शशी कुमार केसवानी
अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री लीला मिश्रा का जन्म 1 जनवरी 1908 को हुआ था। इनके पिता उत्तर प्रदेश के एक गांव के बहुत बड़े जमींदार हुआ करते थे। अमीर घराने में पैदा होने के बाद भी लीला को शिक्षा-दीक्षा नहीं मिल सकी। इसके पीछे वजह थी, लीला के घरवालों की दकियानूसी सोच और विचार। इसी वजह से लीला की शादी भी बहुत जल्द हो गई थी। मात्र 12 वर्ष की उम्र में लीला की शादी बनारस (वाराणसी) में रहने वाले शख़्स राम प्रसाद मिश्रा से कर दी गई थी। शादी के कुछ ही सालों के भीतर लीला मिश्रा मां बन चुकी थीं। अपनी जिंदगी के 17 वर्ष पूरे होने तक लीला मिश्रा दो बच्चों की मां बन गईं थीं। उनकी दो बेटियां थीं। वह रायबरेली (उत्तर प्रदेश) से आती थीं, वह और उनके पति जमींदार परिवारों से थे। राम प्रसाद का स्वभाव आजाद किस्म वाला था, वह ज्यादा किसी पर दबाव नहीं बनाते थे। लीला को भी उन्होंने अपने फैसले लेने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता दे रखी थी। लीला के पति राम प्रसाद का अक्सर बॉम्बे (मुंबई) आना-जाना लगा रहता था। यहीं पर वह कश्मीरी नाटकों में काम किया करते थे। बॉम्बे में ही राम प्रसाद के एक मित्र भी रहते थे, जो कि ‘दादा साहब फाल्के’ की फिल्म कंपनी में काम करते थे। एक दिन जब वह राम प्रसाद के घर आए, तो उन्होंने लीला को देखकर राम प्रसाद से उन्हें फिल्मों में काम करने को लेकर सलाह दी। पहले तो राम प्रसाद ने सिरे से इनकार कर दिया, मगर बाद में वो मान गए थे। अपने मामा शिंदे की बात को मानकर राम प्रसाद व लीला दोनों ही बॉम्बे के लिए रवाना हो गए थे।
जहां पहुंचकर दोनों ने अपनी अदाकारी शुरू की और फिल्मों में काम मांगने के लिए जाने लगे। इन दोनों की पहली फिल्म साल 1936 में एक साथ आई थी, जिसका नाम ‘सती सुलोचना’ था। इसमें राम प्रसाद ने रावण का किरदार निभाया था, तो लीला ने मंदोदरी का रोल अदा किया था। इसके लिए राम प्रसाद को 150 रुपए महीना मिला था, तो लीला मिश्रा को 500 रुपए महीना की प्राप्ति हुई थी। इसके पीछे का कारण था- उस दौर में महिलाओं का फिल्मों में काम न करना। वह ऐसा दौर था, जब बोलती हुई फिल्में बनती थीं और उन मूवीज में महिलाओं के किरदार भी पुरूष ही निभाया करते थे। लीला मिश्रा ने 1975 में रिलीज हुई फिल्म शोले में बसंती की मौसी का रोल निभाया था। रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी इस फिल्म ने उन्हें देशभर में मशहूर कर दिया था। शोले की कहानी, कलाकार, डायलॉग और गाने सब कुछ अमर हो गए थे, और उन्हीं के साथ अमर हो गया था लीला का निभाया किरदार मौसी। लीला के बोलने का तरीका, उनका चिंता जताना और जय के साथ उनकी बातचीत सबकुछ दर्शकों पसंद आया था। हालांकि फिल्म में उनका सबसे यादगार सीन वो रहा, जिसमें वीरू यानी धर्मेंद्र टंकी पर चढ़कर मौसी जी को मर जाने की धमकी देता है। 17 जनवरी को लीला मिश्रा की डेथ एनिवर्सरी होती है। लीला मिश्रा ने अपने करियर में 200 से ज्यादा फिल्में की थीं और कई यादगार किरदार निभाए थे। उनके करियर की शुरूआत 40 के दशक में हुई थी। बॉलीवुड में यूं तो कई एक्टर्स हर साल आते हैं, लेकिन कम ही होते हैं जो इंडस्ट्री में अपने कदम जमा पाते हैं। पुराने जमाने में भले ही बॉलीवुड में काम मिलना लोगों के लिए कुछ हद तक आसान था, लेकिन इंडस्ट्री में जमे रहना और अपने अभिनय से दर्शकों के बीच जगह बना पाना तब भी उतना ही मुश्किल था जितना आज है, लेकिन फिर भी ऐसे कई कलाकार आए जिन्होंने ना सिर्फ बढ़िया काम किया बल्कि अपने किरदारों और अभिनय के चलते अमर हो गए। उन्हीं में से एक अदाकारा रहीं लीला मिश्रा। गंगावतरण दादा साहब फाल्के की एक मात्र सवाक फिल्म थी।
