नागिन की तरह पार्टियां भी खा जाती हैं नेताओं को

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राघवेंद्र सिंह

एक कहावत है नागिन अपने ही बच्चों को खा जाती है। कहा जाता है कि नागिन जब मां बनती है और अंडे देती है उस समय उसे भूख भी बहुत तेज लगती है। ऐसे में अंडे फोड़कर बाहर निकले बच्चों को भी वह खाने लगती है। इस घटनाक्रम में जो तेज भागता है वह बच निकलता है। सियासत में भी अक्सर पार्टी हाईकमान आंख की किरकिरी जो कार्यकर्ता और लीडर बनते हैं अक्सर उन्हें वही पार्टी खा जाती है जिसे मंच से अपनी मां कहते कहते वे थकते नहीं हैं।
Like the serpent, parties also eat the leaders
अलग बात है कि कई बार राजनीति में जब नेताओं का कद पार्टी या उनके आकाओं से बड़ा हो जाता है तो आमतौर से उनके कद छांट दिये जाते हैं या पार्टियां नागिन की तरह उन्हें ही खा जाती है। थोड़ा कम ज्यादा ऐसा हर एक पार्टियों में होता देखा गया है। खासतौर से जब पार्टियां सत्ता में होती हैं तब ऐसा देखने को खूब मिलता है।

दिल्ली से शुरू करें तो भाजपा ने अटलजी के लक्ष्मण कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी समेत उनकी कद काठी के सभी नेताओं को हाशिए पर डाल रखा है। उनके साथ मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा के नाम सबसे ऊपर हैं। कहा जा सकता है ये सत्ता की भूखी नागिन का शिकार हो गए। लंबे समय से बीमार और फिर कोमा का शिकार हुए पूर्व केन्द्रीय मंत्री जसवंत सिंह सुनने समझने की हालत में नहीं होने के कारण थोड़ा भाग्यशाली हैं क्योंकि उन्हें नहीं पता कि जो कभी पार्टी की संपत्ति थे आज वे बोझ हो गए हैं।

आज के दौर में तो भारत रत्न अटलजी का भी बेसुध होना एक तरह से अच्छा ही है जिस तरह की उपेक्षा का दौर चल रहा है शायद वे उसे सह नहीं पाते। राजनीति के अर्जुनों के साथ आज के कृष्ण उपेक्षा का विष खूब देते हैं। नब्बे के दशक में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को शपथ लेने के दूसरे ही दिन आतंक से जल रहे पंजाब का राज्यपाल बना दिया गया था। इसे उनकी राजनीतिक हत्या भी कहा गया था।

अलग बात है कि सियासत के ये अर्जुन पंजाब के चक्रव्यूह से न केवल निकले बल्कि दिल्ली से लोकसभा का चुनाव लड़ केन्द्र में मंत्री बने और फिर लंबे समय तक राजनीतिक पारी खेली। मगर ऐसे कितने अर्जुन हैं। जिन्हें नागिन की तरह पार्टी हाईकमान ने खाने की कोशिश की और वे न केवल बचे बल्कि ठप्पे के साथ राजनीति करते रहे। मध्यप्रदेश की ताजा राजनीति पर आते आते भूमिका कुछ लंबी लग सकती है। मगर आज को जानना है तो बीते कल के पन्ने भी पलटने चाहिए।

मध्यप्रदेश में तेरह साल के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने कार्यकाल में दो बार भाजपा को अपने नाम और चेहरे की दम पर सरकार में ला चुके हैं। कह सकते हैं कि पहले विपक्ष का नेता रहा शिवराज सत्ता के तेरह साल भी सफलता पूर्वक पार कर गए। उज्जैन सिंहस्थ के बाद मुख्यमंत्री का पद से हटना तय माना जाता था इस मिथक को भी शिवराज ने तोड़ दिया। पिछले साल अगस्त में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था कि अगला चुनाव शिवराज के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। लेकिन 2018 मई चार जून के आते आते अमित शाह की भाषा बदल गई। यहीं से शुरू होता है आदमकद होते शिवराज के कद को काटने छांटने और घटाने का सिलसिला।

अमित शाह कहते हैं अब कोई चेहरा नहीं बल्कि संगठन चुनाव लड़ेगा। जिस शिवराज ने दो चुनाव जिताए वो 2018 में पार्टी के लिए अप्रासंगिक होने लगा। गुटबाजी और हाईकमान के लिए चुनौति बनने की आशंका के साथ सत्ता की भूख से बिलबिलाता नेतृत्व अपने द्वारा पैदा किए लीडर को खाता हुआ दिखने लगा। राजस्थान में भी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया नेतृत्व के निशाने पर हैं। वहां राजे की मर्जी के खिलाफ प्रदेश अध्यक्ष को बदल दिया गया। मगर उनके अड़ियल रुख के कारण मोदी-शाह की टीम नए अध्यक्ष घोषित नहीं कर पा रही है। यहां भी हम कहेंगे जिस वसुंधरा राजे के नाम पर पार्टी ने पिछला विधानसभा चुनाव जीता था अब चुनाव के ऐन पहले उनपर अविश्वास पार्टी के लिए ही घातक होगा।

