लखीमपुर खीरी हादसे से विपक्ष को भी संदेश

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राजेश बादल


तराई के लखीमपुर खीरी का जघन्य संहार अब केवल प्रादेशिक मसला नहीं रह गया है।बीते सप्ताह घटनाक्रम ने जिस तरह सियासत को गरमाए रखा,वह ऐतिहासिक है।भारतीय लोकतंत्र की ख़ूबी यही है कि यह देश एक सीमा तक अधिनायकवादी विचारों और कामकाज की शैली को बर्दाश्त करता है।जैसे ही यह मानसिकता लक्ष्मण रेखा पार करती है तो मुल्क़ आगबबूला हो जाता है।फिर कोई कितना भी बड़ा तानाशाह क्यों न हो,उसे अवाम के सामने झुकना ही पड़ता है।हालाँकि लखीमपुर खीरी के मामले का अभी पटाक्षेप नहीं हुआ है,लेकिन जिस ढंग से देश ने इस कांड में एक मंत्री के बेटे की भूमिका पर प्रतिक्रिया व्यक्त की है,वह यह समझने के लिए काफी है कि तंत्र मनमाने तरीक़े से लोक की उपेक्षा नहीं कर सकता।एक मायने में यह हिन्दुस्तान की राजनीति में विपक्ष के लिए सन्देश है कि यदि वह जन भावनाओं का आदर नहीं करेगा तो लोग सीधी लड़ाई लड़ने के लिए भी घरों से निकलने के लिए तैयार हैं।अरसे तक उत्तरप्रदेश में परचम फहराती रही कांग्रेस ने समय रहते इस संदेश को पढ़ लिया अन्यथा समूचे प्रतिपक्ष के लिए यह एक गंभीर चुनौती बन सकता था ।सूबे के नागरिक अभी भी इस मामले में ज़िम्मेदार अन्य विपक्षी पार्टियों को खोज रहे हैं।

नए कृषि क़ानूनों के विरोध में किसान आंदोलन साल भर से गांधीवादी तरीक़े से चल रहा है।आंदोलन के कर्ताधर्ताओं ने अभी तक किसी सियासी पार्टी को अपना मंच इस्तेमाल नहीं करने दिया है।मगर इससे विपक्षी दलों की भूमिका समाप्त नहीं हो जाती।वे यह कहकर अपने दायित्व से पल्ला नहीं झाड़ सकते कि वे तो साथ देने के लिए तैयार हैं पर किसान समर्थन लेना ही नहीं चाहते।अँगरेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ अनेक संगठन या चेहरे महात्मा गाँधी के साथ नहीं आते थे,लेकिन वे अपने घर के दरवाज़े बंद करके नहीं बैठ जाते थे।अपने-अपने स्तर पर वे आज़ादी के संघर्ष को बढ़ाने का काम ही करते थे।असली लोकतंत्र भी यही कहता है कि समाज का एक वर्ग यदि नैतिक मज़बूती के साथ व्यवस्था के विरोध में सड़क पर आता है तो शेष भारत उसमें किस तरह योगदान देता है।इन दिनों हर नागरिक की भारत के विपक्षी दलों पर नज़र है।वे देख रहे हैं कि संविधान के अनुच्छेद-3 के अनुसार शपथ लेने के बाद एक मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री अपने बयानों से शपथ का मख़ौल उड़ाते हैं,उससे भड़ककर किसान आंदोलन हिंसक हो जाता है तो कांग्रेस,बहुजन समाज पार्टी,समाजवादी पार्टी,राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी,तृणमूल कांग्रेस,द्रमुक,अन्नाद्रमुक,तेलुगुदेशम,शिवसेना,राष्ट्रीय जनता दल,जेडीयू,जननायक जनता पार्टी,वामपंथी पार्टियाँ,तेलंगाना राष्ट्र समिति,वाईएस आर कांग्रेस,अकाली दल और बीजू जनता दल जैसी पार्टियाँ क्या दृष्टिकोण रखती हैं ? विधानसभाओं में विरोध प्रस्ताव पारित करने या अकाली दल की तरह सरकार से अलग होने मात्र से कर्तव्य की इतिश्री नहीं हो जाती।कृषि क़ानून किसी एक प्रदेश पर लागू होने वाले नहीं हैं।

यदि महीनों बाद भी कई दलों ने चुप्पी साध रखी है तो अर्थ स्पष्ट है कि इन क्षेत्रीय पार्टियों का आकार इसी वजह से बौना है क्योंकि वे राष्ट्रीय हित में सही समय पर अपना नज़रिया अवाम के सामने पेश करने में अक्षम रही हैं।यदि वे कृषि क़ानूनों के समर्थन में भी हैं तो उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए।संभव है कि इस सियासी मंथन से समाधान का कोई अमृत कलश निकल आए,लेकिन उन्हें तटस्थ रहने की अनुमति जम्हूरियत की कोई क़िताब नहीं देती।वे तटस्थ प्रेक्षक बनकर नहीं रह सकतीं।
कांग्रेस ने इस विराट प्रदेश में विरोध का स्वर अचानक हल्ला बोल और आक्रामक शैली में मुखरित किया है।यह अन्य विपक्षी दलों के लिए नींद से जागने जैसा है।प्रदेश में चुनाव दर चुनाव बिखर रही कांग्रेस से उन्हें ऐसी अपेक्षा नहीं थी।किसी ज़माने में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाकर ही बसपा और सपा ने अपना विस्तार किया था।अब वे इस बूढ़ी पार्टी के जवान तेवरों से भयभीत दिखाई दे रही हैं।कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी अब तक के सबसे हमलावर रूप में हैं और उस दौर की याद दिला रही हैं,जब इंदिरा गांधी ने बिहार में बेलछी कांड के बाद पीड़ितों की आवाज़ को समर्थन देकर ज़ोरदार ढंग से वापसी की थी ।उनकी अगुआई इन दोनों पार्टियों के लिए गंभीर चिंता का सबब बन रही है।प्रियंका की सियासी सक्रियता में निरंतरता आ रही है। यह स्थिति उत्तरप्रदेश के दलों के लिए भारी पड़ सकती है।प्रश्न यह है कि लखीमपुर खीरी हादसे के बाद इन दोनों दलों को बेहद आक्रामक होने से किसने रोका था – ख़ासकर उस स्थिति में,जबकि विधानसभा चुनाव सिर पर हों।मौजूदा भारत का नौजवान मतदाता अब जातियों और धर्मों के बासे और सड़ाँध मार रहे तंत्र से दूर उन्मुक्त विचार विश्व में दाख़िल होने के लिए तैयार है।विभाजन के इन आधारों पर राजनीति कर रही सारी पार्टियों के लिए यह ख़तरे की घंटी है और लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत माना जा सकता है ।


दरअसल लखीमपुर खीरी जैसे हादसे प्रादेशिक मानकर छोड़े भी नहीं जा सकते।भारतीय समाज की संरचना में कुछ कुरुपताएँ स्थाई तौर पर उपस्थित हैं।इस मायने में वे कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को जोड़कर रखने का काम भी करती हैं।ऐसे हादसे देश में कहीं भी हो सकते हैं।इसलिए राजनीतिक दलों को अपनी समझ का दायरा और व्यापक तथा परिपक्व करना होगा।यदि वे अपने आप को बदलने के लिए तैयार नहीं हैं तो माफ़ कीजिए ,यह देश भी उन्हें अनंत काल तक ढोने या बर्दाश्त करने की क़सम खाकर नहीं बैठा है।