चुनाव से पहले मुख्यमंत्री बदलना ठीक नहीं

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राजेश बादल


भारतीय लोकतंत्र एक चिकने घड़े में तब्दील होता जा रहा है।संवैधानिक व्यवस्थाओं और बहुमत से नेता के चुनाव की परंपरा हाशिए पर जाती दिखाई दे रही है।सभी राजनीतिक दलों में यह महामारी फ़ैल चुकी है।जिला पंचायतों,प्रदेश विधानसभाओं और संसद के लिए नेता चुनने की प्रक्रिया में प्रदूषण घुलता हुआ देखना विवशता है।हज़ार साल तक राजशाही का दंश झेल चुके देश में सामंती चरित्र एक बार फिर दाख़िल हो चुका है।संविधान के इस तरह धीरे धीरे बाँझ होने की प्रक्रिया यक़ीनन गणतांत्रिक प्रणाली के लिए घातक है।अब नेता पद का चुनाव निर्वाचित जनप्रतिनिधि नहीं करते और न उन्हें वापस घर बैठाने की प्रक्रिया में कोई नुमाइंदा शरीक़ होता है।सारा उपक्रम सिर्फ़ चुनाव जीतने के लिए किया जाता है।इस उद्देश्य से कुछ राज्यों में चुनाव के पहले विधायक दल नेता को आलाकमान के इशारे पर हटाने का सिलसिला इन दिनों चल रहा है।यह अभी जारी है।मतदाता अपने साथ इस ठगी की शिकायत आख़िर किस मंच पर करे ?
कर्नाटक,उत्तराखंड,गुजरात और पंजाब में मुख्यमंत्रियों को जिस तरीक़े से हटाया गया,उसकी यक़ीनन कोई तारीफ़ नहीं करेगा।इन प्रदेशों के उदाहरण साफ़ करते हैं कि नेता बदलने के खेल में दोनों शिखर पार्टियाँ शामिल हैं।जिन दो बड़े दलों को यह देश लोकतांत्रिक कमान सौंपता रहा है,उनमें इस प्रवृति का पनपना गंभीर संकेत देता है।उत्तराखंड को तो इन दलों ने शर्मनाक़ प्रयोगशाला बना दिया है।वहाँ मुख्यमंत्री जाते ही अपने विदाई संदेश की प्रतीक्षा करने लगता है।इसलिए वह-सत्ता सुख की लूट है ,लूट सके तो लूट ,अंत काल पछताएगा,जब गद्दी जाएगी छूट की शैली में घर भरने के चौके छक्के लगाकर लौट जाता है।भ्रष्टाचार का यह संवैधानिक संस्करण है।लेकिन गंभीर बात इसलिए है कि चार साढ़े चार साल तक एक मुख्यमंत्री सरकार चलाता है।कार्यकाल में वह पार्टी घोषणापत्र के आधार पर मुद्दों का क्रियान्वयन करता है।साढ़े चार बरस वह फसल बोता है,सिंचाई करता है,तो उत्पादन क्यों नहीं देखना चाहेगा अर्थात मुख्यमंत्री अपने काम का मतदाताओं की नज़र में मूल्यांकन भी देखना चाहता है।इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है।यह कैसे संभव है कि वोटर केवल चेहरा बदल जाने से उस पार्टी को दोबारा वोट दे दे।यदि चार -पाँच साल सरकार ने ख़राब काम किया हो तो परिणाम बुरा ही मिलेगा।यदि येदुरप्पा या कैप्टन अमरिन्दरसिंह पाँच से दस साल पार्टी की पतवार थाम सकते हैं तो चुनाव-वैतरणी क्यों पार नहीं लगा सकते?ताबड़तोड़ हटाने से उसके समर्थकों की उदासीनता अथवा भितरघात का नया मोर्चा खुल जाता है-यह बात आलाकमान को ध्यान में रखना चाहिए।