हम आज नतीजे पर चर्चा नहीं कर रहे हैं लेकिन नेतृत्व किस तरह से अपने ही बच्चों को खाने की कोशिश करता है उस पर बात कर रहे हैं। अगर वसुंधरा राजे चुनाव के लिए बेहतर नहीं हैं तो उन्हें समय से पहले बदल दिया जाना चाहिए था उनकी राजनीतिक हत्या किए बिना। लगता है बीजेपी आलाकमान ऐसा करने से राजस्थान में बार बार चूकता रहा है। एक समय वहां पार्टी ओमप्रकाश माथुर को कमान सौंपने वाली थी मगर महारानी के विरोध के चलते मंशा पूरी नहीं हो पाई।

मध्यप्रदेश में चुनाव के छह माह पहले अमित शाह का शिवराज को पार्टी का चेहरा नहीं बनाने का ऐलान संगठन के लिए भी नुकसानदेह है। दरअसल हाईकमान ने निर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार चौहान को हटाकर चुनावी साल में एक जोखिम भरा फैसला लिया है। अध्यक्ष को पूर्व में भी बदला गया है जैसे प्रभात झा के स्थान पर नरेन्द्र सिंह तोमर । यहां देखने वाली बाते ये है कि जो अध्यक्ष आ रहा है उसका कद कितना बड़ा है और कार्यकर्ताओं में उसकी कितनी स्वीकार्यता है।

यहां राकेश सिंह एक संभावनाशील अध्यक्ष हैं, मगर उन्हें स्थापित करने के लिए और वक्त लगेगा। चुनावी साल में पार्टी में काम करने वाले और कान भरने वाले नेताओं के बीच राकेश सिंह को खुद बचना चुनौतिपूर्ण काम होगा। इसके चलते अमित शाह और उनकी टीम को बार बार मध्यप्रदेश आना पड़ेगा। जिस शिवराज और राकेश सिंह में दो शरीर एक जान जैसा समन्वय होना था उनके बीच कान भरने वालों की सक्रियता नदी के दो किनारे बनाने में लगी है। इसके साथ भाजपा के चुनावी किचिन में कई रसोईये घुसपैठ कर गए हैं और कुछ चुनावी प्रबंधन की मलाई के लिए दरवाजे पर तैयार खड़े हैं।

यहां स्वर्गीय अनिल दवे याद आ रहे हैं। वे जो भी काम करते थे उसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं होता था। प्रबंधन से लेकर भुगतान तक में। उनके द्वारा प्रशिक्षित कुछ नेता हैं मगर धनुष उनके हाथ में है तो प्रत्यांचा कोई और खींच रहा है। ऐसे में निशाने तो चूकेंगे और उसके लिए जिम्मेदारी भी तय नहीं हो पाएगी। कहावत है ज्यादा रसोईये हों तो खाना खराब हो जाता है। खांटी भाजपाई ये उम्मीद कर रहे हैं कि ऐसा कुछ जरूर होगा जिससे न तो खराब हो और न अपने ही बच्चों का पार्टी खाए।

कमलनाथ – दिग्विजय की जुगलबंदी
मध्यप्रदेश कांग्रेस की कमान कमलनाथ के हाथ आने का असर दिखने लगा है। नेतृत्व में गंभीरता के साथ कार्यकर्ताओं के बीच विश्वसनीयता का माहौल बनता दिख रहा है। राष्ट्रीय महासचिव पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की समन्वय यात्रा कार्यकर्ताओं में करेंट ला रही है। कमलनाथ का प्रबंधन और दिग्विजय सिंह के समन्वय से पार्टी में एकता के सुर निकलने लगे हैं। दोनों नेताओं की जुगलबंदी चुनाव तक चली तो कांग्रेस और भाजपा का मुकाबला कांटे का हो जाएगा।

दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे समन्वय के मामले में पीएचडी हैं। इसका सबूत तब देखने को मिला जब पीव्ही नरसिंहाराव प्रधानमंत्री और दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उस समय अर्जुन सिंह ने कांग्रेस छोड़कर तिवारी कांग्रेस का गठन किया था। अर्जुन सिंह को दिग्विजय अपना गुरू मानते हैं तब उनकी सरकार में अर्जुन सिंह के करीब एक दर्जन कट्टर समर्थक हुआ करते थे। उनकी बगावत से दिग्विजय सरकार के संकट में आने का खतरा पैदा हो गया था ।

लेकिन समन्वय के इस उस्ताद ने अर्जुन सिंह और उनके समर्थकों के साथ ऐसा तालमेल बैठाया कि वे सरकार में भी रहे , मंत्रीगण अर्जुन सिंह से मिलते भी रहे और राज्य में दिग्विजय सिंह की सरकार चलती भी रही। इससे भी बड़ी बात दिग्विजय सिंह राव साहब के भरोसेमंद भी बने रहे। एक बार उनकी इस विलक्षणता को देखकर राव साहब ने दिग्विजय सिंह को सव्यसांची की उपाधि दी थी। दरअसल महाभारत में सव्यसांची अर्जुन को कहा गया है। जो दोनों हाथ से समान रूप से बाण चलाए उसे सव्यसांची कहा जाता है। इस समय दिग्विजय सिंह लगता है फिर उसी भूमिका में हैं। नाराज और निराश कांग्रेसियों को वे सक्रिय करने में जुटे हैं।

लेखक IND24 के प्रबंध संपादक हैं