*करवाचौथ स्पेशल कविता*

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*……..सुनो जी……….*
आओ बैठो तनिक पास तुम
छोड़ तुम्हारी घर-गृहस्थी के
झंझट-वंझट खीझ-तनावों
तीज-त्यौहारों से फुर्सत पा
दशकों पहले जैसी अल्हड़
वही पुरानी सी हो मेरी।
आओ अपने घरघूलों में
करें दिनों की लौटा फेरी।
भूल गई सब
तुमने बाँधा था इक जूड़ा
मोटी सी लट बना गूंथ कर
सर के पीछे जाल बना कर
धवल मोगरों की वेणी पर
कुछ मोती से जड़े रिझाने।
जैसे तारे उतर गए हों
मनके मनके में बन दाने।
और हाँ ! वो किलिप लगा कर
एक आँख में लिए शरारत
धीरे से जब दबा रही थीं
मुझको पागल बना रहीं थीं
मैं बोल था बिखरा दो सब
मत बांधो इस जूड़े में कस
केश तुम्हारे घने नशीले
आषाड़ी की भरी दुपहरी
घिरी घटाओं से फैले से
मेरे मन को बाँध-बाँध कर
नयन सुहाते भाते मुझको।
रिमझिम सा सहलाते मुझको।
याद करो वो माँ से छुपकर
दो पहिए की टमटम गाड़ी
अरे वही न बुलेट हमारी
जिस पर पीछे बैठ गईं थीं
वैसे ही तुम शर्मीली सी
और बढ़ा रफ्तार दबाया
था जब मैंने भी ब्रेक बताओ
पूरी लाली लिए गाल पर
तुमने क्या-क्या कह डाला था
मैंने भी तो बड़े जतन से
कितनी नजरों को टाला था।
चलो चलें न
जरा अकेले पहले जैसे
बना बहाना मन्दिर वाला
कुएं वाले बड़े खेत की
नरम दूब पर थाम हथेली
खट्टी इमली की छैंयाँ में
बहते पानी पैर भिगोते
मुठ्ठी में कुछ बेर उठाए
तोता-मैना सा बतियाने
सरसों, अलसी को छू-छू कर
फागुन वाले रंग उड़ाने
कहाँ रखे हैं? बतलाओ तो
अपने वो सकुचाए फोटो
बड़े शहर के न पहचाने
फोटू वाले से खिचवा कर
लाए थे हम चुपके चुपके
जिन्हें कभी तुम
“धत्त” बोल कर नाक चढ़ाए
अलमारी में रख देती थीं
आओ न अब उन्हें निकालें
सम्भव हो तो गेंद बना कर
वही पुराना समय उछालें
सुनो
बना कर काजल की वो
एक महीन कजरारी रेखा
मेहँदी की बारीक डिजाईन
मांग सलीके से भरकर तुम
वो लम्बी सी मैचिंग बिंदी
उसी रंग की पहन चूड़ियाँ
पिंक, जमुनी, हल्की पीली
चटक बसंती य कुछ नीली
साड़ी पहने “सुनो” टेर कर
अधर आँख की जुगलबंदीयां
कर पूछो न एक बार फिर
“कैसी लगती हूँ बतलाओ”
दर्पण से थोड़ा सा हट कर
फिर मेरे वो दिन लौटाओ।
जाने वो अभिसार तुम्हारे
कहाँ गए हैं सालों गुजरे
बिन आहट के बिना बताए
अपने हाथों के पंछी से
फुदक-फुदक कर फुर्र हो गए
सपनों जैसे कहीं खो गए।
कभी-कभी बस एक चहक दे
कटे पंख से आते देखा
करवा चौथ हरताल तीज पर
होली और दिवाली पर भी
ओढ़ थकावट अहसानों की
बूढ़े और सयानों जैसे
अनजाने मेहमानों जैसे।
खर्चों वाली भरी डायरी
बिल के भुगतानों की तिथियाँ
लेन-देन का लेखा-जोखा
फीस किताबें बस्ते ट्यूशन
महरी के नखरों की उलझन
नेग, शगुन सब रिश्तेदारी
उपवासों की कथा कहानी
पूरी करती सब फरमाईश
और रसोई भी सबके माफिक
बस इनमे ही खो जाती हो
बिना वक्त ही खर्राटे भर
निगल दवाई सो जाती हो।
तकिये पर कुछ गिरी ओस सी
कह जाती है रात तुम्हारी
इसी तरह ही उम्र समूची
एक नदी सी बह जाती है।
अपने हाथों में बहाव की
रेत जरा सी रह जाती है।
बच्चे हैं
बच्चों के बच्चे
किलकारी है उधम मस्ती
घर भी बहुत बड़ा सा है अब
बातें भी होती हैं सारी
बर्तन भी सब शोर मचाते
सारे अपना फर्ज निभाते
इनको इनके द्वार सौंप कर
आओ हम फिर हम हो जाएँ।
कहीं गुमे उस ट्रांजिस्टर पर
नूरजहाँ और सहगल वाले

गीत बजाने सूई घुमाएं।

चौ.मदन मोहन समर

भोपाल (म.प्र.)