मध्यप्रदेश – दिग्विजय रिटर्न…

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 राघवेन्द्र सिंह
मध्यप्रदेश कांग्रेस की सियासत में चौदह वर्ष का सूखा लगता है अब समाप्ति की ओर है। वजह है कभी भाजपा द्वारा मिस्टर बंटाढार के नाम से कुख्यात किए गए तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह बेड़ापार की भूमिका में नजर आना । कांग्रेस कार्यकर्ताओं के हिसाब से अब वे मुस्कुरा सकते हैं क्योंकि दिग्विजय सिंह लौट आए हैं। 9 अप्रैल को दिग्विजय सिंह 33 सौ किलोमीटर लंबी नर्मदा परिक्रमा बरमान घाट पर पूरी कर रहे हैं। इसके बाद वे प्रदेश की राजनीतिक यात्रा पर भी निकलने वाले हैं। पूर्ण धार्मिक रीतिरिवाज से पूरी हो रही नर्मदा परकम्मा के दौरान उनका सिर भी नहीं दुखा और सबकुछ निर्विध्न संपन्न होने जा रहा है।

इसे मां नर्मदा पट्टी के लोग उन पर माई की कृपा के रूप में देख रहे हैं। पूरे मामले का निष्कर्ष यह है कि कल तक जिन दिग्विजय सिंह को उनके विरोधी खासतौर से भाजपाई मुल्ला दिग्विजय सिंह कहा करते थे अब वे भी धर्म के मामले में उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। कह सकते हैं पांसा पलट रहा है और 1993-94 में कांग्रेस की सरकार बनाने वाला यह नेता फिर मैदान में है। वालीबुड की भाषा में कहें तो ये दिग्विजय रिटर्न है। कांग्रेसी मुस्कुराएंगे और भाजपाई इस हीरो को रोकने की नई रणनीति बनाएंगे।

नर्मदा परिक्रमा क्षेत्र में करीब एक सौ 14 विधानसभा सीटें आती हैं और सरकार बनाने बिगाड़ने में यहां के मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। दिग्विजय सिंह की यात्रा ने भाजपा के साथ कांग्रेस के भी अंदरूनी बदल दिए हैं। नर्मदा पुत्र मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी धर्म आधारित राजनीति करने वाली भाजपा भी इस नेता की यात्रा से भंवर में है। नया इंडिया के प्रधान संपादक हरिशंकर व्यास, मध्यप्रदेश संपादक जगदीप सिंह बैस और मुझ समेत अनेक राष्ट्रीय पत्रकारों की जिज्ञासा ने दिग्विजय की नर्मदा परिक्रमा को नजदीक से देखा।

आम तौर से सबका निचोड़ यही निकला कि यात्रा समाप्ति के बाद कांग्रेस का यह नेता बदले हुए मानकों पर आधारित राजनीति करेगा। 70 पार के दिग्विजय सिंह को लेकर राज्य का मानस बदला बदला सा है। कल तक जो बंटाढार के नाम से उन्हें कोसते थे अब वे उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। बस यहीं से उनको लेकर भाजपा में होती है चिंता की शुरुआत। कांग्रेस में प्रदेश नेतृत्व कमजोर और कार्यकर्ता बिखरे बिखरे हैं। कमोवेश यही हालत सत्ता में होने के बावजूद भाजपा की है। दोनों पार्टियों में नेतृत्व बदलने की बात हो रही है। अनिश्चितता के चलते चुनावी वर्ष होने पर भी दोनों दल जमीनी स्तर पर कम सक्रिय हैं। भाजपा में नए प्रदेश अध्यक्ष और प्रभारी की प्रतीक्षा में एक तरह से सुस्ती छाई हुई है।

दूसरी तरफ कांग्रेस में भी हाल कुछ अच्छे नहीं हैं। लेकिन दिग्विजय सिंह की सफल यात्रा को लेकर कांग्रेसी जरूर उत्साहित हैं। नर्मदा परिक्रमा के समापन पर बरमान घाट में होने वाले आयोजन को प्रभावित करने के लिए अफसरों ने बांध से इतना पानी छोड़ा कि पार्किंग स्थल भी इसकी चपेट में आ गए। किसी भी सरकार में ये नौकरशाही का निर्णय हो सकता है। मुख्यमंत्री या सत्ताधारी दल को खुश करने के लिए। लेकिन जनता में इससे कांग्रेस और दिग्विजय सिंह के प्रति सहानुभूति और भी गहरी हो सकती है। ऐसे ही छोटे बड़े निर्णय सत्ता को गड्ढे में ले जाते हैं। कभी दिग्विजय सिंह की सरकार में भी दलित एजेंडे जैसे मुद्दों ने सड़क बिजली पानी विहीन राज्य में कांग्रेस के ग्राफ को नीचे किया था।

