राजेश बादल
वरिष्ठ पत्रकार
अजब दौर है। भारतीय पत्रकारिता का अंधकार युग। कब तक चलेगा? कोई नहीं जानता। विचार और निरपेक्ष-निर्भीक विश्लेषण की क्षमता खोते जाने का नतीजा क्या होगा। पत्रकारिता के मूक और चौपाया युग की ओर बढ़ते जाने का अर्थ यही है कि मूल्यों और सरोकारों की संचित निधि का खजाना अब रीतने वाला है और हमारे पास दोबारा उस पात्र को लबालब भरने की कोई सूरत नहीं दिखाई देती। आपस की होड़ और गलाकाट और रंजिश भरे माहौल ने सोचने पर विवश कर दिया है कि अतीत की गौरवशाली परंपराओं को भूलकर आने वाली नस्लों के लिए हम क्या छोड़कर जा रहे हैं?
जब भारत में प्रेस काउंसिल का गठन हुआ, तब भी पत्रकारिता में कोई निर्मल गंगा की धारा नहीं बहती थी, लेकिन उन दिनों इस पेशे में अपने समर्पण और सेवा भाव से काम करने वालों की तादाद इतनी अधिक थी कि रास्ते से भटकने के इक्का दुक्का उदाहरण ही सामने आते थे। इसी कारण प्रेस काउंसिल को अधिक ताकतवर और अधिकार संपन्न बनाने की जरूरत महसूस नहीं होती थी। साल में एकाध नमूना ही देखने को मिलता था, जब यह शिखर संस्था किसी संपादक या संस्थान की भर्त्सना या निंदा करती थी। निंदा का यह निर्णय बड़ा अभूतपूर्व होता था। वह संपादक या संस्थान एक तरह से जग-हंसाई का केंद्र बन जाता था। प्रेस काउंसिल के निंदा करने का अर्थ ही भरे चौराहे पर निर्वस्त्र कर देने जैसा होता था। पत्रकार और संपादक इस संस्था से खौफ खाते थे। इसके मुखिया निर्विवाद और निष्पक्ष हुआ करते थे। उनकी एक टिप्पणी साल भर तक चर्चा का विषय बनी रहती थी। वह पत्रकारिता संस्था अरसे तक एक नैतिक अपराध बोध से ग्रस्त रहती थी, लेकिन बाद के वर्षों में क्या हुआ? पत्रकारिता के नए नए अवतार आते गए और हम स्वभाव से पत्रकार कम, चतुर व्यापारी, निरंकुश, बेशर्म और खूंखार अधिक होते गए। अत्याधुनिक संचार साधनों, तकनीक, बाजार और सियासत ने हमें अपना गुलाम बना लिया। यह गुलामी अंग्रेजी राज से कहीं ज्यादा खतरनाक और भयानक है, क्योंकि यह हमारे अपने आजाद तंत्र में विकसित हुई है। इसके लिए हम गोरी हुकूमत को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते। पहले इस गुलामी ने हमें आर्थिक जंजीरों से जकड़ा, फिर उसकी चाबी राजनीति के पैरोकारों को दे दी। अब छटपटाहट ही नियति बन गई है। चाहकर इस जाल से बाहर निकलना हमारे बूते से बाहर है, तो क्या हिन्दुस्तान की पत्रकारिता इसी तरह बेड़ियों में रहेगी?
हम जानते हैं कि सत्ता पर काबिज कोई भी पार्टी अपनी आलोचना के तीखे स्वर बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसलिए वह लगातार पत्रकारिता पर अंकुश लगाने की कोशिश करती है। पहले वह लालच की रोटियां इस व्यवसाय (अप्रिय किन्तु आज के हाल के लिए सही शब्द) पर फेंकती है। मालिक और पेशेवर पत्रकार- संपादक उसमें फंस जाते हैं। इस पर भी बात नहीं बनती तो वह सियासी सुविधाओं का लालच देती है। उसका भी असर न हो तो वह आपस में लड़ाती है। तरकश के सारे तीर बेकार हो जाएं तो वह उत्पीड़न और अत्याचार का अंतिम हथियार चलाती है। आज की पत्रकारिता में परदे के पीछे की यही कहानी है।
तो अब क्या किया जाए? इसके बाद भी हमें निर्वाचित सरकार की ओर ही ताकना पड़ेगा। वह भारतीय संविधान से बंधी है। प्रेस काउंसिल जब अस्तित्व में आई, तब केवल अखबार ही पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे। रेडियो तब सरकारी नियंत्रण में था। इसके बाद टेलिविजन, डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया के कई प्लेटफॉर्म समाज के दिलो दिमाग पर छा गए। अब प्रेस काउंसिल हाथी के दांत जैसी रह गई है। उसके दायरे में नए अवतार नहीं आते। अब एक सशक्त, सर्वांग, संपूर्ण और शक्तियों से लबरेज मीडिया काउंसिल की दरकार है। हम यह भी जानते हैं कि बीते चालीस-पैंतालीस साल में सरकार की ओर से आचार संहिता थोपे जाने का लगातार विरोध करते रहे हैं। मगर अब हालात बेकाबू हो रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट के किसी निष्पक्ष न्यायाधीश (निष्पक्षता का पैमाना कैसे तय होगा) की अगुआई में तत्काल इसका गठन हो। यह सीधे राष्ट्रपति को रिपोर्ट करे। काउंसिल में पत्रकार हों, वकील हों, बुद्धिजीवियों के प्रतिनिधि हों और स्वयंसेवी संगठन भी हों। उनकी छवि विवादों से परे हो, तभी इस तरह की आला संस्था काम कर पाएगी। देखते हैं बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधता है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो चौथे स्तंभ की साख पर घने काले बादल तो मंडरा ही रहे हैं मिस्टर मीडिया!