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शिवराज के गृह जिले के दुपाड़िया दांगी गांव और काकड़ कॉलोनी में पक्की सड़क नहीं होने से बारिश में कई लोगों की हो चुकी मौत

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ग्राम दुपाड़िया दांगी की काकड़ कॉलोनी से बड़बेली तक पक्की सड़क बनवाने का प्रभारी मंत्री ने दिया आश्वासन

भोपाल। मुख्यमंत्री शिवराज के गृह जिले सीहोर के ग्राम पंचायत सेमरादांगी के तहत आने वाले ग्राम दुपाड़िया दांगी की काकड़ कॉलोनी पर 40 घर के लोग रहते है, लेकिन सड़क नहीं होने से बारिश के दिनों में वाहन नहीं निकलने के कारण अस्पताल पहुंचने से पहले ही कई लोगों की मौत हो चुकी है। ग्राम दुपाड़िया दांगी काकड़ कॉलोनी से लेकर बड़बेली तक छह किमी पक्की सड़क बनवाने को लेकर शुक्रवार को ग्राम दुपाड़िया दांगी के गुलाब सिंह, लक्ष्मण सिंह, देवसिंह राजपूत, नरेश राजपूत, भगवत सिंह आदि ने सीहोर प्रभारी मंत्री प्रभुराम चौधरी एवं पूर्व लोनिवि मंत्री रामपाल सिंह राजपूत से मिलकर सड़क बनवाने का ज्ञापन सौंपा। जिस पर प्रभारी मंत्री प्रभुराम चौधरी ने ग्रामीणों को ेआश्वासन दिया कि जल्द से जल्द दुपाड़िया दांगी की काकड़ कॉलोनी से बड़बेली तक पक्की सड़क बनवाएंगे एवं दुपाड़िया दांगी की काकड़ कॉलोनी से बड़बेली तक पक्की सड़क बनवाने का पत्र प्रभारी मंत्री ने पीडब्ल्यूडी विभाग भेजा है। इस दौरान ग्राम दुपाड़िया दांगी की काकड़ कॉलोनी में फौजियों का सम्मान करने पर भी ग्रामीणों ने प्रभारी मंत्री प्रभुराम चौधरी का स्वागत कर आभार जताया। इस अवसर पर पत्रकार संदीप मालवीय, विश्राम सिंह, देंवेंद्र राजपूत सहित बड़ी संख्या में ग्रामीणजन मौजूद थे।

प्रभारी मंत्री को ग्रामीणों ने बताई पीड़ा
गुलाब सिंह ने कहा कि जब गांव में कोई नुक्ता, बीमारी या आयोजन होते हैं, तो लोगों को गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता है। खास बात यह है कि ग्रामीण विधायक से लेकर सांसद से कई बार मांग कर चुके हैं, जिनसे हर साल आश्वासन मिलता है, लेकिन सड़क का निर्माण नहीं हो सका है, जिससे ग्रामीण कीचड़ भरे कच्चे रास्ते से गुजरने को मजबूर हैं। वहीं महिलाओं व बच्चों में जमकर आक्रोश है।

700 लोग करते हं निवास
जानकारी के अनुसार ग्राम पंचायत सेमरादांगी के साथ ही ग्राम दुपाड़ियादांगी की आजादी के पहले से बसाहट है और करीब 700 लोग निवास करते हैं, लेकिन आजादी के पहले से बसे इस गांव में अभी तक सड़क का निर्माण नहीं हुआ है, जिससे ग्रामवासी विकास और अन्य मामलों में पिछड़ते रहे हैं।

राजेंद्र माथुर को याद करना ज़रूरी हो गया है !

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श्रवण गर्ग

पत्रकारिता के एक ऐसे अंधकार भरे कालखंड जिसमें एक बड़ी संख्या में अख़बार मालिकों की किडनियाँ हुकूमतों द्वारा विज्ञापनों की एवज़ में निकाल लीं गईं हों ,कई सम्पादकों की रीढ़ की हड्डियाँ अपनी जगहों से खिसक चुकीं हों, अपने को उनका शिष्य या शागिर्द बताने का दम्भ भरने वाले कई पत्रकार भयातुर होकर सत्ता की चाकरी के काम में जुट चुके हों, राजेन्द्र माथुर अगर आज हमारे बीच होते तो किस समाचार पत्र के सम्पादक होते, किसके लिए लिख रहे होते और कौन उन्हें छापने का साहस कर रहा होता ? भारतीय पत्रकारिता के इस यशस्वी सम्पादक-पत्रकार की आज (नौ अप्रैल) पुण्यतिथि है।

पत्रकारिता जिस दौर से आज गुज़र रही है उसमें राजेंद्र माथुर का स्मरण करना भी साहस का काम माना जा सकता है।ऐसा इसलिए कि नौ अप्रैल 1991 के दिन वे तमाम लोग जो दिल्ली में स्वास्थ्य विहार स्थित उनके निवास स्थान पर सैंकड़ों की संख्या में जमा हुए थे उनमें से अधिकांश पिछले तीस वर्षों के दौरान या तो हमारे बीच से अनुपस्थित हो चुके हैं या उनमें से कई ने राजेंद्र माथुर के शारीरिक चोला त्यागने के बाद अपनी पत्रकारिता के चोले और झोले बदल लिए हैं।

इंदौर से सटे धार ज़िले के छोटे से शहर बदनावर से निकलकर पहले अविभाजित मध्य प्रदेश में अपनी कीर्ति पताका फहराने और फिर निर्मम दिल्ली के कवच को भेद कर वहाँ के पत्रकारिता संसार में अपने लिए जगह बनाने वाले राजेंद्र माथुर को याद करना कई कारणों से ज़रूरी हो गया है।वक्त जैसे-जैसे बीतता जाएगा ,उन्हें याद करने के कारणों में भी इज़ाफ़ा होता जाएगा।अपने बीच उनके न होने की कमी और तीव्रता के साथ महसूस की जाएगी।उनके जैसा होना या बन पाना तो आसान काम है ही नहीं,उनके नाम को पत्रकारिता के इस अंधे युग में ईमानदारी के साथ जी पाना भी चुनौतीपूर्ण हो गया है।

सोचने का सवाल यह है कि राजेंद्र माथुर अगर आज होते तो किस ‘नई दुनिया’ या ‘नवभारत टाइम्स’ में अपनी विलक्षण प्रतिभा और अप्रतिम साहस के लिए जगहें तलाश रहे होते ?क्या वे अपने इर्द-गिर्द किसी राहुल बारपुते ,गिरिलाल जैन, शरद जोशी या विष्णु खरे को खड़ा हुआ पाते ? क्या इस बात पर आश्चर्य नहीं व्यक्त किया जाना चाहिए कि इस समय जब छोटी-छोटी जगहों पर साधनहीन पत्रकारों को उनकी साहसपूर्ण पत्रकारिता के लिए असहिष्णु सत्ताओं द्वारा जेलों में डाला जा रहा है, थानों पर कपड़े उतरवाकर उन्हें नंगा किया जा रहा है, 1975 में आपातकाल के ख़िलाफ़ लगातार लिखते रहने वाले राजेंद्र माथुर को इंदिरा गांधी की हुकूमत ने क्यों नहीं सताया, जेल में बंद क्यों नहीं किया ? राजेंद्र माथुर आपातकालीन प्रेस सेन्सरशिप की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते रहे पर उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई ,देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज नहीं हुआ ! तीन छोटी-छोटी बच्चियों के पिता राजेंद्र माथुर सिर्फ़ चालीस वर्ष के थे जब वे दिल्ली के मुक़ाबले इंदौर जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र ‘नई दुनिया’ में आपातकाल के ख़िलाफ़ लिखते हुए देश की सर्वोच्च तानाशाह हुकूमत को ललकार रहे थे।

