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पंकज शुक्ला
नवरात्रि के अंतिम दिन देवी पूजन और कन्याभोज के साथ ही शक्तिपूजा का एक और अध्याय समाप्त होगा। पूजा के बाद अब हमें बेटियों की सेहत और सामाजिक स्थिति पर भी बात करने का समय निकालना चाहिए। उन वर्जनाओं को विसर्जित करने की तैयारी करनी चाहिए जिन्हें सदियों से हमारा समाज भेड़ चाल से मानता आ रहा है। पीरियड/माहवारी, सेनेटरी नैपकिन या पैड की बात करना आज भी हमारे देश में सहज नहीं है। गांवों में तो बिल्कुल नहीं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में इसे लेकर आज भी बहुत सी बंदिशें और भ्रम हैं। क्या आप यकीन करेंगे कि इन वर्जनाओं पर बात नहीं करने जैसी ही वजहों से सेनेटरी नैपकिन के उपयोग के मामले में मप्र देश का दूसरा सबसे पिछड़ा राज्य है।
आमतौर पर परहेज किए जाने वाले इस मुद्दे पर बात करनी ही होगी क्योंकि (नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे 4 के अनुसार) स्कूल जाने वाली 24 फीसदी लड़कियां मासिक धर्म के दौरान कक्षा से अनुपस्थित रहती हैं। 52 प्रतिशत किशोरियां ऐसी हैं जिन्हें उनके पहले मासिक धर्म से पूर्व मासिक धर्म के बारे में पता नहीं होता है। 54 प्रतिशत किशोरियों का कहना है कि माहवारी के बारे में जानकारी पाने का मुख्य स्रोत उनकी माताएँ ही होती हैं, जिनमें से 70 प्रतिशत माताएँ ऐसी हैं जो माहवारी को गंदा मानती हैं। 15 से 24 वर्ष के बीच की सिर्फ 57.6 प्रतिशत युवा महिलाएँ ही वर्तमान में सुरक्षित व स्वच्छ मासिक धर्म साधनों का उपयोग करती हैं। आज भी हमारे देश में बड़ी संख्या में महिलाएं माहवारी के दिनों में कपड़े का ही इस्तेमाल करती है। जिससे उन्हें तमाम तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, वे बीमार होती हैं, संक्रमण का सामना करती हैं और कई तरह के हार्मोन बदलावों को अकेली झेलती हैं।
इन तथ्यों को जानने के बाद क्या हम सब की यह ज़िम्मेदारी नहीं है कि हम ऐसे तमाम अंधविश्वासों, मिथकों और वर्जनाओं को दूर करने की पहल करें? महिला आंदोलन और कुछ सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों के कारण इन स्थितियों में काफी बदलाव तो आया है लेकिन अभी बहुत काम करना बाकी है। सबसे पहले तो इस बारे में बात करने और आधे-अधूरे ज्ञान को सही जानकारी में बदलने की आवश्यकता है। किशोरियों को माहवारी स्वच्छता के बारे में बताने की जरूरत है। यूनिसेफ के साथ मिल कर कुछ संगठनों ने मप्र में यह पहल की है। सोशल मीडिया के सेलिब्रिटी दीपा बुल्लर खोसला, श्रेया जैन, शौर्या संध्या तुल्स्यान ने हरदा में जारी अभियान को समर्थन किया है। वे चाहती हैं कि बदलाव की बात बंद कमरों में नहीं बल्कि खुल कर हो।
हमें भी परिवार में बेटियों के साथ उनकी समस्याओं पर बात करना होगी। मां को अपनी किशोरावस्था के अनुभवों और बंदिशों से आगे जा कर बेटी से संवाद करना होगा। स्वयं भी पता कीजिए और जानिए कि आपकी बेटी को माहवारी की स्वच्छता के बारे में कितनी जानकारी है। इस बारे में अपनी और अपने परिवार की गलतफहमियों को दूर कीजिए। उनकी शंकाओं का समाधान कीजिए। सेहत के बारे में सीखना जारी रखिए। अपनी बेटी को समझने की कोशिश कीजिए। वह शायद ऐसे मामलों के बारे में बात करने से झिझक महसूस करे।
इस सिरे से बात शुरू होगी तो बाल विवाह, कुपोषण, एनीमिया जैसी समस्याओं का समाधान भी शुरू होगा। बेटियां उपचार और स्वच्छता के अभाव में जान नहीं गंवाएंगी। इस दिशा में अभी ही पहल करनी होगी, आखिर, वर्जनाओं के कारण होने वाले देश के आर्थिक नुकसान की फिक्र करना भी तो हमारा धर्म है।
