कैराना-नूरपुर उपचुनाव: जिसके साथ होंगे जाट, वही जीतेगा कैराना

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लखनऊ। वेस्ट यूपी की कैराना सीट पर उपचुनाव बीजेपी और एकजुट विपक्ष के लिए एसिड टेस्ट की तरह है। विपक्ष ने हाल ही में कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के दौरान अपनी एकजुटता का प्रदर्शन भी किया था। कैराना लोकसभा और नूरपुर विधानसभा का उपचुनाव 2019 के आम चुनाव से पहले प्रदेश में संभवत: आखिरी उपचुनाव है। ऐसे में ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला रही इन सीटों के नतीजों का सीधा असर अगले कुछ महीनों में घटित होनी वाली यूपी की सियासत पर साफ दिखेगा। फिलहाल, कैराना में जिसके साथ जाट ‘याराना’ दिखाएंगे, पलड़ा उसका ही भारी रहने की उम्मीद है।
Karaana-Noorpur bypoll: Jats with whom will be the same, Kareana will win
बीजेपी भी मानती है कि कैराना कभी भी उसकी परंपरागत सीट नहीं रही है। सीधी लड़ाई में जातीय समीकरण उसके पक्ष में नहीं हैं। मोदी लहर में बने माहौल में हुकुम सिंह करीब 16 साल बाद इस सीट को बीजेपी की झोली में डाल पाए थे इसलिए यहां बीजेपी के लिए मुश्किल होना आश्चर्यजनक नहीं है, लेकिन गोरखपुर में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की परंपरागत सीट और डेप्युटी सीएम केशव प्रसाद मौर्य की सीट फूलपुर से हारने के बाद बीजेपी की यह दलील अप्रासंगिक हो गई है।

खास बात यह है कि कैराना का नतीजा मोदी सरकार के चार साल पूरे होने के एक हफ्ते के भीतर आएगा इसलिए सीएम योगी आदित्यनाथ की सभाओं, प्रदेश व केंद्र के 20 से ज्यादा मंत्रियों की जुटान, कई विधायकों-सांसदों की थकान के बाद भी इस नतीजे के तार सीधे मोदी सरकार के कामकाज से जोड़े जाएंगे। मतदान के ठीक एक दिन पहले बागपत में मोदी के 50 मिनट के भाषण के बाद यह और तय हो गया है कि सियासी विश्लेषक इसके जरिए मोदी के ’56 इंच’ का असर जरूर आंकेंगे। ऐसे में जश्न जारी रहेगा या उसमें भंग पड़ेगा, कैराना इसकी कसौटी बनेगा।

जाट तय करेंगे ‘ठाट’, ध्रुवीकरण की भी बात
कैराना लोकसभा में 16.09 लाख वोटर हैं। इसमें करीब 40% भागीदारी मुस्लिम और जाटव वोटरों की हैं। सवर्ण, ओबीसी, अति पिछड़ों के बीच करीब 2 लाख जाट वोटरों का रुख बहुत हद तक निर्णायक होगा। बीएसपी के खुलकर समर्थन न करने के बावजूद आरएलडी जाटव वोटरों को लेकर आश्वस्त है। इसके पीछे तर्क यह है कि बीएसपी के परंपरागत वोटरों में भी यह संदेश है कि 2019 में मायावती-अखिलेश एक मंच पर ही रहेंगे।

ऐसे में सवर्णों एवं अति पिछड़े परंपरागत वोटों के बीच निर्णायक अंतर के लिए बीजेपी की उम्मीद अब जाटों पर ही टिकी हैं। योगी की अगुआई में ध्रुवीकरण की कोशिशों से लेकर फतवों की कवायद जाटों को कितना पिघला पाएगी यह कहना मुश्किल है। खासकर, तब जब अजित-जयंत चौधरी चरण सिंह की याद दिलाते हुए जाट नेतृत्व को बचाने की दुहाई देते हुए गांव-गांव पहुंचे हैं।

कैराना लोकसभा पर सीधी लड़ाई दिवंगत सांसद हुकुम सिंह की बेटी व बीजेपी प्रत्याशी मृगांका सिंह और पूर्व सांसद व आरएलडी की प्रत्याशी तबस्सुम हसन के बीच है। जो जीतेगा उसे एक साल से भी कम का कार्यकाल मिलेगा लेकिन जिस पार्टी का होगा उसके दूरगामी सियासी नफा-नुकसान पर इसका बड़ा असर दिखेगा।