना ,लेकिन खेल हो गया.मोदी जी खेल नहीं कर पाए तो जनता ने खेल कर दिया .हमारे यहां लोकतंत्र की मजबूती का कारण यही खेल भावना है. हम कहते जरूर हैं कि- ‘खेला होबे ना ?’लेकिन खेल होता है,हो ही जाता है .खेल आज भी जारी है.कभी फ़ोकट के अन्न के झोलों के जरिये जारी है ,कभी तोता-मैना के जरिये जारी है. खेल में केंचुआ भी हिस्सेदारी करता है
बचपन मुझे छुपा -छुपी का खेल सबसे ज्यादा पसंद था,गिल्ली-डंडा,लंगड़ी,कंचे छाई-छिलोर ,कबड्डी ,खो-खो जैसे अनेक खेल प्रिय थे,इनके लिए हमें किसी खेल मैदान की जरूरत नहीं पड़ती थी.हम अक्सर खेल मैदानों कि कमी को अनदेखा कर देते थे,क्योंकि हमें खबर थी कि हमारी सरकार के पास खेल मैदानों के लिए पैसा है नहीं .सारा पैसा तो सियासत के खेल में खर्च हो जाता है .हमरे यहां सियासत के खेल ने दूसरे तमाम खेलों की सूरत बिगाड़कर रख दी है इस मामले में चीन,अमेरिका,जापान और कोरिया मीलों आगे हैं. इन देशों के पास दुनिया की कोई भी खेल स्पर्द्धा हो सोना,चांदी कांसे के पदकों का ढेर लग जाता है और हम हैं कि दशकों तक कांसे और रजत पदक के लिए इन्तजार करते हैं .
बहरहाल ‘टी- टाइम’ हो गया है मेरा खेलने का वक्त भी जाया करा दिया ,इसलिए आप भी चाय पीजिये और मै भी पीता हूँ .