जंग हल नहीं तो संवाद की पहल क्यों नहीं होती

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TIO राजेश बादल


रूस और यूक्रेन के बीच जंग फिलहाल थमने का नाम नहीं ले रही है । लेकिन ताज़ा ख़बरें बताती हैं कि दोनों मुल्क अब समाधान चाहते हैं । वे शांति चाहते हैं , लेकिन इसके लिए उन्हें एक मेज़ पर बिठाने वाली शक्ति कौन सी है ? कमोबेश सारे विश्व को यह सवाल झिंझोड़ रहा है । संसार का स्वयंभु चौधरी अमेरिका आग में घी डालने का काम कर रहा है और चीन रूस का मित्र होते हुए भी इस महाशक्ति को कमज़ोर होते देखना चाहता है क्योंकि तब दुनिया दो ताकतवर ध्रुवों में बंट जाएगी और उसका दबदबा क़ायम हो जाएगा । ऐसे में हिंदुस्तान ही शेष रहता है, जो मध्यस्थ की भूमिका निभा सकता है । अतीत में उसका रिकॉर्ड भी शानदार है । लेकिन वह इसके लिए बहुत उत्सुक नज़र नही आता। उसका यह अनमनापन क्या भारतीय विदेश नीति में अनिश्चितता का संकेत है । यदि ऐसा है तो यकीनन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यश अर्जित करने का वह अवसर खो रहा है । भारत ही एकमात्र देश है, जो अमेरिका , रूस और यूक्रेन को चर्चा के लिए साथ बिठा सकता है ।इसके बाद भी संवाद के प्रयास क्यों नहीं हो रहे हैं ?


भारत ने बीते दिनों इस बात पर ज़ोर दिया था कि मौजूदा दौर जंग का नही है । शांति और संवाद ही एकमात्र उपाय है । इसके बाद भी यूरोपीय देशों और अमेरिका की ओर से युद्ध रोकने के लिए कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं आई ।एक ठंडा सा रवैया था। खीजे हुए रूस ने तब आक्रामक बयान दिया कि वह यूक्रेन के खिलाफ़ सभी विकल्पों का उपयोग करने के लिए आज़ाद है । इसके बाद फिर भारत और चीन ने परमाणु हथियारों के विकल्प को नही इस्तेमाल करने की बात कही । अमेरिका और उसके सहयोगी अभी भी ख़ामोश हैं । अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी आई ए के मुखिया विलियम बर्न्स ने अवश्य इसके बाद भारत और चीन के रवैए पर प्रसन्नता जताई और कहा कि रूस के दो शुभचिंतक देशों के इस कथन से उस पर दबाव पड़ा है ।बर्न्स ने कहा कि चीन के राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री ने परमाणु हथियारों को लेकर जो आशंका जताई गई है ,उसने भी रूस पर काफी असर डाला है। लेकिन दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने फिर एक उत्तेजक बयान दे दिया । उन्होंने कहा कि रूस की तरफ से परमाणु हथियारों के प्रयोग की आशंका प्रबल है ।