माथुर साहब का जब निधन हुआ तो उनके घर पहुँचकर श्रद्धांजलि अर्पित करने वालों में राजीव गांधी भी थे।राजीव गांधी के चेहरे पर एक ईमानदार सम्पादक के असामयिक निधन को लेकर शोक झलक रहा था। राजीव गांधी जानते थे कि माथुर साहब ने उनके भी ख़िलाफ़ खूब लिखा था जब वे प्रधानमंत्री के पद पर क़ाबिज़ थे।माथुर साहब के निवास स्थान से निगम बोध घाट तक जिस तरह का शोक व्याप्त था उसका शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता।माथुर साहब जब गए उनकी उम्र सिर्फ़ छप्पन साल की थी पर लेखन उन्होंने आगे आने वाले सौ सालों का पूरा कर लिया था।

माथुर साहब के मित्र और पाठक उन्हें रज्जू बाबू के प्रिय सम्बोधन से ही जानते थे।’नई दुनिया’अख़बार के दफ़्तर में भी उनके लिए यही सम्बोधन प्रचलित था- मालिकों से लेकर सेवकों और उनसे मिलने के लिए आने वाले पत्रकार-लेखकों तक।देश भर के लाखों पाठक रज्जू बाबू के लिखे की प्रतीक्षा करते नहीं थकते थे।आपातकाल का विरोध करते हुए उनका किसी दिन कुछ नहीं लिखना और अख़बार में जगह को ख़ाली छोड़ देना भी पाठकों की सुबह की प्रतीक्षा का हिस्सा बन गया था।अख़बार की ख़ाली जगह में जो नहीं लिखा जाता था पाठकों ने उसमें भी रज्जू बाबू के शब्दों को डालकर पढ़ना सीख लिया था।वे जानते थे माथुर साहब ख़ाली स्थान पर क्या कुछ लिखना चाहते होंगे।

यह पत्रकारिता के उस काल की बात है जब राजेंद्र माथुर को केवल जान लेना भर भी अपने आपको सम्मानित करने के लिए पर्याप्त था।उन लोगों के रोमांच की तो केवल कल्पना ही की जा सकती है जिन्होंने उनके साथ काम किया होगा ,उनके साथ बातचीत और चहल-कदमी के अद्भुत क्षणों को जीया होगा।राजेंद्र माथुर यानी एक ऐसा सम्पादक जिसके पास सिर्फ़ एक ही चेहरा हो, जिसकी बार-बार कुछ अंदर से कुछ नया टटोलने के लिए पल भर को हल्के से बंद होकर खुलने वाली कोमल आँखें हों और हरेक फ़ोटो-फ़्रेम में एक जैसी नज़र आने वाली शांत छवि हो।

इंदौर का रूपराम नगर हो या ब्रुक बॉंड कॉलोनी।वहाँ से निकल कर अपनी धीमी रफ़्तार से चलता हुआ एक स्कूटर जैसे कि वह भी अपने मालिक की तरह ही कुछ सोचता हुआ रफ़्तार ले रहा हो दूर से भी पहचान में आ जाता था कि उस पर सवार व्यक्ति कौन है और वह इस घड़ी कहाँ जा रहा होगा—अपनी बेटियों को लेने पागनिस पागा स्थित शालिनी ताई मोघे के स्कूल या केसरबाग रोड स्थित ‘नई दुनिया’ अख़बार की तरफ़।वर्ष 1982 में ‘नई दुनिया’ छोड़कर राजधानी दिल्ली के बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग स्थित ‘नवभारत टाइम्स’ की भव्य इमारत की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले तक देश के इस बड़े सम्पादक के पास अपनी या अख़बार की ओर से दी गई कोई कार नहीं थी।

किसी भी व्यक्ति की कमी उस समय और ज़्यादा खलती है जब उसके प्रतिरूप या प्रतिमान देखने को भी नहीं मिलते। गढ़े भी नहीं जा सकते हों।पत्रकारिता जब वैचारिक रूप से अपनी विपन्नता के सबसे खराब दौर से गुज़र रही हो ,संवाद-वाहकों ने खबरों के सरकारी स्टॉक एक्सचेंजों के लायसेन्सी दलालों के तौर पर मैदान सम्भाल लिए हों , मीडिया पर सेंसरशिप थोपने के लिए किसी औपचारिक आपातकाल की ज़रूरत समाप्त हो गई हो ,राजेंद्र माथुर का स्मरण बंजर भूमि में तुलसी के किसी जीवित पौधे की उपलब्धि जैसा है।मेरा सौभाग्य है कि कोई दो दशकों तक मुझे उनका सानिध्य और स्नेह प्राप्त होता रहा।उनकी स्मृति को विनम्र श्रद्धांजलि।

National Storytelling Championship 2022

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TIO NEW DELHI

MS Talks : National Storytelling Championship 2022. There are so many contests going on in the world, but have you heard about ‘National Storytelling Championship'(NSC). May be not! There is going to be a mega event by ‘MS Talks ‘ founded by Author Sherry, on 9th April 2022 in New Delhi.

Author Sherry is a renowned International Public Speaking Coach and TEDx speakers coach in India and has created a niche of his own, in the speaking world. Author Sherry is 9 times TEDx speaker and 4 times Josh Talks Speaker himself. He is on a mission to create a million ‘public speakers’ in the country by 2030. National Storytelling Championship is curated by Author Sherry as he strongly feels everyone has a story and stories shared with the world has the power of transforming lives and just by learning and doing public speaking anyone can change their way of life as it helps enabling the power of expressions and sub-conscious mind. Encouraged by the phenomenal success, Author Sherry started ‘MS Talks’ around 5 years back with like-minded and equally passionate people joined hands, as a vehicle to bring on board ‘real people’ from various walks of life and share their real stories, real experience and give platform for public speaking to various speakers. The mission objective naturally turned out to be – ‘Inspiration from Anywhere’.

It went on to organize – public speaking events, championships, skill-development Workshops and ‘Story – telling Sessions’, throughout the globe and more than 35,000 public speakers across the world with more than 400+ events online and offline. ‘The response and participation has been amazing’ says Author Sherry, its CEO, MS Talks, is now not just a name but cult figure. Author Sherry himself has trained more than 35,000 public speakers around the world and has spoken 900+ keynotes in 70+corporates, international conferences, and global events in 18+ countries as a ‘global conference speaker.’ It is a time tested philosophy – ‘anything done consistently, becomes a habit and habits makes a person’. What you believe, you can achieve. A speech is an expression of your belief. MS Talks is here to help people develop the habit of public speaking, remove stage fright, sharing failure and success experience to inspire India. Nothing is as great as accepting oneself. ‘You are the best ‘- MS Talks will make you believe in yourself. Mark the date in 9th April 2022, when 20 aspiring and budding storytellers from all over the nation will eye for the National Storytelling Championship. It is an open championship and anyone willing to show their talent can participate as a Storyteller between 10 to 70 years of age. Just register with a nominal amount and no questions asked, you are in as a participant. The idea behind such a thought is to give platform to all the aspiring Storyteller from any background. The juries are going to be industry experts, Transformation consultant, Sales Trainer, Marketing & brand expert & Authors – Mr. Rajeev Narang, Personality Transformation & International Pageant Coach, Honored by World Book of Records Lieut Dr.Rita Gangwani. And the guest of honours are Mr. Pujneet Singh, Peeyush Pandit and Dr. Parmeet Chadha

The list of the participants who are going  to share their stories are:- Sourabh Janagal,  Surbhi Aggarwal, Roopesh Rai, Alka Mahajan, Shreya, Babli Gambhir, Manuj Matta, Annu, Richu Katoch, Nidhi Maini, Priya, Meena Karmakar, Anjana Vinod, Jaya Venkatram, Lipi Gidwani, Indu Bala and Lavkesh Agarwal.

