शशी कुमार केसवानी
फिल्मों के कुछ किरदार ऐसे होते हैं जो अविस्मरणीय छाप छोड़ते हैं। जरूरी नहीं कि ये लीड हीरो या हीरोइन ही हों। कभी-कभी सहायक कैरेक्टर्स भी लिजेंड्री बन जाते हैं। इन्हीं में एक थे सबको हंसाने वाले उत्पल दत्त। इनकी तस्वीर को देखकर शायद आज भी आपके चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाए। 70 के दशक में उत्पल मशहूर कॉमेडियन के रूप में जाने जाते थे।
फिल्म ‘गोलमाल’ में अमोल पालेकर के साथ उन्होंने लोगों को खूब हंसाया था। अभिनेता होने के साथ-साथ उत्पल दत्त राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे, जिसकी झलक उनकी फिल्मों में दिखाई देती है। उन्होंने हिंदी और बंगाली सिनेमा में अमिट छाप छोड़ी। उनकी फिल्मों को देखकर दर्शक तो खुश होते थे, लेकिन सरकार नाराज हो जाती थी। अपनी पिक्चर के माध्यम से वो सरकार पर तंज कसते थे। इसी का नतीजा था कि आजाद भारत में उन्हें जेल जाना पड़ा था। उनसे जुड़ी कई खास बातें हैं, जिनके बारे में आज के दौर में शायद लोग कम ही जानते हैं। उत्पल दत्त का जन्म 29 मार्च 1929 को बंग्लादेश के बारीसाल में हुआ था। उनके पिता का नाम गिरिजारंजन दत्त था और मां का शैलाबला दत्त। उन्होंने अपनी शुरूआती पढ़ाई शिलांग से की। यहां से आगे की पढ़ाई के लिए उनके पिता ने उन्हें कोलकाता भेज दिया। उत्पल जी ने 1945 में मेट्रिक की परीक्षा पूरी की और फिर 1949 में सेंट जेवियर कॉलेज, कोलकाता से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
उन्होंने साल 1960 में थिएटर और फिल्म अभिनेत्री शोभा सेन से शादी की। उत्पल दत्त और शोभा सेन की बेटी का नाम विष्णुप्रिया है, जो उनकी इकलौती संतान हैं। फिल्म गोलमाल के लिए उत्पल दत्त को फिल्म फेयर बेस्ट कॉमेडियन अवार्ड से नवाजा गया था। बंगाली सिनेमा में फिल्म भुवन शोमे के लिए उन्हें बेस्ट एक्टर के तौर पर नेशनल फिल्म अवार्ड से सम्मानित किया गया था। लेकिन उत्पल दत्त को किसी अवॉर्ड या किसी सम्मान की कभी जरूरत नहीं रही उनका अभिनय इतना जीवित रहता था कि दर्शक अपने सारे गम भुलाकर उनके व्यंगात्मक शैली में हंसी के गोते लगाने लगते थे। उनका डॉयलॉग कहने का अपना ही एक अंदाज था अगर गोलमाल फिल्म देखी तो याद करिए उनके डॉयलॉग अगर नहीं देखी तो अब भी जरूर देख ले। 1940 में उत्पल दत्त अंग्रेजी थिएटर से जुड़े और अभिनय की शुरूआत कर डाली। शेक्सपियर साहित्य से उत्पल जी का बेहद लगाव था। इस दौरान उन्होंने थिएटर कंपनी के साथ भारत और पाकिस्तान में कई नाटक मंचित किए। नाटक ओथेलो से उन्हें काफी वाहवाही मिली थी। इसके बाद में उत्पल जी का रुझान अंग्रेजी से बंगाली नाटक की ओर बढ़ गया। 1950 के बाद उन्होंने एक प्रोडक्शन कंपनी जॉइन कर ली और इस तरह उनका बंगाली फिल्मों से करियर शुरू हो गया। बंगाली फिल्मों के साथ उनका थिएटर से प्रेम भी जारी रहा। इस दौरान उन्होंने कई नाटकों को निर्देशन ही नहीं बल्कि लेखन कार्य भी किया। बंगाली राजनीति पर लिखे उनके नाटकों ने कई बार विवाद को भी जन्म दिया।
शशी तुम कितने भी सवाल दाग लो जवाब सब करारे मिलेंगे
मुझे याद आ रहा है सन 1990 में भोपाल के रवींद्र भवन में शरद जोशी जी के साथ भोपाल आए थे। कार्यक्रम का दीप प्रज्जवलित करते ही जिस तरह से उन्होंने उई चिल्लाया था और कहा था ऊंगली जल गई हॉल में जरूर ठहाके लग रहे थे। मैं उसी वक्त समझ गया था कि उत्पल जी आज फुल मूड में है उन्होंने अपने उद्घोषण में राजनीति पर जिस तरह के व्यंग करें और सोनिया गांधी और राजीव गांधी पर जिस तरह से बोले तो उनकी मंशा साफ हो गई थी। उनके लिए हमेशा देश पहले था नेताओं से तो मनमुटाव होता ही रहता है वो अपनी बात कहने में झिझकते भी नहीं