कश्मीर का मसला और हमारा इतिहास बोध

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राजेश बादल


भारत में अजीब दुविधा है।लोकतंत्र सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है,लेकिन शायद नागरिक अभी उसके लिए तैयार नहीं हैं ।ग़ैर ज़िम्मेदारी के आलम में अक्सर वे ऐसे विचार प्रकट करते हैं,जो देश को नुक़सान पहुँचाते हैं।अनजाने में जो ऐसी बात करे,उसे तो एक बार क्षमा किया जा सकता है।मगर जानबूझकर कही गई बातें किस श्रेणी में रखी जाएं ? सभ्य समाज को यह समझने की ज़रुरत है।कश्मीर पर ताज़ा बहस इसी तरह की है।चंद रोज़ पहले कांग्रेस की प्रथम पंक्ति के एक नेता ने डिज़िटल मंच पर कहा कि यदि उनका दल सत्ता में आया तो अनुच्छेद -370 फिर बहाल करने पर विचार करेगा।साफ़ है कि इसे सियासी रंग दिया गया है।मगर यह पार्टी की अधिकृत राय नहीं है।लेकिन क्या नेताजी को कश्मीर-प्रसंग में अपने दल की सरकार का इतिहास पता है।शायद नहीं।अन्यथा वे इस तरह नहीं कहते।क्या वे नहीं जानते थे कि अनुच्छेद -370 के समापन की शुरुआत तो जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में ही हो गई थी।पिछले साल केंद्र सरकार ने जिस 370 को ख़त्म किया,वह एक तरह से खोखली थी।कई प्रावधान तो नेहरू,शास्त्री और इंदिरा गाँधी के समय ही नहीं रहे थे ।

इसे समझने के लिए अतीत याद करना होगा।भारतीय संविधान सभा में जम्मू कश्मीर के चार लोग थे।ये थे शेख़अब्दुल्ला,मिर्ज़ा अफ़ज़ल बेग़, मोहम्मद सईद मसूदी और मोतीराम बागड़ा।संविधान सभा ने उनकी सहमति से अनुच्छेद-370 स्वीकार किया तो ख़ास बिंदु थे-राज्य अपना संविधान बनाएगा ,रक्षा,विदेश व संचार भारत के जिम्मे थे,संवैधानिक बदलाव के लिए राज्य की मंज़ूरी ज़रूरी थी,यह सहमति राज्य संविधान सभा से पुष्टि चाहती थी,राज्य संविधान सभा काम पूरा करने के बाद भंग हो जानी थी।राष्ट्रपति को370हटा सकते थे पर संविधानसभा की अनुमति ज़रूरी थी।लब्बोलुआब यह कि जम्मू कश्मीर संविधान सभा सर्वोच्च थी और 370 का भविष्य उसे ही तय करना था।यह अस्थायी व्यवस्था थी।सितंबर,51में संविधानसभा के चुनाव हुए।सारी सीटें नेशनल कांफ्रेंस ने जीतीं।वज़ीरेआज़म शेख़अब्दुल्ला चुने गए।राज्य की यह पहली निर्वाचित सरकार थी।इसके बाद जुलाई,52 में केंद्र-नेशनल कांफ्रेंस समझौते में दोनों पक्षों ने 370 मंज़ूर कर ली।अब विधानसभा ही सर्वोच्च थी।केंद्र दख़ल देने की स्थिति में नहीं था।राज्य का झंडा भी अलग था।भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार सीमित ही लागू होने थे।आंतरिक गड़बड़ी की स्थिति में ही केंद्र राज्य की मंज़ूरी से इमरजेंसी लगा सकता था।धारा 356 व 360 लागू नहीं की जा सकती थी।संसद व कश्मीर विधानसभा ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी।नवंबर,52 में महाराजा की गद्दी समाप्त कर दी गई।युवराज कर्णसिंह पहले सदर ए रियासत चुने गए।