लोगों को याद होगा अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद हुए दंगों के कारण मध्यप्रदेश समेत उत्तर प्रदेश और राजस्थान की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गई थीं। 1991 में हुए इस घटनाक्रम के बाद भाजपा सरकार से हटाए जाने पर शहीदी मुद्रा में थी और चुनाव में उसकी जीत पक्की मानी जा रही थी। तब मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष दिग्विजय सिंह ने राज्य की यात्रा की थी और चुनाव में जीत को पक्का मान रही भाजपा को पराजित किया था। लगभग 25 साल बाद दिग्विजय सिंह फिर उसी भूमिका में हैं। फर्क इतना है कि वे आज प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नहीं हैं लेकिन उनकी यात्रा ने कांग्रेस के सारे सूत्र उन्हीं के इर्दगिर्द समेट दिए हैं। अब दिग्विजय सिंह के बिना प्रदेश की राजनीति संभव नजर नहीं आती।

ये सब बातें दिग्विजय सिंह की प्रशंसा में होती हुईं लग सकती हैं लेकिन जमीनी सच्चाई इसी के आस पास है। नया इंडिया ने पहले भी लिखा है कि भाजपा मध्यप्रदेश में कांग्रेस के किसी नेता को चुनौती मानती है तो वह दिग्विजय सिंह हैं। इसी तरह कांग्रेस भी भाजपा में किसी से भय खाती है तो वह शिवराज सिंह हैं। लेकिन अब समय बदल रहा है हालात उलट पुलट हो रहे हैं। संयोग से दिग्गी राजा का ग्राफ बढ़ रहा है और शिवराज का ग्राफ खिसकता दिख रहा है। लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले नेताओं पर मशहूर शायर हबीब जालिब का ये शेर बड़ा मुफीद है…
तुझसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख्त नशीं था,
उस को भी अपने खुदा होने पे इतना ही यकीं था।

कह सकते हैं 2003 में यह शेर दिग्विजय सिंह पर लागू होता था और अब शिवराज सिंह पर। सुविधा के तौर पर लोग इसे भाजपा और कांग्रेस के नजरिए से भी देख सकते हैं। इस सबसे अलग दिग्विजय सिंह अब पूरे फार्म में हैं और अप्रैल के अंत तक वे 230 विधानसभा सीटों में से मध्यप्रदेश की 166 भाजपा द्वारा जीती गई सीटों की यात्रा करेंगे। अगर ऐसा होता है तो माना जाएगा कि उन्होंने भाजपा के खिलाफ निर्णायक लड़ाई शुरू कर दी है। इसमें प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व उनके साथ काम करता हुआ दिखाई देगा। इसका मतलब वे अघोषित ही सही प्रदेश कांग्रेस के लीडर के रूप में फिर से स्थापित हो गए हैं और कांग्रेस का बेड़ा उनके बिना पार नहीं होगा।

सरकार ने छुआ और संत पत्थर हो गए…
कहा जाता है कि सरकार जिस चीज को छू ले उसका खुदा हाफिज। जब हम छोटे थे तब एसीसी सीमेंट और कैरोसीन का संकट था । सरकार ने उसका नियंत्रण किया तो फिर वे लाईन लगाकर खरीदी जाती थी। भाजपा सरकार ने पहले कहा कि हम खेती को लाभ का धंधा बनाएंगे । इसके बाद उत्पादन को रिकार्ड हुआ मगर किसान आत्महत्या करने लगा। नर्मदाजी को बचाने के लिए सेवा यात्रा शुरू हुई तो पता चला कि नर्मदाजी सूखने लगीं।

अब पिछले दिनों नर्मदा घोटाला उजागर करने के लिए यात्रा शुरु करने वाले पांच संतों को सरकार ने छूकर राज्यमंत्री का दर्जा क्या दिया संत समाज औऱ आमजनता के साथ सियासी जगत में उनकी आलोचना शुरू हो गई। भाजपा में ही इसे लेकर भारी विरोध है। ऐसा लगता है सरकार का दांव उलटा पड़ गया। लेकिन संतों के हिसाब से भी ये दांव उनके लिए भी सीधा नहीं है। राज्यमंत्री का दर्जा तो संतों को मिला मगर संतों की गरिमा घट गई। कुल मिलाकर सरकार ने एक तीर से दो शिकार कर लिए। दर्जा प्राप्त संत घोटाला उजागर करने के बजाए सरकार के पक्ष में घूमेंगे और विरोध के चलते राज्यमंत्री का दर्जा लौटाया तो दोऊ दीन से गए पांड़े, हलुआ मिला न माड़े। निष्कर्ष यह है कि समाज को बदलने वाले पारस रूपी संत सरकार के छूते ही अब पत्थर के हो गए हैं।

(लेखक IND 24 के समूह प्रबंध सम्पादक हैं।)