चंडीगढ़/दिल्ली। इनेलो नेता और हरियाणा विधानसभा में नेता विपक्ष अभय चौटाला ने कहा है कि देश में बसपा प्रमुख मायावती के नेतृत्व में गै़र भाजपा व गै़र कांग्रेस दलों का तीसरा मोर्चा बनेगा और देश की अगली प्रधानमंत्री मायावती होंगी। हमें यहां पर ये ध्यान में रखना होगा कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जबकि किसी ने मायावती को प्रधानमंत्री का प्रबल दावेदार बताया हो। दरअसल जैसे-जैसे लोकसभा चुनावों का मौसम नजदीक आता-जाता है, वैसे-वैसे इस तरह के बयान देश भर के क्षेत्रीय नेताओं की तरफ से आते रहते हैं।
INLD leader’s big statement: Mayawati will become PM, BJP will get out of hand!
भारत में 1989 से शुरू हुई गठबंधन की राजनीति में कभी वी पी सिंह का नाम भी इसी तरह से लिया जाता था, उनके बाद चंद्रशेखर का नाम उछला, फिर कर्नाटक के एच डी देवगौड़ा आए, देवगौड़ा के बाद नाम आया इंद्र कुमार गुजराल का। मजेदार बात ये है कि इनको तो इतिहास में भारत के प्रधानमंत्री के रूप में जरुर याद किया जाएगा, लेकिन मायावती को इतिहास में अपना नाम बतौर प्रधानमंत्री शामिल करने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।
फिलहाल अकेली मायावती इस फेहरिस्त में शामिल नहीं हैं, जिनको भावी पीएम बताया जा रहा है, इनके अलावा कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी, टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी, सपा संरक्षक मुलायम सिंह यादव और यहां तक कि खुद मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसी कतार में खड़े हुए हैं।
देश की राजनीतिक बयार पर अगर नजर दौड़ाएं तो मायावती अब उतनी मजबूत नहीं रह गई हैं, जितनी कभी होती थी। इस बात को कहना भी गलत नहीं होगा कि ना केवल मायावती से दलित वोट छिटके हैं बल्कि उनका समूची सियासी बिसात पर भी जबतरदस्त तरीके से प्रभाव पड़ा है, नतीजतन हमेशा एक-दूसरे की विचारधाराओं के खिलाफ रही बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने यूपी के फूलपुर से मिलकर इलेक्शन लड़ा था, जिसे बबुआ-बुआ का मिलन कहा गया था। राजनीतिक गलियारों में आजकल ये कयास जोरों पर हैं कि 2019 में सपा-बसपा मिलकर कांग्रेस-भाजपा को चुनौती दे सकते हैं।
इसके अलावा अगर बात करें पश्चिमी बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी की, तो उन्हें भी जब-तब प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के रूप में गिना जाता है, क्योंकि जिस तरह कम्यूनिस्टों के 37 साल के राजनीतिक किले की दिवारों को उन्होंने ढ़हाया है, उसे देखते हुए ये माना जा रहा है कि ‘दीदी’ भी पीएम की इच्छुक हैं।
बाकी जो कुछ मोदी और राहुल के बीच आजकल चल रहा है, वो तो जगजाहिर है ही। बेशक प्रधानमंत्री के सवालों का भी और वादों का भी राहुल ने कायदे से जवाब देना तो सीख लिया है, हालाकि उनका ये सलीका वोटरों को रिझानें में कितना कारगर साबित होगा, ये तो ‘ईवीएम’ मशीनों के खुलने के बाद ही पता चल पाएगा, जिन पर आज कांग्रेस को यकीन नहीं हैं, जो कभी भाजपा को नहीं था।
तो ऐसे में सवाल यही है कि देश का मतदाता किसके हाथ में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की कमान सौंपना चाहता है और किसे सर्वशक्त्तिमान के रूप में माननीय प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहता है, ये तय करेगा 2019 में होने वाले आम चुनाव।