इसके बाद शेख अब्दुल्ला ने रंग बदले।वे कश्मीर की आज़ादी की बात करने लगे।उन्हें अमेरिका ने भड़काया था।बदले रुख़ से जनता और मंत्रिमंडल में व्यापक असंतोष था।सदर ए रियासत कर्णसिंह ने शेखअब्दुल्ला को केबिनेट की बैठक बुलाकर शांति क़ायम कराने का निर्देश दिया।शेख़ ने निर्देश को धता बताया और गुलमर्ग घूमने चले गए।सदर ए रियासत ने सरकार बर्ख़ास्त कर दी और शेख़ गिरफ़्तार कर लिए गए।नेशनलकांफ्रेंस ने बख़्शी ग़ुलाम मोहम्मद को नया नेता चुना।नई सरकार बनी।नेहरू,शेख़ के धोखे से ख़फ़ा थे।जनवरी,54 में नए नेतृत्व ने दिल्ली समझौते में आस्था जताई कस्टम, आयकर और उत्पादन कर भी केंद्र को वसूलने का हक़ मिला।सुप्रीमकोर्ट को मान्यता दी गई।फरवरी,54में एक बार फिर राज्य सरकार ने भारत विलय पर मोहर लगा दी।संविधान सभा ने माना कि भारतीय संविधान कश्मीर पर लागू होगा।मई,54 में राष्ट्रपति ने भारतीय संविधान कश्मीर पर लागू कर दिया।नवंबर में नेशनल कांफ्रेंस ने ऐलान किया कि न कश्मीर कभी पाकिस्तान में मिलेगा और न आज़ादी की कोशिश करेगा।दरअसल शेख़अब्दुल्ला का रवैया उनकी पार्टी के लोगों ने पसंद नहीं किया था।अक्टूबर,56 में कश्मीर के संविधान का अंतिम मसविदा संविधान सभा में पेश हुआ।इसमें कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बताया गया। संविधान 26 जनवरी,57 से लागू हो गया।संविधानसभा भंग हो गई।नए चुनाव हुए।इनमें नेशनल कांफ्रेंस ने 60 सीटें जीतीं।

बख्शी ग़ुलाम मोहम्मद ने फिर सरकार बनाई।इसके बाद1959 में संविधानसभा ने चुनावआयोग और सुप्रीम कोर्ट के कश्मीर में प्रभावशील होने को मंज़ूरी दी।कश्मीर में प्रवेश परमिट1961में खत्म हो गया।राज्य में 62 के तीसरे चुनाव के बाद ग़ुलाम मोहम्मद सादिक़ 64 में प्रधानमंत्री बने।इसी साल राष्ट्रपति ने अध्यादेश के ज़रिए धारा 356 व 357 कश्मीर में लागू कर दी।राज्य में राष्ट्रपति शासन का रास्ता भी साफ़ हो गया।इस समय शास्त्रीजी प्रधानमंत्री थे।अनुच्छेद 370 छिन्न भिन्न हो चुका था।पर अभी भी काम बाक़ी था।तीस मार्च,65 को विधानसभा ने सर्वानुमति से संविधान संशोधन किया कि सदर ए रियासत का पद राज्यपाल कहा जाएगा।राज्य में प्रधानमंत्री नहीं,बल्कि मुख्यमंत्री होगा।बाद के वर्ष भी 370 के निरंतर सिकुड़ते जाने की कहानी है।मसलन राज्य से लोकसभा सांसद निर्वाचित होने लगे।हाईकोर्ट सुप्रीमकोर्ट के अधीन आ गया।अनुच्छेद 226और 249 लागू हो गए।
यहाँ नेहरू जी के इकोनॉमिक टाइम्स में छपे भाषण का ज़िक्र ज़रूरी है।उन्होंने कहा था,”अनुच्छेद 370 संविधान का स्थाई हिस्सा नहीं है।यह जब तक है,तब तक है।इसका प्रभाव कम हो चुका है।हमें इसे धीरे धीरे कम करना जारी रखना है “।यह निष्कर्ष निकालने में हिचक नहीं कि कांग्रेस पार्टी 370 के समापन में अपने योगदान को ही याद नहीं करना चाहती।