डॉ कीर्ति काले, कवियित्री
जब ये वीसीआर खरीदा था उससे भी बहुत पहले के दिन।बचपन से किशोर होते हुए सपनों के दिन। मनोरंजन के साधन बहुत कम थे। सिनेमा ही मनोरंजन का सबसे सशक्त और सुलभ माध्यम था। लेकिन सिनेमा देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं ये भी डर था दहशत की हद तक बुजुर्ग लोगों में। महीने दो महीने में टॉकीज में सिनेमा देखने का कार्यक्रम बनता था। उसमें भी ‘जय संतोषी माँ’ जैसी धार्मिक फिल्म का ही चुनाव किया जाता था। ‘लैला मजनू’ टाइप की फिल्में देखना वर्जित था। ग्वालियर में चार पाँच ही टॉकीजें थीं।यादव टॉकीज,डिलाइट टॉकीज,चित्रा टॉकीज,रीगल टॉकीज,रॉक्सी टॉकीज,ग्वालियर टॉकीज,भारत टॉकीज।हरिनिर्मल टॉकीज ब्राण्ड न्यू बनी थी तब।
हाँ तो जब वीसीआर नया नया आया था तब किसी विशेष अवसर पर किराए पर मंगवाया जाता था। वीसीआर के साथ छोटी स्क्रीन वाला टीवी भी लाया जाता था।रात भर के लिए किराए पर लाते थे वीसीआर।
तीन फिल्मों के कैसेट के साथ। फिल्म देखो या मत देखो किराया पूरा देना पड़ता था।किसी व्रत, उपवास के समय जब सामूहिक रात्री जागरण करना होता था तब वीसीआर लेकर आते थे।हरतालिका तीज, मंगलागौर जैसे विशेष अवसरों पर तो वीसीआर पर फिल्में देखते हुए जागरण करने का प्रचलन जोर पकड़ रहा था। परिवार बड़ा था,सारे रिश्तेदार भी ग्वालियर में ही थे (हैं) सो किसी न किसी के यहाँ कुछ न कुछ समारोह होता ही रहता था।साखरपुड़ा, वचन सुपारी (रोकना,सगाई),शादी से लेकर डोहाळ जेवण (गोद भराई),बारस (बच्चे का नामकरण),जावळ (मुण्डन),मुंज (यज्ञोपवीत),हळदी कुमकुम,गुलाबाई आदि आदि आदि।
बहुत पहले के बचपन की धुंधली सी याद है।तब भजन कीर्तन करते हुए रात्री जागरण होता था।बाई (दादी) की सहेलियाँ झांझ बजाते हुए समवेत स्वरों में बिना रुके एक के बाद एक निर्बाध रूप से भजन गाती थीं।हम सब लोग तल्लीनता से सुनते थे।बिना किसी विशेष वाद्ययंत्र के केवल भक्तिमय स्वरों द्वारा ऐसा अलौकिक वातावरण निर्मित हो जाता था कि स्वर्ग से देवतागण भी पृथ्वी लोक पर उतरने के लिए बाध्य हो जाते होंगे।
भजन के साथ साथ महिलाओं की आपस में हँसी ठिठौली भी चलती थी। मुझे याद है कि कितनी ही देर भजन गाएँ बाई (दादी) की सहेलियाँ लेकिन न तो बीच में पानी पीती थीं न मिश्री विश्री ही खाती थीं। तड़के ब्रहमूहूर्त से लेकर रात तक पूरे दिन भर चक्की पीसने,पानी भरने,से लेकर झाड़ू,लिपाई,चूल्हा चौका आदि कार्यों में अनथक परिश्रम करने वाली इन महिलाओं में सखियों के साथ सामूहिक भजन गाने से नयी ताज़गी आ जाती थी। कुल मिलाकर परमआनन्द बरसता था।
फिर आया वीसीआर का चलन।रात भर के किराए पर।तीन फिल्में देखने की बाध्यता।क्योंकि देखो या मत देखो पैसे तो पूरे देने ही हैं। पैसे देने हैं तो पूरे वसूल करो।