फौजियों के सम्मान में पहुंचे प्रभारी मंत्री प्रभुराम चौधरी का वाहन बमुश्किल पहुंचा

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ग्रामीणों ने बताया जनप्रतिनिधि नहीं बनने दे रहे सड़क
भोपाल

ग्राम दुपाड़िया दांगी काकड़ कॉलोनी में सेवानिवृत्त फौजियों का सम्मान करते जाते मंत्री प्रभुराम चौधरी, पूर्व मंत्री रामपाल सिंह, हुजूर विधायक रामेश्वर शर्मा का वाहन सड़क नहीं होने से बमुश्किल पहुंचा। ग्रामीणों का कहना है कि विधायक और सरपंच से कई बार ज्ञापन दे चुके लेकिन आज तक दुपाड़िया दांगी की काकड़ कॉलोनी तक सड़क नहीं बनी। ग्राम दुपाड़िया दांगी के पूर्व सरपंच हरिसिंह पिपलौदिया, गुलाब सिंह पिलौदिया, रमेश पिपलौदिया, गुरुबगस, देव सिंह हाड़ा ने बताया कि जनप्रतिनिधि हमारे गांव और कॉलोनी में सड़क नहीं बनने दे रहे है। यदि ऐसा ही चलता रहा तो चुनाव नजदीक आ रहा है। हमारे राजपूत समाज के सीहोर जिले में 50 गांव है। यदि हमारी समस्या दूर नहीं हुई तो हम सब मिलकर आने वाले दिनों में विरोध प्रदर्शन करेंगे। ग्रामीणों ने बताया कि बारिश के दिनों में बच्चों जूते-चप्पल हाथ में रखकर ले जाते है। सड़क नहीं होने के कारण कई लोगों की मौत हो चुकी है। क्योंकि बारिश के समय में वाहन नहीं चलने से अस्पताल समय पर नहीं पहुंच पाते लोग रास्ते में ही दम तोड़ देते है।

लोकतंत्र में निब्बू पर संकट

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राकेश अचल

आज आप शीर्षक पढ़कर परेशान हो सकते हैं की लोकतंत्र का निब्बू से क्या रिश्ता और उसके ऊपर किस तरह का खतरा मंडरा रहा है। दरअसल इसमें आपकी कोई गलती है ही नहीं,सारी गलती अंग्रेजों की है जिन्होंने आपको ‘बनाना रिपब्लिक ‘ यानि केले के लोकतंत्र के बारे में तो बताया लेकिन निब्बू के लोकतंत्र के बारे में नहीं बताया। आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में निब्बू सचमुच खतरे में है। बाजार की साजिश ने निब्बू आम आदमी से छीन लिया है।

निब्बू को अंग्रेजी में ‘ लेमन’ कहते हैं ये जानकारी हमें तब से है जब हमने न हिंदी पढ़ी थी और न अंग्रेजी। हमें भाषा ज्ञान से पहले ‘ लेमन’ का ज्ञान था क्योंकि उसे हमारे घर के बाहर का पंसारी ‘ लेमनचूस’ के नाम से बेचता था। लेमनचूस में लेमन का स्वाद होता था और उसे चूसना पड़ता था जबकि लेमनचूस कोई फल नहीं था आम की तरह। बुंदेलखंड के लोगों की शब्द सामर्थ्य के चलते ‘लेमनचूस’ को ‘कंपट’ भी कहा जाता है । मजे की बात ये कि लेमनचूस बनता संतरे की कली के आकार का है लेकिन मजा निब्बू का देता है।
भगवान ने हम हिन्दुस्तानियों को निब्बू बहुत सोच समझकर उपहार के रूप में दिया है । निब्बू न होता तो मुमकिन है की हमारे जीवन में न ताजगी होती और न खटास,मिठास। निब्बू सिर्फ निब्बू नहीं है बल्कि गुणों की खान है। जब लोग विटामिन के बारे में नहीं जानते थे तब भी निब्बू हमरे षटरसों में शामिल था। हम ताजा निब्बू तो इस्तेमाल करते ही थे उसके रस को सुखाकर टाटरी के रूप में भी इस्तेमाल करते थे। क्योंकि निब्बू हर मौसम में तो मिलता नहीं था। ये तो विज्ञान की कृपा है कि अब हमारे पास ‘ कोल्ड स्टोरेज ‘ हैं और हम निब्बू का स्वाद बारह महीने ले सकते हैं।
विज्ञान का जहाँ लाभ है वहीं नुक्सान भी है । कोल्डस्टोरेज मिले तो व्यापारियों ने निब्बू को अपनी मुठ्ठी में कर लिया। सीजन में जो निब्बू आम आदमी की तरह मारा-मारा फिरता था ,वो ही निब्बू आज दो सौ रूपये किलो हो गया है। निब्बू की किस्मत ही कहिये जो आज उसकी हैसियत सेव् से भी कहीं ज्यादा है। निब्बुओं में सिर्फ ताजगी ही नहीं होती बल्कि सनसनाहट पैदा करने की ताकत भी होती है । सुगंध तो होती ही है तभी तो शीतल पेय के विज्ञापनों में ‘ नीबू की ताजगी और सनसनी एक साथ बिकती है। अब तो निब्बू ने साफ़-सफाई के मामले में भी अपनी जगह बना ली ह। बर्तन मांजने के लिए अब बिना निब्बू के कोई साबुन बनता ही नही। निब्बू ने महरियों के हाथों को बदबू से मुक्ति दिला दी है,इस तरह निब्बू अब मुक्तिदाता भी है।

आप निब्बू चूसें या पियें आपको फायदा करता है । विटामिन सी जैसे ही जिव्हा का स्पर्श करता है आप सी-सी करने करने लगते है। निब्बू की ही ताकत है कि वो आपका जायका बदल सकता है । आपकी जुबान चाहे महंगाई की वजह से कड़वी हो या ज्वर की वजह से ,बस एक निब्बू जुबान पर रख लीजिये,सब कुछ ठीक हो जाएगा। निब्बू के बारे में आपको ‘गूगल ज्ञान’ नहीं परोस रहा,बल्कि जो बता रहा हूँ अपने अनुभव से बता रहा हूँ। मेरे अनुभवों पर बहुत से लोग यकीन करते हैं और बहुत से नहीं।
आपको शायद पता ही होगा कि निब्बू में अंग्रेजों से ज्यादा दोफाड़ करने की ताकत भी है । आप निब्बू को अच्छे-भले दूध में डाल दीजिये ,पलक झपकते ही नीर और छीर को अलग-अलग कर देगा ,जिअसे की दोनों में कोई रिश्ता कभी रहा ही न हो। यानि यदि निब्बू न होता तो आप बिना नीर का छीर यानि पनीर खा ही न पाते । आखिर दूध को फाड़ता कौन ? सियासत के अलावा दो फाड़ करने की ताकत नीयब्बो के अलावा किसी के पास नहीं है। निब्बू की हैसियत देखकर घास ने भी अपने परिवार में एक किस्म पैदा की और नाम रख लिया ‘लेमनग्रास ‘ लेकिन उसे भी गधे चार गए।