वैसे भी भारतीय संवैधानिक ढाँचा किसी मुख्यमंत्री को हटाने की वैधानिक प्रक्रिया बताता है।जब मुख्यमंत्री विधायक दल का विश्वास खो दे तो पहले विधायक दल ही नया नेता चुनता है।कुछ दशकों से इस प्रक्रिया के बीच में दल का प्रदेश प्रभारी और आला कमान का ऑब्ज़र्वर याने दूत भी कूद पड़ा है ।अब तो वे सीधे बंद लिफ़ाफ़ा लेकर आते हैं और फ़रमान सुनाते हैं।कभी कभी वे सीधे ही राज्यपाल से मिलकर विधायक दल के निर्णय की जानकारी दे देते हैं।यह अनुचित है और स्वस्थ्य संसदीय परंपरा का हिस्सा नहीं है।यह तो मुख्यमंत्री का अपना अनुशासन है कि वह शिखर नेतृत्व का संदेश पाकर इस्तीफ़ा पेश कर देता है।अन्यथा यदि उसके पास बहुमत हो और वह कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाए तो पार्टियों के शीर्ष नेतृत्व को लेने के देने पड़ जाएँ।इसके अलावा एक नुक़सान और है।आलाकमान ताज़े चेहरे के नाम पर अपेक्षाकृत कनिष्ठ और प्रशासन अनुभव नहीं रखने वाले व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाता है।जो व्यक्ति पहली बार विधायक चुना गया हो,उसे तो संसदीय प्रक्रिया के बारीक़ पेंचों की समझ ही नहीं होती।उसके सामने चुनाव होते हैं और वह वोटर को लुभाने के लिए अंधाधुंध असंभव सी घोषणाएँ करने लगता है।इनमें से अधिकतर कभी पूरी नहीं होतीं।वह अफ़सरशाही पर लग़ाम भी नहीं लगा पाता और न ही अपने हिसाब से उनका मूल्यांकन कर पाता है।नए मुख्यमंत्री को पद सँभाले चार छह महीने भी नहीं बीतते कि चुनाव तारीख़ों का ऐलान हो जाता है।आचार संहिता लग जाती है।याने बबुआ मुख्यमंत्री के लिए कुछ भी करने के लिए नहीं रहता।वोट तो पुराने मुख्यमंत्री के काम या सरकार की छबि पर ही मिलता है।सियासी अतीत को देखें तो ज़्यादातर मामलों में चुनाव पूर्व नेता बदलने का कोई लाभ किसी पार्टी को नहीं मिला है।शरद पवार और सुषमा स्वराज जैसे दिग्गज भी चुनाव से पहले भेजे जाने पर पार्टी को जिता नहीं सके थे।अलबत्ता सुशील शिंदे और एकाध अन्य उदाहरण इसका अपवाद हैं।
इसी तरह मुख्यमंत्री के मनोनयन का ढंग भी लोकतान्त्रिक नहीं रहा ।उसके लिए आवश्यक रस्मों का पालन होता है ,लेकिन वास्तव में नए विधायकों को नेता चुनने की आज़ादी नहीं होती।अब तो इसे औपचारिक शक़्ल भी दे दी गई है।विधायक दल प्रस्ताव पास करता है।उसमें कहा जाता है कि पार्टी का शिखर नेतृत्व या अध्यक्ष जिसे चुनेगा,वह विधायक दल को मंज़ूर होगा।राजशाही में राजा ही तो सेनापतियों का चुनाव करता था।यह भी उसी तरह की कार्रवाई है।यह ठीक नहीं है।कोई अपने मत का अधिकार किसी दूसरे को कैसे दे सकता है ? नेता चुनने का हक़ भारत के जन प्रतिनिधित्व क़ानून ने उसे दिया है।वह किसी अन्य को स्थानांतरित नहीं किया जा सकता।इससे स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपरा की हत्या होती है।मान्यता है कि सियासी तीर अक्सर उलट कर लगते हैं।मुझे याद है कि 1980 में अर्जुनसिंह के साथ बहुमत नहीं था।वे कमलनाथ और संजय गांधी की मेहरबानी से मुख्यमंत्री बने थे,जबकि बहुमत शिवभानु सिंह सोलंकी के पास था और जब 1985 में अर्जुनसिंह के नेतृत्व में पार्टी दोबारा जीत कर आई तो शपथ से पहले ही उन्हें पंजाब का राज्यपाल बना दिया गया।अल्पमत के मोतीलाल वोरा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी सँभाली थी।
ज़ाहिर है बड़ी पार्टियों पर यह ज़िम्मेदारी है कि वे संसदीय प्रक्रियाओं की हिफाज़त और सम्मान करें।क्षेत्रीय दल तो पहले ही सामंती आचरण कर रहे हैं। उनसे क्या अपेक्षा करें ?