आँगन में दरी और फर्श बिछाकर पहले से तैयारी की जाती थी। मुहल्ले भर को पता चल जाता था कि आज भागवत साहब के यहाँ वीसीआर आने वाला है।सो सब लोग खा पीकर भागवत साहब के बाड़े में बुलाए, बिना बुलाए हाज़िर हो जाते थे।मान ,अपमान तब अभी जैसा नहीं था।किसी ने कुछ कह भी दिया, कुछ पूछ भी लिया कि तुम यहाँ कैसे? तो बता दिया कि हम यहाँ ऐसे। टारगेट ओरिएंटेड थे पड़ौसी। वीसीआर पर फिल्में देखनी हैं ये टारगेट है तो फिर उसके लिए थोड़ी पूछताछ हो जाए तो कोई बात नहीं।सब अपने ही लोग हैं।
एक बार हरितालिका तीज की रात में जागरण के निमित्त वीसीआर लाया गया।तीन फिल्में थीं – शोले, मुकद्दर का सिकन्दर और अमर प्रेम। टीवी का डिब्बा एक ऊँचे टेबल पर सैट करके वीसीआर का कनेक्शन लगाया गया। वीसीआर में कैसेट उलट पुलटकर डाली गई लेकिन टीवी स्क्रीन पर झिलमिल झिलमिल बिन्दियाँ आती रहीं। सबने ट्राई किया लेकिन स्क्रीन पर पिक्चर नहीं दिखी।रात के नौ से दस बज गए।कभी थोड़ी सी झलक दिखती थी फिर बिन्दियाँ नाचने लगती थीं। वीसीआर मेरे फुफेरे भाई ने लाया था।
सब उसपर बरसने लगे।उसकी ए टू ज़ेड सारी कमियाँ गिना दी होंगी इस दौरान।वो बड़बड़ाता हुआ बाहर जाकर वीसीआर वाले लड़के को लेकर आया।उस लड़के ने टीवी के पीले सफेद तार उलट पुलटकर फिट किए और फिल्म चालू। इतनी प्रतीक्षा के उपरान्त अमिताभ बच्चन जी महाराज की सूरत दिखाई दी तो ऐसा लगा कि साक्षात भगवान के दर्शन हो गए हैं।सब लोग सतर्क होकर बैठ गए।
वीसीआर वाले लड़के ने फिल्म को रिवर्स किया तो सब जल्दी जल्दी उल्टे उल्टे चलते हुए दिखे।घच्चपच्च घच्चपच्च घुड़ुप पुड़ुप जैसी तेज तेज आवाज के साथ उल्टी फिल्म देखने में तो इतना मज़ा आया कि क्या बताऊं। फिर शुरूआत से फिल्म चालू हुई। केन्द्रीय फिल्म निर्माण बोर्ड और सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट के साथ।रात के दस बजे तक हम बच्चों को नींद आने लगी। छोटे बच्चे तो फर्श पर ही लुढ़क गए। बड़े थोड़ी देर बाद सुराही से पानी पीते हुए अन्दर से तकिया और हाथ का पंखा ले आए।तकिए का सहारा लेकर अधलेटी मुद्रा में शोले के ठाकुर,जय बीरू के डायलॉग्स का आनन्द लेते हुए बसन्ती की चटकीली अदाओं पर फिदा होते रहे।जब बीरू ने बसन्ती से कहा – बसन्ती इन कुत्तों के सामने मत नाचना और गब्बर ने काँच की बोतलें बसन्ती के पैरों के पास फेंकते हुए अपनी ठसक भरी आवाज में बोला –
