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राकेश दुबे
यह हर भारतीय के लिए चिन्तन का विषय है | अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने वर्ष २०१९-२० और २०२०-२१ में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में होने वाली वृद्धि को लेकर अपने अनुमान में संशोधन किया और दोनों वर्षों के अनुमान को २० आधार अंक कम करके क्रमश: ७.३ प्रतिशत और ७.५ प्रतिशत कर दिया। इससे पहले विश्व बैंक ने भी भारत में जीडीपी वृद्धि के अनुमान को संशोधित करके घटाया था और कहा था कि २०१९-२० में यह ७.२ प्रतिशत रह सकती है। उसने भी २० आधार अंकों की कमी की थी। ये अनुमान यूँ ही नहीं हैं। ये आंकड़े केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने जारी किए हैं और दोनों बहुपक्षीय संस्थानों के मुताबिक ये चुनिंदा नीतिगत कदमों पर आधारित हैं| जो अगले एक-दो वर्ष में वृद्धि को गति प्रदान करेंगे। बहरहाल, एक सवाल तो फिर भी बनता है कि आखिर अनुमानों में कटौती क्यों करनी पड़ी? आखिरकार, न तो विश्व बैंक और न ही आईएमएफ के पास भारत में आंकड़ों का संग्रह करने का कोई स्वतंत्र जरिया है। ऐसे में यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर एक एजेंसी के अनुमान में गिरावट और दूसरी में सुधार किन कारणों से दिख रहा है ?
यह एक व्यापक और गभीर चिंता का मुद्दा है| जो बहुपक्षीय एजेंसियों की ओर से जारी किए गए वृद्धि अनुमानों की विश्वसनीयता से ताल्लुक रखता है। ऐसे हालात में जब आधिकारिक आंकड़ों पर लगातार सवाल उठ रहे हों, तब कई पर्यवेक्षकों के लिए सबसे सहज बात यही है कि वृहद आर्थिक स्थिति से संबंधित आंकड़ों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए स्वतंत्र स्रोतों का सहारा लें। इससे यह पता चल सकेगा कि वृहद अर्थव्यवस्था में चल क्या रहा है? बहरहाल, अगर वे स्वतंत्र सूत्र भी यह बताने की स्थिति में न हों कि उनके अनुमान सरकारी एजेंसी के अनुमान से बेहतर और अधिक भरोसेमंद क्यों हैं तो वे किसी के काम आएंगे ही क्यों? सीएसओ द्वारा जारी वृद्धि के आधिकारिक शीर्ष आंकड़ों तथा बहुपक्षीय एजेंसियों के अनुमानों में आखिर रिश्ता क्या है? उदाहरण के लिए देखें तो विश्व बैंक स्पष्ट कहता है कि वह अपने डेटा टेबल के लिए स्थानीय मुद्रा से जुड़े आंकड़ों का इस्तेमाल करता है जो हर देश जारी करता है। जब घरेलू एजेंसियां अपने आकलन के तरीके में बदलाव लाती हैं तो निरंतरता बनाए रखने के लिए विश्व बैंक अपनी आकलन पद्धति में क्या बदलाव लाता है? भारत में ऐसा हुआ है और उस पर विवाद भी उठा था। सवाल यह भी है कि ऐसे कौन से अतिरिक्त आंकड़े आए होंगे जिनके कारण अनुमान में बदलाव आया?अतीत के दिक्कतदेह अनुमानों की भी कुछ जवाबदेही होनी चाहिए। विश्व बैंक और आईएमएफ को अपने अतीत के पूर्वानुमानों और वास्तविक आंकड़ों पर नजर डालनी चाहिए और अंतर होने पर स्पष्टीकरण तैयार करना चाहिए। इससे उनके विश्लेषकों में जवाबदेही आएगी और पर्यवेक्षकों को पारदर्शिता मिलेगी।
अभी भी कई सवाल ऐसे भी हैं जो विश्व बैंक और आईएमएफ के आंकड़ों के बारे में पूछे जाने चाहिए। उदाहरण के लिए विश्व बैंक का कहना है कि वर्ष२०१७ में भारत का जीडीपी २.६ लाख करोड़ डॉलर था और क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के संदर्भ में उसका जीडीपी ११.९ लाख करोड़ डॉलर था। पीपीपी आधार पर यह ४.७६ था। उसी वर्ष विश्व बैंक ने दावा किया कि बांग्लादेश का पीपीपी जीडीपी ६३,७०० करोड़ डॉलर था जबकि वास्तविक संदर्भ में यह२५,००० करोड़ डॉलर था। पीपीपी आधार पर यह २.५४ है। दोनों के बीच इतना अधिक अंतर है कि प्रश्न उठना लाजिमी है। दूसरे वर्षों और अन्य समकक्ष अर्थव्यवस्थाओं के साथ यह अंतर और अधिक हो सकता है। पीपीपी के आकार और प्रतिव्यक्ति शक्ति के सवाल अंतरराष्ट्रीय बातचीत में काफी महत्त्वपूर्ण हैं। इन विसंगतियों को स्पष्ट किया जाए तो बेहतर होगा। देश के सांख्यिकी विभाग और उसके नियंताओ को सोचना चाहिए |