बात निब्बू की चल रही थी तो आपको बता दूँ कि दुनिया में सबसे अधिक नीबू का उत्पादन भारत में होता है। यह विश्व के कुल नीबू उत्पादन का 16 प्रतिशत भाग उत्पन्न करता है। भारत के अलावा मैक्सिको, अर्जन्टीना, ब्राजील एवं स्पेन अन्य मुख्य उत्पादक देश हैं। हम विश्व के दस शीर्ष नीबू उत्पादक देशों की सूची में शुमार किये जाते हैं ,बावजूद आज हालात ये हैं की हम अपनी आबादी को निब्बू मुहैया नहीं करा पा रहे। निब्बू के दाम सरकार के लिए एक चुनौती बनते जा रहे हैं। नीबू, लगभग सभी प्रकार की भूमियों में सफलतापूर्वक उत्पादन देता है परन्तु जीवांश पदार्थ की अधिकता वाली, उत्तम जल निकास युक्त दोमट भूमि, आदर्श मानी जाती है। भूमि का पी-एच 6 -5 ,7 -0 होने से सर्वोत्तम वृद्धि और उपज मिलती है।

निब्बू के लोकतंत्र को महफूज रखने का एक ही तरीका है कि आप या तो निब्बू को कोल्डस्टोरेज माफिया से मुक्त कराये या फिर निब्बू को अपने घर के गमलों में इस तरह से उगाएं की आपको बाजार की शरण में जाना ही न पड़े । हमारे जमाने में तो निब्बू यत्र ,तत्र,स्र्त्र -सर्वत्र मिल जाता था लेकिन अब निब्बू चील का मूत्र हो चुका है चील का मूत्र मुमकिन है कि आपको मिल भी जाए लेकिन निब्बू आपको मिल ही नहीं सकता

नीबू का लोकतंत्र बचाने का मन करे तो मै आपको बता दूँ की कागजी नीबू, प्रमालिनी, विक्रम, चक्रधर, और साईं शर्बती निब्बू की लोकप्रिय किस्में हैं । इनमें से कागजी नीबू सर्वाधिक महत्वपूर्ण किस्म है। इसकी व्यापक लोकप्रियता के कारण इसे खट्टा नीबू का पर्याय माना जाता है। प्रमालिनी किस्म गुच्छे में फलती है, जिसमें 3 से 7 तक फल होते हैं। यह कागजी नीबू की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक उपज देती है। इसके फल में 57 प्रतिशत (कागजी नीबू में 5 2 प्रतिशत) रस पाया जाता है। विक्रम नामक किस्म भी गुच्छों में फलन करती है। एक गुच्छे में 5 से -10 तक फल आते हैं। कभी-कभी मई-जून तथा दिसम्बर में बेमौसमी फल भी आते हैं। कागजी नीबू की अपेक्षा यह 35 प्रतिशत अधिक उत्पादन देती है। चक्रधर नामक किस्म खट्टा नीबू की बीज रहित किस्म है
बहरहाल भविष्य में निब्बू यदि आधारकार्ड दिखाने पर ही मिले तो आश्चर्य मत कीजिए । लोकतंत्र में कुछ भी हो सकता है । जब देश प्रगति करता है तो निब्बू को भी होड़ में शामिल होना पड़ता है

प्रधानमंत्री मोदी कब तक शासन करना चाहते हैं ?

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श्रवण गर्ग

प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द एक ऐसा तंत्र विकसित हो गया है जिसने देश की एक बड़ी आबादी को उनकी दैनंदिन की गतिविधियों और व्यक्तित्व के दबदबे के साथ चौबीसों घंटों के लिए एंगेज कर दिया है।प्रधानमंत्री की मौजूदगी हवा-पानी की तरह ही नागरिकों की ज़रूरतों में शामिल की जा रही है।पार्टी और तंत्र से परे प्रधानमंत्री की छवि ‘हर-हर मोदी,घर-घर मोदी ‘ के ‘कल्ट’ के रूप में विकसित और स्थापित की जा रही है।नागरिकों को और कुछ भी सोचने का मौका नहीं दिया जा रहा है।महंगाई तो बहुत दूर की बात है।

अलग-अलग कारणों से लगातार चर्चा में बने रहने वाले इंदौर शहर की एक खबर यह है कि एक मुसलिम किरायेदार ने अपने मुसलिम मकान मालिक के ख़िलाफ़ अधिकारियों से शिकायत की कि उसे मकान ख़ाली करने की धमकी इसलिए दी जा रही है कि उसने प्रधानमंत्री की तस्वीर घर में लगा रखी है।जाँच के बाद बताया गया कि दोनों के बीच विवाद किराए के लेन-देन का है।किरायेदार को उम्मीद रही होगी कि मोदी की तस्वीर उसके लिए सुरक्षा कवच का काम कर सकती है।किरायेदार अगर बहुसंख्यक समुदाय का होता तो स्थिति जाँच पूरी होने के पहले ही कोई अलग रूप ले सकती थी।सार यह है कि लोग प्रधानमंत्री की छवि का उपयोग स्वयं के डरने में भी कर रहे हैं और दूसरों को डराने में भी !

एक मीडिया प्लेटफार्म की यूट्यूब चैनल बहस के दौरान एक पैनलिस्ट ने जब पहली बार कहा कि भाजपा देश पर पचास साल तक राज करने वाली है तो उनके कहे को ‘पंद्रह लाख हरेक के खाते में जमा हो जाएँगे‘ जैसा ही कोई जुमला मानकर ख़ारिज कर दिया।पैनलिस्ट ने जब अपने दावे को ज़ोर देकर इस संशोधन के साथ दोहराया कि मोदी ही अगले पचास सालों तक राज करने वाले हैं तो उनकी बात पर नए सिरे से सोचना पड़ा।यहाँ जोड़ा जा सकता है कि पैनलिस्ट न तो मोदी के भक्त है और न ही बहुसंख्यक समुदाय से आते हैं।उन्होंने अपने दावे के समर्थन में कुछ तर्क भी पेश किए।

‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की पूर्व संध्या पर 8 अगस्त 1942 के दिन बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में गांधी जी ने जब घोषणा की होगी कि वे पूर्ण जीवन जीना चाहते हैं और उनके अनुसार पूर्ण जीवन का अर्थ एक सौ पच्चीस वर्ष होता है तो कई लोग आश्चर्यचकित रह गए होंगे।गांधी जी ने आगे यह भी जोड़ा कि तब तक सिर्फ़ भारत ही नहीं बल्कि सारी दुनिया भी आज़ाद हो जाएगी।(गांधी जी की उम्र उस समय 73 वर्ष थी।)। गांधी जी दृढ़ इच्छा-शक्ति के व्यक्ति थे अतः उन्हें अपने आप पर पूरा विश्वास रहा होगा कि वे सवा सौ वर्ष तक जीवित भी रह सकते हैं और देश के लिए काम भी कर सकते हैं।उन्होंने डेढ़ सौ वर्ष जीवित रहने जैसी असम्भव-सी बात नहीं कही।

(हम सभी ने पिछले दिनों देखा कि किस तरह से सवा सौ वर्ष के स्वामी शिवानंद नंगे पैर चलते हुए पद्मश्री अलंकरण प्राप्त करने राष्ट्रपति भवन के दरबार हॉल में पहुँचे थे और बिना किसी सहारे के उन्होंने प्रधानमंत्री को साष्टांग प्रणाम किया था।)

चीन और रूस के राष्ट्रपतियों ने अपने देशवासियों को बता रखा है कि वे और कितने सालों तक अपने पदों पर बने रहकर उनकी सेवा करने वाले हैं।वर्तमान राष्ट्रपति जीनपिंग के नेतृत्व में चीनी संविधान में संशोधन के ज़रिए राष्ट्रपतियों के दो बार से अधिक पद पर बने रहने की समय-सीमा को ख़त्म कर दिया गया है।यानी 2003 से राष्ट्रपति 68-वर्षीय शी जिनपिंग अब जब तक चाहेंगे सत्ता में बने रह सकेंगे।उन्होंने अपने प्रतिद्वंद्वियों को भी सत्ता की होड़ से बाहर कर दिया है।