थे। इससे तो साबित होता था कोई मंझा हुआ राजनैतिक ही इतनी राजनीति की समझ रखता है और इस तरह की दबंग तरीके से बात कह सकता है। कार्यक्रम के बाद में शरद जी के साथ में रात को खाने के समय मुलाकात हुई थी। बाद में अगले दिन एक छोटा सा इंटरव्यू भी दिया था। उस समय की राजनीति पर जिस तरह से वे बयान दे रहे थे तो उससे समझ में आ रहा था कि कुछ चीजों से उनकी नाराजगी किस हद तक है और अपनी बात को गुस्से में या हास्य के तरीके से कहने में जो महाभारत मैंने देखी तो समझ में आया कि नागरिकों को हमेशा जीवन का रास्ता साफ होना चाहिए। इंटरव्यू के बीच में शरद जी ने मुझे कहा आज सवाल तुम जितने भी दाग लो जवाब सब करारे मिलेंगे और वहीं हुआ था।
भारतीय सिनेमा और थियेटर के इतिहास में सामाजिक प्रतिबद्धता और उद्देश्य की ईमानदारी के साथ काम करने वाले महान अभिनेताओं को याद करें, तो पहली कतार में यह एक नाम यक-ब-यक उभरकर सामने आ जाता है- उत्पल दत। इंसानी किरदार के अनगिनत रंगों को अपनी असीम अभिनय कला से पर्दे पर उजागर करके अद्भुत इन्द्रधनुष रचने और उसे जीवित करने वाले इस अभिनेता की पूरी उम्र का हर दिन इंसानी बेहतरी की तमन्नाओं से लबरेज था। उत्पल दत्त के नाटक जनता को तो पसंद आते थे लेकिन सरकारें उनसे नाराज रहती थीं। वो एक बड़े मार्क्सवादी क्रांतिकारी थे। उनके लिखे और निर्देशित कई बांग्ला नाटक विवादों में घिरे, इन्हीं में एक नाटक था 1963 में आया ‘कल्लोल’। इसमें नौसैनिकों की बगावत की कहानी को दिखाया गया और तब की कांग्रेस सरकार पर निशाना साधा गया था। बंगाल में कांग्रेस सरकार ने नाराज होकर 1965 में उत्पल दत्त को कई महीनों के लिए जेल में डाल दिया था। 1967 में जब बंगाल विधानसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस सरकार को हार का सामना करना पड़ा। राज्य में पहली बार वाम दलों की गठबंधन की सरकार बनी। कांग्रेस सरकार की हार के अहम कारणों में उत्पल दत्त की गिरफ्तारी एक वजह मानी गई। देश में आपातकाल लगा तो उत्पल दत्त ने तीन नाटक लिखे थे- बैरीकेट, सिटी आॅफ नाइटमेयर्स, इंटर द किंग। उस वक्त सरकार ने उनके तीनों नाटकों को बैन कर दिया था। महान जर्मन कवि-नाट्यकार बर्तोल्त ब्रेख़्त से प्रभावित होकर उन्होंने कई नाटक लिखे और अभिनय के साथ डायरेक्ट किए। मार्क्सवाद में गहरी आस्था रखने वाले उत्पल दत प्रगतिशील नाट्य मंडल ‘इप्टा’ के संस्थापकों में थे। ‘इप्टा’ को ऊंचाई तक पहुँचाने में उन्होंने अहम किरदार निभाया। हकीकत यह है कि उत्पल दत की हर फिल्म में इसी तरह अलग-अलग, अनोखे और सफल प्रयोग दिखते हैं। उनके इसी अंदाज की वजह से वे हिंदी फिल्मकारों के बेहद चहेते अभिनेता बन गए। लेकिन उत्पल दत ने हर फिल्म में काम करने के बजाय सिर्फ़ मनपसंद और चुनिंदा लोगों के साथ काम को ज्यादा महत्व दिया। बांग्ला फिल्मों में उन्होंने अगर सत्यजीत रे और मृणाल सेन के साथ खूब काम किया, तो हिंदी फिल्मों में ऋषिकेश मुखर्जी के साथ उनकी जुगलबंदी बेहद कामयाब रही।
1982 में आई बासु चटर्जी की फिल्म ‘शौकीन’ बेहतरीन कॉमिडी फिल्मों में से एक मानी जाती है। फिल्म की कहानी 3 लोगों उत्पल दत्त, अशोक कुमार और एके हंगल पर थी जो बॉयज ट्रिप पर जाते हैं और वहां रति अग्निहोत्री पर उनका क्रश हो जाता है। उत्पल दत्त की फिल्म ‘शौकीन’ बेहतरीन कॉमिडी फिल्मों में से एक मानी जाती है।
1979 में रिलीज हुई फिल्म ‘गोलमाल’ उत्पल दत्त की सबसे कामयाब और पसंद की जाने वाली फिल्मों में से एक है। फिल्म की कहानी युवा राम प्रसाद (अमोल पालेकर) के इर्द-गिर्द है जो अपने बॉस (उत्पल दत्त) को इम्प्रेस करने के चक्कर में झूठ के जंजाल में फंस जाता है
‘नरम गरम’ में उत्पल दत्त ने भवानी शंकर का किरदार निभाया था। फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा ने उत्पल दत्त के बेटे बबुआ का रोल अदा किया था। दोनों कुसुम की खूबसूरती के दीवाने होते हैं जिससे बाद में चीजें मजेदार हो जाती हैं फिल्म इतनी मजेदार थी की लोग आज भी याद करते है वैसे उत्पल दत्त का हॉस्य का तरीका साथ में उस तरह के चेहरे पर भाव लाना सचमुच में अदभुत ही था।
फिल्म में उत्पल दत्त को एक पिता के तौर पर लगता है कि शिक्षा ने देश की महिलाओं को बर्बाद कर दिया है और इसलिए वह अपने बेटे के लिए अनपढ़ बहू ढूंढते हैं। दुर्भाग्यवश, उनके बेटे को एक डॉक्टर से प्यार हो जाता है और दोनों कुछ ऐसी कहानी पकाते हैं जिसे संभालना मुश्किल हो जाता है।
‘बेवकूफ कहने का एक निराला ही अंदाज था
1950 में मशहूर फिल्मकार मधु बोस ने उन्हें अपनी फिल्म माइकल मधुसुधन में लीड रोल दिया, जिसे काफी सराहा गया। इसके बाद उत्पल दत्त ने सत्यजीत रे की फिल्मों में भी काम किया। हिन्दी सिनेमा में उत्पल दत्त एक महान हास्य अभिनेता के रूप में जाने जाते थे। हालांकि उन्होंने बहुत कम फिल्मों में काम किया। गुड्डी, गोलमाल, नरम-गरम, रंग बिरंगी और शौकीन। उत्पल दत्त हिन्दी सिनेमा में अत्यंत व्यस्त काफी देर में हुए थे, वैसे बंगाली रंगमंच तथा सिनेमा में उनका बहुत नाम था। उन्होंने हिन्दी फिल्मों की अपनी लंबी सूची में बहुधा हास्य प्रधान भूमिकाएँ की थीं। मगर अमिताभ बच्चन की प्रथम फिल्म सात हिन्दुस्तानी में वे भी एक हिन्दुस्तानी थे। बल्कि एक तरह से देखा जाय तो उत्पल जी ही मुख्य भूमिका में थे और अमिताभ बच्चन समेत अन्य सभी कलाकार सहायक भूमिकाएँ निभा रहे थे। ऐसा नहीं कि उन्होंने सिर्फ़ पसंदीदा फिल्में ही कीं। उन्होंने, उनके अपने कथन के मुताबिक, बहुत सारा काम सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए ही किया।. असल में थियेटर उनकी पहली चाहत और पहली मोहब्बत था। वे इस माध्यम के जरिए ही अवाम से सीधे जुड़कर समाज में फैली आर्थिक-सामाजिक विषमताओं और शोषक शक्तियों से जूझना और जीतना चाहते थे। गैरबराबरी वाले समाज को बदलने के लिए वे आम आदमी तक पहुँचकर उसे जगाना उनके जीवन का एकमात्र ध्येय था। इसी थियेटर की वजह से उत्पल दत्त भारी कर्ज में डूब गए थे, जिससे उबरने के लिए वे हिंदी फिल्मों में आए थे। वे अपनी ‘जात्रा’ वाले अभियान के साथ बंगाल के गांव-गांव घूमते और क्रांति का अलख जगाते थे। उनके लिखे नाटकों के कारण अक्सर विवाद खड़े हो जाते। देश-प्रदेश की राजनीतिक ताकतें बेचैन हो जातीं और उत्पल दत्त सीधे उनके निशाने पर आ आते थे। यूं तो उनके लिखे और निर्देशित कई बांग्ला नाटक विवादों में घिरे पर एक नाटक ‘कल्लोल’ तो युगांतरकारी नाटक सिद्ध हुआ। 1946 में नौसैनिकों की बगावत की कहानी में तब की कांग्रेसी सरकार पर जबर्दस्त निशाना साधा गया था। 1965 में कांग्रेस सरकार ने नाराज होकर उत्पल दत्त को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया। इस दमनकारी कार्यवाही ने आग में घी का काम किया। 1967 में जब बंगाल विधानसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस सरकार बुरी तरह हारी और वाम दलों के गठबंधन को सरकार बनाने का पहला मौका मिला। इस हार के कारणों में ‘कल्लोल’ और उत्पल दत्त की गिरफ़्तारी को एक कारण माना जाता है। ऐसे क्रांतिकारी जज्बे वाले इस अदाकार ने 1993 में 19 अगस्त को इस दुनिया-ए-फानी से कूच कर दिया,लेकिन उनका हुनर आज के बदले जमाने में भी उसी तरह कायम-दायम है। 19 अगस्त 1993 को दत्त का एसएसकेएम अस्पताल, कलकत्ता , पश्चिम बंगाल से घर लौटने के ठीक बाद दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया, जहां उनका डायलिसिस हुआ था। जय हो…