जैसा कि सभी जानते हैं, भारतीय सिनेमा की प्रथम (मूक) फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने वाले फाल्के दादा थे। गंगावतरण उनकी अंतिम फिल्म साबित हुई और लीला मिश्रा के लिए भी। क्योंकि उस कंपनी के साथ अनुबंध समाप्त हो गया था। अब काम नहीं होने के कारण तथा अपनी प्रथम संतान के जन्म के लिए गर्भवती लीला मिश्रा और उनके पति वापिस बनारस चले गए। यानि अपनी जिन्दगी में मां बनने से पहले मौसी ने पर्दे पर अपने से बड़ी उम्र के कलाकारों की माता की भूमिका करना शुरू कर दिया था। प्रथम संतान बेटी के जन्म के बाद फिर से काम ढूंढने का प्रयत्न किया कलकत्ता में और फिल्म कारपोरेशन आॅफ इन्डिया में नौकरी मिल गई। यहां उन्होंने चित्रलेखा जैसी कुछ फिल्में की। मगर उसी दौरान विश्व युद्ध हुआ और सारी गतिविधियां ठप्प हो गईं। वापिस बनारस आ गए। परंतु, अब तीन बच्चों (दो बेटियां और एक बेटे) वाला परिवार था। फिर से रुख किया बम्बई का। अब की बार काम आये बनारस के कैमरामैन केजी जिन्होंने लीला चिटणीस से मिलवाया। मौसी अपने परंपरागत तरीके से लंबा घूंघट निकालकर स्टुडियो पहुंची। तब के.जी. ने उन्हें समझाया और अपना चेहरा दिखाकर इन्टरव्यू दिया। लीला चिटणीस ने अपनी साथी कलाकार के रूप में किसी से न कहना के लिए लीला मिश्रा को पसंद किया। तब से मुंबई की फिल्मों में मौसी का जो सफर शुरू हुआ वो अंत तक जारी रहा। मगर साड़ी से अपने सर को ढके रखने का उनका भारतीय अंदाज बहुधा फिल्मों में बरकरार रखा। मौसी की याद आते ही अपने सर को ढंकने के लिए साड़ी को ठीक करती प्रौढ़ महिला ही नजरों के सामने आती है। उनके बोलने का अंदाज भी बनारसी था। आज भी याद है नूतन और सुनिल दत्त की मिलन में जब वे जमुना को अंतिम दृश्यों में कहतीं हैं, कलमुही तुने जो आग लगाई है उस में तु तो जलेगी ही, मगर वो दोनों भी भसम हो जायेंगे।
ये भस्म की जगह भसम बोलना लीला मिश्रा का अनोखा देहाती अंदाज था। इस लिए भारतीय पृष्ठभूमि की फिल्में बनाने वाले राजश्री प्रोडक्शन की तो लीला मिश्रा जैसे स्थायी सदस्या थीं। राजश्री की फिल्में गीत गाता चल, सौदागर, दुल्हन वोही जो पिया मन भाये, सावन को आने दो, सुनयना, अबोध की वे हिस्सा थीं। लीला मिश्रा की अन्य फिल्मों में शामिल हैं, चश्मे बद्दूर, आमने सामने, पलकों की छांव में, बैराग, किनारा, कथा, खुशबू, सदमा, जय संतोषी मां, बड़ा कबूतर, बातों बातों में, मेहबूबा, मां का आंचल, अन्नदाता, हनीमून, प्यासा, आवारा, अनमोल घड़ी, दाग, लाजवंती, लीडर, दोस्ती, रात और दिन, धरती कहे पुकार के, अमर प्रेम, सुहाना सफर, लाल पत्थर, मेरे अपने, परिचय इत्यादि। इतनी सारी फिल्मों में काम करने के बावजूद लीला मिश्रा काफी हीरो-हीरोइन को पहचान नहीं पाती थी क्योंकि वे न तो फिल्में देखा करती थी ओर न ही फिल्मी मैग्जीन पढ़ती थी। उन्होंने खुद 1978 के एक साक्षात्कार में बताया था कि दुश्मन की शूटिंग के पहले दिन राजेश खन्ना को वे पहचान नहीं पाई थी। लेकिन उस जमाने के कई युवा अपनी मां या मौसी के रूप में लीला मिश्रा जैसी महिला की छाया देखा करते थे और कई महिलाओं के लिए वे हमेशा पे्ररणास्त्रोत रही। कई महिलाएं तो उनकी फिल्मी देखकर उनको कॉपी भी किया करती थी।
जय हो….