अपने लिए बनाए गए क़ानून के अनुसार ,69-वर्षीय रूसी राष्ट्रपति पुतिन भी अब 2036 तक सत्ता में रह सकेंगे।वे तब 83 वर्ष के हो जाएँगे।पुतिन 1999 से सत्ता में हैं।1999 से 2008 तक वे देश के प्रधानमंत्री थे।बाद में राष्ट्रपति बन गए।चीन और रूस दोनों में आने वाले कई वर्षों तक इस बात की कोई चर्चा नहीं होने वाली है कि जिनपिंग के बाद कौन ? या ‘हू आफ़्टर पुतिन ?’नेहरू के जमाने से भारत की राजनीति में चर्चा होती रही है कि ‘हू आफ़्टर नेहरू ? इंदिरा ? या वाजपेयी ? वाजपेयी जी के मामले में तो मानकर चला जाता था कि आडवाणी ही उनके उत्तराधिकारी होंगे।

प्रधानमंत्री मोदी ने जनता और भाजपा दोनों को ही इतने ज़बरदस्त तरीक़े से 24 घंटे एंगेज कर रखा है कि ‘हू आफ़्टर मोदी ?’ का विचार भी कोई अपने मन में नहीं ला सकता।भारत में प्रधानमंत्रियों के पद पर बने रहने की वैसे भी कोई संवैधानिक सीमा नहीं है।मोदी ने अपनी ओर से भी मन की बात कभी ज़ाहिर नहीं की कि वे कब तक पद पर बने रहना चाहते हैं ।उनकी नज़र में निश्चित ही ऐसे कई बड़े काम अभी बाक़ी होंगे जिन्हें उनके ही द्वारा पूरा किया जाना है।वर्तमान जिम्मेदारियों के साथ मोदी ने अपने आपको इतना एकाकार कर लिया है कि इकहत्तर वर्ष की आयु में भी वे ज़बरदस्त तरीक़े से काम करते हुए नज़र आते हैं।कहा जाता है कि उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगी जब सुबह उठकर आँखें ही मल रहे होते हैं ,मोदी ज़रूरत पड़ने पर कैबिनेट की मीटिंग भी बुला लेते हैं।प्रधानमंत्री की असीमित ऊर्जा में यह भी शामिल है कि वे प्रशंसकों के साथ-साथ विरोधियों को भी पूरे समय एंगेज किए रहते हैं।कहा जाता है कि प्रधानमंत्री के रूप में मोदी उस क्षण से कमजोर होने लगेंगे जिस क्षण से विपक्षी उनके बारे में सोचना और उनपर हमले करना बंद कर देंगे।

मोदी की दिनचर्या को लेकर एक पुरानी जानकारी के अनुसार प्रधानमंत्री सिर्फ़ साढ़े तीन घंटे की ही नींद लेते हैं।मोदी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ‘उनके डॉक्टर मित्र उन्हें लगातार सलाह देते रहते हैं कि कम से कम पाँच घंटे की नींद लेनी चाहिए पर मैं सिर्फ़ साढ़े तीन घंटे ही सो पाता हूँ।’ मोदी का यह इंटरव्यू ग्यारह साल पहले (2011) का है जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, प्रधानमंत्री नहीं बने थे।उनकी नींद को लेकर महाराष्ट्र भाजपा के प्रमुख चंद्रकांत पाटील ने पिछले दिनों कहा कि :’पीएम सिर्फ़ दो घंटे सोते हैं और बाईस घंटे काम करते हैं।वे प्रयोग कर रहे हैं कि सोने की ज़रूरत ही नहीं पड़े ।वे हरेक मिनट देश के लिए काम करते हैं।’ अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा देर रात तक काम करते थे पर पाँच घंटे की नींद लेते थे।

आलेख का सार यह है कि वे तमाम विपक्षी दल जिनका एकमात्र उद्देश मोदी को सत्ता से हटाना है उन्हें अपनी नींद के घंटे कम करना पड़ेंगे और जनता के साथ एंगेजमेंट बढ़ाना होगा।अपनी बात हमने एक पैनलिस्ट के इस दावे से प्रारम्भ की थी कि मोदी और पचास साल हुकूमत में रहने वाले हैं।सवा सौ साल तक सक्रिय रहने का फ़ार्मूला स्वामी शिवानंद से प्राप्त किया जा सकता है।विपक्षी दलों द्वारा आरोप लगाया जा सकता है कि मोदी को लेकर मैं उन्हें डरा रहा हूँ।

ये विभाजन की विभीषिका के ‘क्लाशनिकोव’ क्षण हैं !

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श्रवण गर्ग

ऐसा मान लेना ठीक नहीं होगा कि लगभग 183 अरब रुपए की हैसियत वाली मुंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में जो कुछ बड़े लोग इस वक्त डरे हुए हैं उनमें आमिर खान भी एक हो सकते हैं। वैसे लोगों की जानकारी में है कि फ़िल्म ह्यपीकेह्ण में अपने न्यूड पोस्टर और कथित तौर पर देवी-देवताओं का मखौल उड़ाने के कारण जब से आमिर खान कट्टरपंथियों के निशाने पर आए हैं वे तब से काफ़ी सोच-समझकर ही बात करने लगे हैं। याद किया जा सकता है कि ह्यतारे ज़मीन पर ह्य फ़ेम अभिनेता ने कोई सात साल पहले यह तक कह दिया था कि असहिष्णुता के माहौल के चलते उनकी पत्नी(अब पूर्व) को भारत में रहने में डर लगता है और वह बच्चों को लेकर देश छोड़ना चाहतीं हैं।उनके इस कथन को लेकर तब बवाल मच गया था।

यहाँ आमिर खान का उल्लेख ह्यद कश्मीर फाइल्सह्ण ने ज़रूरी बनाया है। आमिर ने कहा है कि :ह्ण वे इस फ़िल्म को ज़रूर देखेंगे क्योंकि वह हमारे इतिहास का एक ऐसा हिस्सा है जिससे हमारा दिल दुखा है। जो कश्मीर में हुआ पंडितों के साथ वो हक़ीक़त बहुत दुख की बात है। एक ऐसी फ़िल्म बनी है उस टॉपिक पर वह यकीनन हर हिंदुस्तानी को देखनी चाहिए। हर हिंदुस्तानी को यह याद करना चाहिए कि एक इंसान पर जब अत्याचार होता है तो कैसा लगता है।ह्ण

चीजें अचानक से बदल रहीं हैं। जो आमिर खान ह्यपीकेह्ण फ़िल्म में पीठ की तरफ़ से न्यूड नज़र आ रहे थे हो सकता है शूटिंग के दौरान सामने की तरफ़ से वैसे न रहे हों, ।सामने के दृश्य की दर्शकों ने मन से कल्पना कर ली हो। फ़िल्म का कैमरा आमिर खान की पीठ का ही पीछा कर रहा था ,पेट का नहीं! सितारों की पीठ के निशान तो दिख जाते हैं उनके पेट में क्या होता है ठीक से पता नहीं चल पाता।

बहस का विषय यह है कि जो बहुचर्चित फ़िल्म इस समय हमारी आँखों के सामने तैर रही है उसे आज़ादी (या विभाजन) की किसी नई लड़ाई की शुरुआत माना जाए या उसका समापन मान लिया जाए? इस सवाल का निपटारा इसलिए ज़रूरी है कि बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो बत्तीस साल पहले के घटनाक्रम पर संताप करने से ज़्यादा इस कल्पना से सिहरे हुए हैं कि अब आगे क्या होने वाला है ! दूसरे शब्दों में बयान करना हो तो सभी प्रकार के वंचितों और पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में इसे पहली फ़िल्म माना जाए या अंतिम फ़िल्म?इसमें आमिर खान से पूछे जा सकने वाले इस सवाल को भी जोड़ा जा सकता है कि इसी तरह के कथानक और दृश्यों वाली किसी और फ़िल्म में वे काम करना पसंद करेंगे या नहीं?

