दिमाग की बात
सुधीर निगम
राजनीति में नए नए प्रयोग देखने को मिलते हैं। शाहबानो से लेकर मंडल कमीशन तक हम बहुत प्रयोग देख चुके हैं। अब नए प्रयोग की जमीन तैयार हो गई है। इसकी प्रयोगशाला बना है मध्यप्रदेश। इस प्रयोगशाला में होने वाले प्रयोगों से किसे फायदा मिलेगा , किसे नहीं, ये तो आने वाला वक़्त बताएगा, लेकिन इसके केमिकल रिएक्शन लंबे समय तक अपना असर दिखाएंगे ये तय है। एससी एसटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ उमड़े असंतोष को यूं ही खारिज करना किसी भी दल के लिए आसान नहीं होगा।
अभी तो भाजपा हो या कांग्रेस, दोनों मौन हैं। हालांकि कोई कुछ बोल नहीं रहा, लेकिन इस वक्त कांग्रेस के मन मे जरूर लड्डू फूट रहे होंगे। आखिर कोई भी विरोध होता है तो उसका खामियाजा सत्ताधारी दल को ही भुगतना पड़ता है। सभी नवंबर में होने वाले विधानसभा के चुनावी समर के मद्देनजर अपने गुणाभाग में जुटे हुए हैं। सवर्ण और अन्य पिछड़ा वर्ग के इस विरोध को नजरअंदाज करना किसी भी दल के लिए बहुत भारी पड़ सकता है। प्रदेश में एससी एसटी लगभग 35 फीसदी हैं, वही सवर्ण और अन्य पिछड़ा वर्ग को मिला दें तो उनका प्रतिशत 55 के करीब पहुंच जाता है। अन्य में अल्पसंख्यक हैं।
अब सीधा गणित देखा जाए तो इसमें एससी एसटी और अल्पसंख्यक कभी भाजपा का वोट बैंक नहीं रहा। वह सवर्णों की पार्टी के रूप में अपनी पहचान रखती है और चुनाव भी उसी की बदौलत जीतती है। यही वर्ग अभी विरोध की कमान संभाले है। यदि सवर्ण भाजपा को वोट नहीं देंगे तो आप समझ सकते हैं उसकी डगर कितनी कठिन होने वाली है। भले ही अधिकतर सवर्ण कांग्रेस को वोट न दें, लेकिन उसका कमिटेड वोटर तो उसके पास ही रहेगा और सवर्ण भाजपा से नाराज हो गए, जैसा कि दिख रहा है, तो कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण दिखाई देती है।
दूसरा बसपा भी इस प्रयोगशाला में होने वाले प्रयोगों पर नजर रख रही होगी। वह अपने वैज्ञानिकों को इससे पैदा होने वाले ‘केमिकल लोचे’ का लाभ उठाने के लिए तैयार कर रही होगी। हालांकि प्रदेश में उसका बहुत ज्यादा जनाधार नहीं है, लेकिन वो कई सीटों पर खेल तो बिगाड़ ही सकती है। भाजपा भी ये जानती है और उसकी कोशिश होगी कि कांग्रेस और बसपा में समझौता न हो।
जातिवाद की प्रयोगशाला बने मध्यप्रदेश में होने वाले प्रयोगों की आंच अगले साल के लोकसभा चुनावों पर भी अच्छा खासा असर डालेगी। इन प्रयोगों से होने वाले केमिकल रिएक्शन से किसके हाथ जलते हैं और किसके हाथ नया फॉमूर्ला लगता है, इसके लिए नवंबर तक इंतजार करिए। ‘माई के लाल’ से शुरू हुआ ये तमाशा किसे माई बाप बनाता है ये देखना होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है