“जब तक तेरे पैर चलेंगे तब तक तेरे यार की साँस चलेगी”,तब वीसीआर पर फिल्म देखने वालों का कलेजा धक्क रह गया।काँच के टुकड़ों पर बसन्ती ने नाचना क्या शुरू किया सारे दर्शकों की साँसें हलक में अटक गईं।आँखों से बहती अश्रुधारा को महिलाएँ अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछती हुई अपने आप में सिमट गईं।बीच बीच में एकाध सिसकी भी संयम की दीवार को तोड़ती हुई सुनाई दे जाती थी। पुरुषों की स्थिति भी कमोवेश यही थी। लेकिन पुरुषों का रोना निषेध है हमारे समाज में सो सामाजिक मर्यादा का पुरुषोचित पालन करते हुए वो मन ही मन रोते हुए भी प्रत्यक्षत: हँस रहे थे।कितने कठिन नियम हैं न पुरुषों के लिए।रोना आए भी तो रो नहीं सकते। महिलाओं को अपने दुख दर्द पर रोने की छूट है जबकि पुरुषों को सदा कठोर बने रहने की सज़ा। खैर
एक फिल्म तो आराम से मज़े लेकर देखी।पहली फिल्म की जब तक कैसेट बदली जा रही थी तब तक सब नम्बर बाई नम्बर पेशाब पानी हो आए।अब दूसरी फिल्म मुकद्दर का सिकन्दर।आँखों में नींद भरी हुई।बार बार पलकें बन्द होने को आतुर लेकिन फिल्म तो देखनी है।आज वीसीआर लाया है किराए पर।बार बार थोड़ी आएगा।उस पर अमिताभ बच्चन की फिल्म।देखनी तो है पर नींद है कि कितना ही परे धकेलो लोचट्ट की तरह बार बार आए ही जा रही है। उठकर घड़े में से निकाल कर पानी पीया। पानी के कुछ छींटे मुँह पर मारे।
फिर आकर डट गए मैदान में।
मुकद्दर का सिकन्दर नींद की झपकियों के साथ संघर्ष करते हुए कैसे तो भी देखते रहे।रेखा की अदायगी और अमिताभ की हृदयस्पर्शी आवाज़ का जादू नींद के झोंकों के साथ घुलता मिलता रहा। इस बीच इधर उधर लुढ़के पड़े छोटे बच्चों को उठाकर अन्दर चारपाई पर सुला दिया गया। एक एक करके विकेट डाउन हो रहे थे लेकिन अभी भी कुछ वीसीआर प्रेमी सैनिक मोर्चे पर डटे हुए थे।
दूसरी फिल्म कब समाप्त हुई और तीसरी कब लगी पता नहीं चला। ऊंघते हुए राजेश खन्ना और शर्मीला टैगोर को दोने में से जलेबी खाते हुए और रात के अन्धेरे में नाव की सवारी करते हुए देखा।
“चिंगारी कोई भड़के,तो बादल उसके बुझाए।
बादल जो आग लगाए,उसे कौन बुझाए”
ये गाना सुना तो शब्दों का कसाव महसूस कर दो क्षण के लिए नींद भाग गई। पूर्व में सूर्य नारायण अपनी सुनहरी किरणें बिखेरते हुए उदित होने लगे , चिड़ियों ने चहचहाकर दिन के प्रारम्भ होने का शंखनाद कर दिया,नल की टोंटी से पानी आने की फुर्र फुराहट के संकेत मिलने लगे लेकिन अमर प्रेम निरन्तर जारी रहा। सामने बैठे सारे दर्शक ढ़ेर हो चुके थे मगर वीसीआर चल रहा था।
“बड़ा नटखट है ये कृष्न कन्हैया,का करे यशोदा मैया”
ये गाना जैसे ही बजाया वीसीआर ने वैसे ही बाई (दादी) नित्य नियमानुसार एक कटोरी में ताजी निकली हुई चीनी घुली मलाई लेकर आँगन में आईं और चिरपरिचित अन्दाज़ में गाने लगीं
“द्या माझा रामा ला साखर साय
विनविते कौसल्या माय
द्या माझा रामा ला साखर साय।”