मैंने कुछ ऐसे ग़ैर-पंडित कश्मीरी लोगों से बात की जो स्वयं तो देश के दूसरे हिस्सों में काम कर रहे हैं पर उनके सगे-सम्बन्धी घाटी में ही हैं। जब जानना चाहा कि फ़िल्म को लेकर जो चल रहा है उस पर घाटी में किस तरह की प्रतिक्रिया है तो उन्होंने कहा कि फ़िल्म कश्मीर घाटी में तो अभी देखी नहीं गई है, पर लोगों ने आपसी बातचीत में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ दीं हैं :

पहली तो यह कि पंडितों के पलायन के मुद्दे को अब एक राजनीतिक हथियार बनाकर लम्बे समय तक जीवित रखा जाएगा। दूसरी यह कि अगर फ़िल्म को घाटी छोड़कर गए पंडितों का भी सत्तारूढ़ दल के लोगों की तरह ही समर्थन हासिल है तो फिर मान लिया जाना चाहिए कि वे अपने ख़ाली पड़े हुए घरों में लौटना ही नहीं चाहते हैं। मुमकिन है कि पिछले तीन दशकों के दौरान कुछ तो अपनी मेहनत और बाक़ी में सरकारी मदद के ज़रिए उन्होंने इतना कुछ प्राप्त कर लिया है कि अब घाटी में लौटकर नए सिरे से ज़िंदगी प्रारम्भ करना उन्हें ज़्यादा जोखिम का काम लगे।उनका यह भी कहना है कि जो पंडित इस वक्त घाटी में ही रह रहे हैं उनकी फ़िल्म को देखने में कोई रुचि है ऐसा ज़ाहिर नहीं होता।

भाजपा संसदीय बोर्ड की पिछले दिनों हुई बैठक में प्रधानमंत्री ने फ़िल्म को लेकर दो महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ कीं थीं।एक तो यह कि :ह्णपहली बार किसी ने जब महात्मा गांधी पर फ़िल्म बनाई और पुरस्कार पर पुरस्कार मिले तो दुनिया को पता चला कि महात्मा गांधी कितने महान थे।ह्ण उनकी दूसरी टिप्पणी यह कि :ह्णबहुत से लोग फ़्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात तो करते हैं लेकिन आपने देखा होगा कि इमर्जेन्सी पर कोई फ़िल्म नहीं बना पाया क्योंकि सत्य को लगातार दबाने का प्रयास होता रहा।भारत विभाजन पर जब हमने 14 अगस्त को एक ह्यहॉरर डेह्ण के रूप में याद करने के लिए तय किया तो बहुत से लोगों को बड़ी दिक़्क़त हो गई।ह्ण

ह्यद कश्मीर फ़ाइल्सह्ण के संबंध में संसदीय बोर्ड में कहे गए प्रधानमंत्री के कथन को उनके द्वारा पिछले साल पंद्रह अगस्त के दिन लाल क़िले से दिए गए भाषण के प्रकाश में देखें तो चीजें ज़्यादा साफ़ नज़र आने लगेंगी। उन्होंने कहा था :देश के बँटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफ़रत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों और भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। उन लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में।14 अगस्त को ह्यविभाजन विभीषिका स्मृति दिवसह्ण के तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया है।

सच्चाई यह है कि डर अब द कश्मीर फ़ाइल्स देखने को लेकर नहीं बल्कि इस बात पर सोचने से ज़्यादा लग रहा है कि अब अगर विभाजन की ह्यवास्तविकताह्ण पर फ़िल्में बनाईं गईं तो वे कैसी होंगी? क्या विभाजन की त्रासदी पर ( ह्यतमसह्ण सहित )अब तक बनाई गईं तमाम फ़िल्में ह्यवास्तविकताओंह्ण से एकदम दूर थीं या फिर उनमें उस हिंदू राष्ट्रवाद का अभाव था जिसे कि इस समय सबसे ज़्यादा ज़रूरी समझा जा रहा है? अगर यही सच है तो बहुत सम्भव है विभाजन की वास्तविकता का बखान करने वाली फ़िल्मों के कथानकों पर काम भी शुरू कर हो गया हो।

पाकिस्तान स्थित सिखों के पवित्र तीर्थ स्थल करतारपर साहिब की यात्रा के लिए तब पंजाब में बन रहे कॉरिडोर को लेकर प्रधानमंत्री ने कोई पाँच साल पहले गुरु पर्व पर भावना व्यक्त की थी कि अगर बर्लिन की दीवार गिर सकती है तो यह दीवार क्यों नहीं? प्रधानमंत्री का इशारा करतारपुर कॉरिडोर के लिए पाकिस्तान के साथ सीमा को खोलने को लेकर था पर उसका व्यापक अर्थ दोनों देशों के बीच विभाजन के कारण खड़ी हुई दीवार को गिराने की भावना से भी लिया गया था। विभाजन की वास्तविकताओं के घावों को सिनेमाई परदों पर दिखाने का मतलब अब यही समझा जाएगा कि केवल सीमाओं पर ही नहीं घरों के बीच भी लाखों-करोड़ों नई दीवारें खड़ी हो सकतीं हैं।

अंत में : साल 1947 की प्रमुख घटनाओं में भारत को आज़ादी का मिलना तो सर्वज्ञात है पर एक अन्य घटना यह है कि दुनिया के सबसे घातक हथियार अङ47 की पहली किस्त उसके आविष्कारक मिख़ाइल क्लाशनिकोव ने रूसी सेना को अपने हथियारों में शामिल करने के लिए सौंपी थी।अपने आविष्कार पर आजीवन गर्व करने वाले क्लाशनिकोव का जीवन के अंतिम दिनों (निधन 2013) में हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने रूसी ऑर्थोडॉक्स चर्च के प्रमुख को लिखे पत्र में कहा :ह्ण मेरी आत्मा की पीड़ा असहनीय हो गई है।मैं बार-बार अपने आपसे अनुत्तरित सवाल पूछता हूँ: मेरे द्वारा बनाई गई असाल्ट राइफ़ल से लोगों की जानें गई ,इसका मतलब है उनकी मौतों के लिए मैं ज़िम्मेदार हूँ। साल 2022 के पंद्रह अगस्त का दिन भी बस आने ही वाला है।

राजनीति- चुनाव और फिर सत्ता पाने के लिए चुनावी वादे बहुत खास होते

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राघवेंद्र सिंह

राजनीति- चुनाव और फिर सत्ता पाने के लिए चुनावी वादे बहुत खास होते हैं।  पार्टी सत्ता में है तो फिर किए कामों को गिनाने, अहसास कराने, रिपोर्ट कार्ड बताने के साथ चुनाव जीतने का नया रोड मैप भी जरुरी होता है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में दोबारा सरकार में आई भाजपा ने दो बड़े संकेत दिए हैं। उत्तर प्रदेश में मदरसों में राष्ट्रगान कराने का निर्णय और उत्तराखंड में कॉमन सिविल कोड के लिए कमेटी का ऐलान कर दिया गया है। गुजरात सरकार हाल ही में पहली कक्षा से 12 तक श्रीमद भागवत गीता पढ़ाने का फैसला कर ही चुकी है। गुजरात में इसी साल दिसंबर 2022 में चुनाव होना है। इसके अगले साल 2023 दिसंबर में मध्यप्रदेश समेत राजस्थान और छत्तीसगढ़ भी चुनाव होना है। ऐसे में एमपी से भाजपा के सांसद (राज्य सभा ) अजय प्रताप सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कॉमन सिविल कोड लागू करने के लिए एक पत्र लिख हलचल पैदा कर दी है।
मुख्यमंत्री चौहान को लिखे पत्र में सांसद सिंह ने कहा है कि कॉमन सिविल कोड लागू करने के मामले में उत्तराखंड सरकार के निर्णय को स्वागत योग्य बताते हुए आग्रह किया है कि अपने प्रदेश में समान नागरिक संहिता के पहल आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने विधि विशेषज्ञ, न्यायविद, सामाजिक कार्यकर्ता, धार्मिक और भाषीय समूह के प्रतिनिधियों आदि की समिति बनाने का भी आग्रह किया है। उनके इस पत्र को पार्टी नेतृत्व की तरफ से संकेत के रूप में भी देखा जा रहा है। अजय प्रताप सिंह की खास बात यह है कि वे मुख्यमंत्री चौहान के साथ केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से बेहद करीबी हैं। जानकार इसका यह भी निकाल रहे हैं कि प्रदेश की चौहान सरकार गुजरात,उप्र और उत्तराखंड की तर्ज पर कोई बड़े निर्णय कर सकती है। वैसे भी जनता से जुड़े और जनकल्याण वाले फैसले लेने में मुख्यमंत्री तेजी से काम कर रहे हैं। प्रदेश के विधानसभा चुनाव डेढ़ साल में होना हैं लेकिन कर्मचारियों के हित में डी ए बढ़ाने का निर्णय कर सीएम शिवराज ने सबको चकित कर दिया था। उम्मीद की जा रही है कि मप्र में कॉमन सिविल कोड से लेकर मदरसों में राष्ट्रगान और गुजरात की भांति स्कूली पाठ्यक्रम में श्रीमद्भागवत को पढ़ाए जाने पर निर्णय लिए जा सकते हैं। सबको पता है कि चौथी बार के सीएम शिवराज आक्रमक हैं और फ्रंट फुट पर खेल रहे हैं। 

इसके साथ ही भाजपा ने अपने लोकसभा चुनाव के एजेंडे भी तय कर दिए हैं। जाहिर है कि ये पार्टी लाइन जिन प्रदेशों में विधानसभा चुनाव होने हैं उनमें उभर कर सामने आएगी। लोकसभा चुनाव के लिए भी  उप्र- उत्तराखंड की सरकारों ने इस पर काम शुरू कर दिया है। मतलब आने वाले समय में कॉमन सिविल कोड और जनसंख्या नियंत्रण बिल चुनाव के मुख्य मुद्दे होंगे।

पचमढ़ी में चिंतन…

गर्मी के मौसम हो तो पहाड़ों की रानी पचमढ़ी में विधानसभा की बैठकें भी हुआ करती थी जो बाद में बंद कर दी गई। लेकिन चिंतन बैठकों के लिए पहाड़ों की रानी कांग्रेस और भाजपा दोनों की पसंदीदा है। इस बार भी जिन मंत्रियों का विभागीय कामकाज और कार्यकर्ताओं व जनता से सम्पर्क के साथ संबन्धों को लेकर प्रदर्शन अच्छा नही समझाईश दी गई है। पार्टी का प्रदेश व केंद्रीय नेतृत्व भी विधायक- मंत्रियों के कामकाज पर फीड ले रहा है। इस काम में सीएम के अपने सूत्र भी खबरों का आदानप्रदान करते रहते हैं। कई दफा सीएम निजी चर्चा में भी उनका जिक्र मंत्री विधायकों से कर देते है। अब चूंकि चुनावी मूड माहौल शुरू हो चुका है तो ऐसे में जिनका रिकार्ड सुधर नही रहा हैं उन्हें अगली बैठकों में टिकट कटने और बचने की फाइनल एडवाइजरी भी निजी स्तर पर दी जा सकती है। कुल मिलाकर कुछ मंत्रियों के लिए पचमढ़ी चिंतन कम चिंता बैठक ज्यादा साबित हो रही है। मंत्रियों व विधायकों के लिए अगले छह से आठ महीने बहुत अहम होने वाले हैं।

10-day ‘Culinary Heist’ Asian and Italian Food Festival begins at Courtyard by Marriott

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TIO

Bhopal, March 26, 2022: A 10-day ‘Culinary Heist’ Asian and Italian Food Festival is being organised at Courtyard by Marriott, Bhopal at its multi cuisine restaurant MoMo Café between 7.30 to 11 pm. Food lovers who are passionate about international cuisine are enjoying lip-smacking Asian and Italian dishes. With more than 10 years of experience in making these dishes, the team of chefs is preparing different dishes every day with new menus to cater to the food lovers. The festival that started on March 25 will last till April 3.

Rakesh Upadhyay, General Manager, Courtyard by Marriott, Bhopal informed this at a press conference organised here on Saturday. He said that in the last few years, the food lovers of Bhopal have developed taste for international food. They want to get to taste a variety of international dishes that taste fresh and authentic. In order to satisfy their cravings, we have come up with Asian and Italian Food Festival.

Amol Patil, Executive Chef, Courtyard by Marriott, Bhopal, said that the Mediterranean diet is considered to be very healthy. It is a great combination of health and taste.

He further added that Chef Shankar and Chef Anil and their team bring together a unique blend of modernity to traditional spices and generation old recipes to delight guests with a range of delicious dishes- from Starters to Sweet Dishes. Besides buffet there will also be live counters where guests can order their favourite dishes.

Major Veg and Non-Veg dishes that will be served during the festival include Tom Kha Gai soup, Pumpkin and Shrimp Soup, Raw Banana Salad, Crisp Fried Mushroom, Southern Spiced Cottage Cheese, Thai Masaman Curry, Phad Phak Bung, Aspragus Mix Mushroom, Jasmine Rice, Stuffed Cabbage Dolmas, Classic Eggplant Parmigna, Kai Takarai, Risota Con Piselli and many more.

In addition, traditional pasta, risotto and gnocchi are available at the live counters. Food lovers may also0 order customize pizza on live counters.

कानून को ठेंगा दिखाते बुलडोजर

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राकेश अचल

सौ साल पहले बुलडोजर बनाने वाले किसान जेम्स कमिंग्स और ड्राफ्ट्समैन जे अर्ल मैकलियोड ने सोचा भी न होगा की खेती-किसानी के लिए ईजाद की गयी उनकी मशीन कालान्तर में एक राजनीतिक हथियार बन जाएगी 1923 में बुलडोजर के लिए पहला डिज़ाइन बना.अमेरिका के मोरोविले, कान्सास में सिटी पार्क में बुलडोजर की एक प्रतिकृति प्रदर्शित की गई.18 दिसंबर, 1923 को, कमिंग्स और मैकलियोड ने यू.एस. पेटेंट दायर किया जिसे बाद में 6 जनवरी, 1925 को “ट्रैक्टर के लिए अटैचमेंट” के लिए जारी किया गया था।

भारत में आज बुल्डोजर एक मुहावरा बन गया है .अब मंत्रिमंडल से लेकर मुख्यमंत्री तक बुलडोजर होने लगे हैं .कलियुग के ये बुलडोजर अब क़ानून को ठेंगा दिखते हुए आगे बढ़ रहे हैं .आप कह सकते हैं की बुलडोजर राजनीति को तानाशाही प्रवृत्ति की और धकेल रहे हैं ,लेकिन किसी को इसकी फ़िक्र नहीं है. फ़िक्र छोड़िये अब बुलडोजर बनने की प्रतिस्पर्द्धाएं शुरू हो गयीं हैं .लेकिन दुर्भाग्य ये है कि बुलडोजर को आज भी गरीब ही अपना शिकार दिखाई देता है. रसूखदार पर बुलडोजर केवल बदले की नीयत से चलता है .अब बुलडोजर को क़ानून और व्यवस्था के नाम पर अपराधियों में भय पैदा करने के लिए खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा है .
आदि मान्यता है कि ‘ जड़ ‘ व्यक्ति हो या समुद्र विनय नहीं मानता ,उसके लिए भय पैदा करना ही पड़ता है तभी उसके मन में क़ानून के प्रति प्रीति पैदा होती है. त्रेता में राम जी को भी लंका जाने के लिए समुद्र पर पुल बाँधना था ,उन्होंने समुद्र से विनती की लेकिन उसने नहीं सुनी ,तब उन्होंने समुद्र को भयाक्रांत करने के लिए समुद्र को सुखा देने का विकल्प चुना .

