मैं एक चकमक पत्थर
तुम्हारे खयालों में
ख़ुद को समेटे
अक्सर अकेले में मुस्कुरा देता हूँ….
अच्छा लगता है
जब तुम्हारी कविता के
परिशिष्ट में कहीं
ख़ुद के लिए स्थान पाता हूँ
हाँ तुम्हारे अनकहे शब्दों में
अर्थ खोजकर
अक्सर अकेले मुस्कुरा देता हूँ…..
अच्छा लगता है
जब तुम मेरे भावों से निकलकर
शब्दों से मिलकर
रात की आहटों से उठकर
मेरी कविता में रमती हो
तब अक्सर अकेले में मुस्कुरा देता हूँ….
मुझे याद है
मैंने माँगी थीं एक दुआ
कच्चे धागे में बांधे थे
वो खारे सपने
जो देखे थे कभी
रात की कुरकुरी चाँदनी में हमने
हाँ जानता हूँ
यह प्रेम नहीं, वाष्प है
तेरी आँखों की जूठन है
लेकिन फिर भी ना जाने कब
मेरा बरसाती मन
इन्हीं खारे सपनों में
तेरे होटों से लगकर मीठे हो जाता है
पता नहीं चलता
आह अब कोई अहदो-क़रार नहीं है
बस इंतज़ार है
मेरी सख़्त उँगलियों के पोरों को
तेरे ठहरे हुए स्पर्श का….
विवेक बैरागी
मेरठ

👏🏻👏🏻अति उत्तम । बहुत अच्छी कविता है।ह्रदय स्पर्शी👏🏻👏🏻
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