उन्होंने यह भी कहा कि जब पुतिन यह कहते हैं कि वे रूस की रक्षा के लिए अपने सभी साधनों का इस्तेमाल करेंगे तो ज़ाहिर है कि वे मजाक नहीं कर रहे हैं। इसके उत्तर में रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने याद दिलाया कि विश्व में जापान पर परमाणु बम तो अमेरिका ने ही गिराया था ।वह किस मुंह से शांति की बात कर सकता है । इस समूची अंताक्षरी का अर्थ निकलता है कि वास्तव में शांति के लिए कोई पक्ष गंभीर नहीं दिखाई देता ।
इन संदर्भों को दोहराने का मक़सद यह है कि शांति के लिए संवाद आवश्यक है और उसके लिए दोनो पक्ष ही सकारात्मक रुख नही दिखा रहे हैं ।जहां तक यूक्रेन का सवाल है तो यह एकदम साफ है कि राष्ट्रपति जेलेंस्की के कंधे का सहारा लेकर यूरोपीय देश और अमेरिका रूस को निशाना बना रहे हैं । नक़ली राष्ट्रवाद के ज़रिए जेलेंस्की अपने मुल्क को विनाश के कगार पर ले जा चुके हैं । वे अभिनय करते हुए सियासत में आए हैं , लेकिन उसका ककहरा नही सीखे । वे कुछ कुछ पाकिस्तान जैसा व्यवहार कर रहे हैं ,जो कश्मीर के लिए दूर बसे देशों की चिरौरी तो करता है मगर जिस कोख से वह निकला है, उससे बात नहीं करना चाहता । आख़िर रूस अपनी सीमा पर नाटो की सेनाओं को क्यों तैनात होने देगा ।यह छोटी सी बात यूक्रेन नही समझ रहा है ।कोई भी राष्ट्र अपनी तमाम महत्वाकांक्षाएं रख सकता है पर अपनी सीमाओं और भौगोलिक स्थितियों का ख्याल तो उसे रखना ही होगा ।आज नेपाल भी हिंदुस्तान या चीन को जीतने के सपने पाल सकता है मगर क्या उसके संसाधन, क्षमता और भौगोलिक स्थिति उसे इतना सक्षम बनाते हैं ? जनाब जेलेंस्की नहीं समझ रहे हैं कि अमेरिका और उसके साथी उसकी बरबादी की क़ीमत पर अपनी आर्थिक हालत सुधार रहे हैं ।वे गोला बारूद मुहैया करा रहे हैं और जब जंग रुक जाएगी तो इसका खर्चा मय ब्याज के वसूलेंगे ।इतना ही नहीं, यूक्रेन के पुनर्निर्माण के नाम पर अपने क़र्ज़ के जाल में उसे फांस लेंगे ।इस क़र्ज़ से मुक्त होने में यूक्रेन को कई दशक लग सकते हैं । यूक्रेन को समझना होगा कि रूस ही उसका स्वाभाविक संरक्षक हो सकता है ।अमेरिका नही। फिर उसकी ओर से संवाद की पहल क्यों नहीं हो रही है ?

तो क्या यूक्रेन इस कड़वे सच को नही जानता ? या फिर वह मुल्क को मलबे का ढेर बन जाने देना चाहता है । यदि वह ऐसा करता है तो उसे इस सदी का सबसे नासमझ राष्ट्र क्यों नहीं समझा जाना चाहिए ? आज नही तो कल उसे और रूस को वार्ता के लिए आमने सामने आना ही होगा । चर्चा के लिए हिंदुस्तान को तनिक और सक्रिय होना होगा । रूस चीन की महत्वाकांक्षा समझता है ।रूस जानता है कि उसके कमज़ोर होने से चीन प्रसन्न ही होगा। इसी कारण हाल ही में जब रूस ने चीन से यूक्रेन के ख़िलाफ़ जैसी सैनिक मदद माँगी थी ,चीन ने उससे इंकार कर दिया था। सिर्फ़ भारत ही ऐसा है ,जिसका कोई निहित या छिपा हुआ हित नही दिखाई देता । इसलिए संवाद की पहल भी भारत की ओर से होनी चाहिए । चाहे उससे अमेरिका कितना ही नाराज़ क्यों न हो जाए ।एक बार चर्चा की मेज़ पर आने के बाद शर्तों और एक दूसरे की चिंताओं तथा सरोकारों पर बातचीत होगी। ज़ाहिर है कि तब दोनों ही पक्ष थोड़ा थोड़ा झुकेंगे। अंततः जंग की समाप्ति में उनकी भलाई है। यह बात अब तक रूस और यूक्रेन को समझ में आ जानी चाहिए। यह भी उन्हें ध्यान देना होगा कि जंग अपने आप में एक समस्या है। वह किसी भी मसले का समाधान नहीं है। समस्या को हल समझने की भूल नहीं की जाए तो बेहतर।