विनय न मानत जलधि,जड़ गए तीन दिन बिन बीत
बोले राम स्कोप तब भय बिन होय न प्रीति
संयोग देखिये की हिन्दुस्तान में रामभक्त सरकारें अब क़ानून को ठेंगा दिखाते हुए बुलडोजर के जरिये भय उतपन्न करने का अमानवीय और गैर कानूनी प्रयास कर रहीं हैं. पुलिस का इकबाल बुलंद करने में नाकाम सरकारों ने बुलडोजर का इस्तेमल शुरू किया. उत्तर प्रदेश ने इस काम में बढ़त हासिल की और बाद में पड़ौसी मध्य प्रदेश से उसकी बुलडोजर के राजनीतिक इस्तेमाल को लेकर स्पर्द्धा शुरू हो गयी .पुलिस को पालतू बना चुकी सरकारें अब केवल राजनीतिक बदले के लिए ही नहीं बल्कि समाज में असामाजिक तत्वों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के नाम पर झूठी वाह-वाही लूटने के लिए बुल्डोजर का निर्मम इस्तेमाल कर रहीं हैं .

मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में प्रशासन ने डकैती के फरार आरोपी छूटइ ,बल्लू और शैली के खेतों में खड़ी गेंहूं की फसल पर बुलडोजर चला दिया .जिला प्रशासन को किसी अदालत ने ऐसा करने के लिए नहीं कहा था .खेत वर्षों से फरार आरोपियों के पास थे,लेकिन प्रशासन को ये अचानक अवैध दिखाई देने लगे.प्रशासन ने इन खेतों को सरकारी जमीन मान लिया .यहां तक भी ठीक है लेकिन इन खेतों में खड़ी फसल को उजाड़ने से पहले किसी ने ये नहीं सोचा की गेंहू की फसल का कोई दोष नहीं है. उसे काटा जा सकता था,खलिहानों तक पहुंचाया जा सकता था .लेकिन नौकरशाहों को क्या पता की खेतों में फसल कितने खून- पसीने से पैदा होती है ?

इंदौर में दो गुटों में हुए विवाद में एक युवक की मौत हो गई थी और 6 लोग घायल हुए थे. इसके बाद जिला प्रसाशन ने इस मामले के 7 आरोपियों के घर पर बुलडोजर चलाकर उनके मकान को जमींदोज करने की कार्रवाई की. एसडीएम ने कहा है कि मौके पर मुख्यमंत्री ने अपराधियों पर नकेल कसने के निर्देश दिए हैं. इसके बाद यह कार्रवाई की गई है. आरोपियों के घर के लोग रात में ही घर से फरार हो गए थे. फरार आरोपियों की गिरफ्तारी न होने की दशा में प्रशासन और पुलिस को अदालत से आरोपियों की सम्पत्ति जब्त करने के लिए लम्बी कार्रवाई करना पड़ती है लेकिन जब अदालतों से ऊपर मुख्यमंत्री के निर्देश हों तो किसी अदालती आदेश की क्या जरूरत ?
प्रदेश के शहडोल और मंदसौर जिले में भी बलात्कार के आरोपियों की गिरफ्तारी के बाद उनके मकानों को अवैध बताकर बुलडोजर चला दिए गए .किसी अपराधी के प्रति किसी की कोई सहानुभूति नहीं हो सकती लेकिन क़ानून के राज में किसी अपराधी के खिलाफ क़ानून से हटकर भी नहीं किया जा सकता ,लेकिन जब सियासत के हाथ में बुलडोजर हो तो उसे भी कुम्भकर्ण की तरह कुछ दिखाई नहीं देता .मुख्यमंत्रियों को लगता है कि वे जनसेवक के बजाय बुलडोजर बनकर अपना रूतबा कायम रख सकते हैं .


उत्तर प्रदेश में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने बाबा योगी आदित्यनाथ तो अपने आपको बुलडोजर मुख्यमंत्री कहलवाने में फक्र महसूस करते हैं. उन्होंने अपराधों के साथ ही अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ बुलडोजर का जमकर इस्तेमाल किया .मध्यप्रदेश में विकास के लिए बुलडोजर का इस्तेमाल पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने किया था. पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपने राजनीतिक विरोधियों द्वारा सरकारी जमीनों पर कब्जे कर बनाई गयी इमारतों को जमीदोज करने के लिए जमकर बुलडोजर चलाया और मात्र 18 माह में नए कीर्तिमान बना दिए .भीतरघात की वजह से सत्ता गंवा बैठे कमलनाथ की कार्रवाई का बदला सत्ता में बैशाखियाँ लगाकर वापस लौटे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी अब पूरी दमखम से कर रहे हैं .


सरकारी समपत्तियों को रसूखदारों के कब्जे से मुक्त करने के लिए अदालती आदेशों पर बुलडोजर के इस्तेमाल से किसे इंकार हो सकता है ?लेकिन दुर्भाग्य ये है कि सरकार का बुलडोजर अपनी एक आँख बंद कर चलाया जाता है. ग्वालियर समेत प्रदेश के सभी छोटे-बड़े शहरों में सरकारी जमीनों ही नहीं बल्कि नदी–नालों तक पर रसूखदारों के अतिक्रमण हैं लेकिन मजाल की बुलडोजर उनकी तरफ मुंह करके भी खड़ा हो सके .बुलडोजर को गरीब,गुरबे ही दिखाई देते हैं .जो न आह भर सकते हैं और न बुलडोजर का मुकाबला कर सकते हैं .उनके खेतों में खड़ी फसलें भी बुलडोजरों के आगे निरीह हैं .


अपराधों के मन में क़ानून का भय पैदा करने और प्रदेश को अपराधमुक्त बनाने की मुहिम के लिए क्या बुलडोजर ही एकमात्र विकल्प है ? क्या अपराधियों की सम्पत्ति को कुर्क कर उनका आमजन के हित में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ? क्या खेतों में खड़ी फसलों को बुलडोजर से रोंदना मानसिक दिवालियापन नहीं है ? क्या ऐसे सनकी प्रशासन के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकता है ? शायद नहीं क्योंकि खुद मुख्यमंत्री और उनकी सरकार अदलातें बनने की धृष्टता दिखने में लगीं हैं .प्रदेश में हर दिन लगभग 80 हत्याएं और 77 बलात्कार होने का आधिकारिक आंकड़ा एनसीआरबी का है .क्या सरकार प्रतिदिन हत्या और बलात्कार के सभी आरोपियों की सम्पत्ति पर बुलडोजर चलाती आयी है ?.ऐसा नहीं होता,ये केवल तमाशा है .क़ानून को ठेंगा दिखने का और झूठा रूतबा ग़ालिब करने का .जनता को सरकार की तानाशाही को सहने का रियाज कराया जा रहा है शायद .