नीरज का कारवां भाग्य विधाताओं के साथ

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दिमाग की बात
सुधीर निगम

गोपालदास नीरज कहते थे मानव जीवन भाग्य है, कवि जीवन सौभाग्य। इस सौभाग्य की अंतिम बेला में उनका कवि मन व्यथित था, सो निकल पड़े हमारे भाग्य विधाताओं से देश का हाल जानने। चलते चलते कविराज सबसे पहले पहुंचे करीने से कपड़े पहने आकर्षक व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति के पास। कविराज को देखते ही उन्होंने चरणस्पर्श किया और आदर सहित बैठाया। नीरज जी ने पूछा ‘कैसा चल रहा है’, वे बोले ‘सब पीछे पड़े हैं।

मैं अकेला क्या क्या करूँ। देश देखूं या विदेश, रक्षा देखूं या वित्त। अब तो 2024 के पहले भला नहीं हो सकता, कुछ हुआ तो ठीक, नहीं तो मैं तो ठहरा फकीर, झोला उठाकर चला जाऊंगा कविवर।’ कविराज ने कुछ सोचा, आशीर्वाद दिया और ‘हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे। जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे।’ गुनगुनाते हुए निकल लिए।

टहलते हुए कविराज एक जगह पहुंचे, देखा गरमागरम बहस चल रही थी। रुक कर सुनने लगे, सुदर्शन सा व्यक्ति बोल रहा था। जब तक बोला अच्छा बोला, लेकिन आखिरी में ‘हग’ दिया, फिर प्रिया प्रकाश के पेट पर लात मारी और सब गुड़गोबर हो गया। वहाँ से निकलते ही नीरज जी ने एक रचना लिख मारी ‘ऐ भाई जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी, दाएं ही नहीं बाएं भी, ऊपर ही नहीं नीचे भी’।

आगे बढ़ने के पहले उन्होंने सोचा इस ‘बालक’ की माता से भी मिलता चलूं। सो पहुंच गए उनके पास। नमस्कार चमत्कार हुआ, फिर वो बोलने लगीं ‘क्या बताऊँ इतना समझाया, लेकिन कहीं न कहीं गड़बड़ कर देता है। फिर भी उम्मीद है’। आसपास खड़े कुर्ता पजामा धारी एक साथ बोले ‘नहीं मैडम, बस इन्हीं से उम्मीद है।’ और खींसे निपोरने लगे। तब तक कविवर ने एक गाना और लिख डाला ‘जीवन की बगिया महकेगी, लहकेगी, चहकेगी। खुशियों की कलियां झूमेंगी, झूलेंगी, फूलेंगी।’

कविराज थोड़ा आगे बढ़े तो देखा पुलिस वाले टमाटर की तरह लाल एक व्यक्ति को ले जा रहे थे। नीरज जी को देखते ही उसने प्रणाम किया और पुलिस वालों से बोला ‘धुत बुड़बक, देखते नहीं का कौन खड़ा है सामने’ फिर नीरज जी से मुखातिब होकर दुखड़ा सुनाने लगा ‘अब क्या बताएं जिसे अपना समझा वही धोखा दे दिए।’ कविराज ने दिलासा दिया और निकल लिए। पीछे उन्हें गीत सुनाई दे रहा था ‘खिलते हैं गुल यहां, खिल के बिखरने को, मिलते हैं दिल यहां, मिल के बिछड़ने को’।

अब काफी देर हो गई थी कविराज वापसी की तैयारी में थे। अचानक एक बेंच पर एक बुजुर्गवार सिर झुकाए हताश से बैठे दिखाई दिए। पास पहुंचे तो देख कर चौंक गए और बोले ‘अरे आप यहां अकेले क्यों बैठे हैं’। बुजुर्गवार भी चौंके (ये जानकर कि अब भी लोग उन्हें पहचानते हैं) और धीरे से कहा ‘आइये, बैठिए’। हालचाल पूछने पर उनकी आंखों में आंसू तो आये, लेकिन बाहर नहीं गिरे। वो कहने लगे ‘बस बहुत हो गया, अब कोई इच्छा बाकी नहीं। नए लोग काम करें यही तमन्ना है’। इसके बाद वो मन ही मन कुछ बुदबुदाए जो कविवर को सुनाई नहीं पड़ा। उनसे विदा लेकर नीरज जी वहां से चले और कालजयी रचना कर डाली,

स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़ेखड़े बहार देखते रहे,
कारवाँ गुजर गया, गुबार देखते रहे।
फिर कविराज अनंत यात्रा पर निकल गए।
(श्रद्धेय नीरज जी से क्षमा सहित मेरी आदरांजलि)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार है