चुनाव में धन-बल का राक्षस

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बाखबर – राघवेन्द्र सिंह

चुनाव में पहले कभी बाहुबल की बात हुआ करती थी। तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के बाद बाहुबल से चुनाव जीतने में कमी आई। मुहर लगाकर मतदान की व्यवस्था जब बदली और ईवीएम आई तो बूथ कैप्चरिंग कर मतदान की घटनाएं और भी कम हो गईं। इस दौरान मतदाता परिचय पत्र ने फर्जी मतदान कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। अब साफ-सुथरे चुनाव में धन-बल का मामला ऐसा है जो चुनाव आयोग की लाख कोशिशों के बाद भी काबू में नहीं आ रहा है। इसके िलए भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत भी चिंता जता चुके हैं। मध्यप्रदेश में 28 नवंबर को मतदान है और उसके पहले पैसा, शराब और कमजोर वर्गों के बीच रुपए बांटकर वोट लेने का खेल भी खूब चलने की आशंका है। चुनाव प्रचार बंद होने के बाद उम्मीदवार और उनके दल कमजोर सीटों पर धन-बल का ही खेल खेलते हैं।
Monster of wealth in election
चुनाव में खंदक की लड़ाई वोट पड़ने के दो दिन पहले प्रचार पर रोक लगने की रात से ही शुरू हो जाती है। मतदाताओं के लिए यह वक्त निर्णय करने का माना जाता है। लेकिन वोटों के सौदागर इन्हीं दो दिनों में खरीद-फरोख्त का बड़ा खेल करते हैं। नियम-कायदे के मुताबिक शराब की दुकानें बंद कर दी जाती हैं ताकि दल और उम्मीदवार गांव और झुग्गी बस्तियों में शराब की खेप पहुंचाकर वोटरों को अपने पाले में न कर सकें। चुनाव आयोग की चिंता धनबल के जरिए होने वाले इसी खेल को रोकने की है। लेकिन इस मामले में आयोग केवल चुनाव खर्च की सीमा पर ही जोर दे पा रहा है। विधानसभा प्रत्याशी के िलए अभी 28 लाख खर्च करने का प्रावधान है।

लेकिन सबसे बड़ा संकट विदेशी चंदे का भी है। आने वाले दिनों में अगर भारी ताकतों का दखल नहीं रोका गया तो आशंका है कि विदेशी भारतीय चुनावों को प्रभावित किए बिना नहीं रहेंगे। इस मामले में ओपी रावत भी जिम्मेदार लोगों से चर्चा में अपनी चिंता जता चुके हैं। यह आशंका इसलिए भी निर्मूल नहीं क्योंकि अमेरिका के चुनाव में रूस के दखल की बात बड़ी गंभीरता से उठी थी। हालांकि डोनाल्ड ट्रंप को जिताने के रूस की तकनीक का भी उपयोग करने की खबरें थीं। जब अमेरिका जैसे देश में लोकतंत्रीय प्रणाली को दूसरा देश प्रभावित कर सकता है, यह चर्चाएं अगर हो तो भारत इस तरह के गोरखधंधों के लिए बहुत ही सॉफ्ट नेशन है।

आयोग की चिंता यह है कि धनबल खासतौर से विदेशी धन को भारतीय चुुनाव में शामिल होने से नहीं रोका गया तो लोकतंत्र कमजोर होगा और विदेशी ताकतें इसे नियंत्रित कर सकती हैं। इसमें दुर्भाग्यजनक बात यह है िक राजनीतिक दलों का चुनावी चंदे के मामले में आयोग को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है। पहले तो चंदे को लेकर हिसाब की बात ठीक से नहीं हो पा रही है। दूसरा दलों के चंदे को आय के दायरे में जोड़कर इनकम टैक्स देने का प्रावधान नेताओं को मंजूर नहीं है।

इसके बाद विदेशों से मिलने वाले चुनावी चंदे का भी खुलकर कोई दल हिसाब बताने को राजी नहीं है। ये तमाम बातें हैं जो मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत की चिंताओं को और भी गंभीर बनाती हैं। अगले महीने दिसंबर में ओपी रावत अपना कार्यकाल पूरा कर रहे हैं। अनुमान है िक वह इस संबंध में कोई बड़ा फैसला कर सकते हैं जो भविष्य में नजीर बन जाए।