राकेश अचल
देश बहुत क़िस्म वाला है.दिल्ली में इस समय संसद के बाहर भी संसद चल रही है और संसद के भीतर भी संसद जारी है .लेकिन दोनों संसद सहयोगी नहीं है,प्रतिद्वंदी भी नहीं है ,लेकिन एक दुसरे की सुनती भी नहीं हैं.संसद भवन के भीतर की संसद जनादेश से बनी संसद है और संसद के बाहर की संसद भावी जनादेश है .बाहर की संसद चाहती है कि भीतर की संसद अपने बनाये किसानों से जुड़े अपने तीनों क़ानून रद्द कर दे ,जबकि जनादेश की संसद चाहती है कि बाहर बैठी संसद अपने घर जाये और बनाये गए कानूनों का सम्मान करे .
लोटनर में ही ये संसदें मुमकिन होती हैं. दोनों संसदें जिद्दी हैं एक किसानों की यानि मवालियों की संसद है और एक संसद करोड़पतियों की संसद है.उन बाहुबलियों की संसद है जिनके खिलाफ एक से एक जघन्य माले देश भर की अदालतों में विचाराधीन हैं कल्पना कीजिये कि यदि इन विचाराधीन आरोपियों में से यदि आधों को भी आज सजा सुनाए दी जाये तो देश की जनादेश से बनी इस संसद का क्या होगा ?
किसानों की संसद हो गैर किसानों की संसद ,उसे संवेदनशील तो होना ही चाहिए.दुनिया में कितने देशों की संसदें ऐसी हैं जो देश की ४८ फीसदी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों की अनसुनी करने पर आमादा है .संसदें बनाई ही इसीलिए जातीं हैं कि वे सुने,और अपने मतदाताओं के मन के अनुरूप क़ानून बनायें. संसदें जनता की मर्जी के बिना उनके कल्याण के क़ानून न बना सकती है और न उसे बनाना चाहिए ,लेकिन भारत में ऐसा होता आया है और हो रहा है,कल भी होगा .
अन्नदाता कहे जाने वाले किसान किसान पिछले साल 26 नवंबर से राष्ट्रीय राजधानी की अलग-अलग सीमाओं पर तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और उसे निरस्त करने की मांग कर रहे हैं. केंद्र सरकार का कहना है कि तीन नए कृषि कानून किसानों की भलाई के लिए लाए गए हैं और यह लंबे समय में उन्हें फायदा पहुंचाएंगे.सरकार और किसानों के बीच 10 दौर से अधिक की बातचीत हो चुकी है, लेकिन कृषि कानूनों के मुद्दे पर अभी भी गतिरोध बना हुआ है. संयुक्त किसान मोर्चा 40 से अधिक किसान संघों का एक मोर्चा है.
बीते ९ माह से चल रहे इस किसान आंदोलन के साथ केंद्र सरकार का रवैया सचमुच एक इतिहास है. इतिहास इसलिए कि सरकार ने इस किसान आंदोलन के चलते पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव करा लिए और कोरोना महामारी की दो-दो लहरें भी झेल लीं.लोग कोरोना से भी मरे आएऔर किसान आंदोलन में भी कोई पांच सौ से अधिक किसानों की जान आंदोलन के कहते गयी ,किन्तु सरकार का दिल नहीं पसीजा .समझ में नहीं आता कि सरकार ने किसानों की मांगों को अपनी प्रतिष्ठा से क्यों जोड़ लिया है ?
किसान आंदोलन के साथ एक भाजपा को छोड़ पूरे देश की सहानुभूति है. सब चाहते हैं कि किसानों की बात मानी जाये. किसान आंदोलन को देश के भीतर से ही नहीं देश के बाहर से भी सहानभूति हासिल है ,लेकिन इससे समस्या का हल तो नहीं हो रहा .समस्या जहाँ की तहाँ है .मन की बात समझने और करने वाले प्रधानमंत्री भी किसानों के सामने तनकर खड़े हैं.वे किसानों के सामने झुकने को अपनी तौहीन समझ रहे हैं .वे किसानों के बीच जाने का साहस नहीं जुटा पाए हैं .जबकि किसान तो किसान हैं .वे न राष्ट्रद्रोही हैं और न आतंकवादी .
देश का दुर्भाग्य ये है कि कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था वाले इस देश में किसानों को जो सम्मान मिलना चाहिए ,वो सम्मान सरकार देने को राजी नहीं है. सरकार लगातार कहती आई है कि आंदोलनरत किसान फर्जी हैं,संसद घेर कर बैठे किसान मवाली हैं इसलिए उनसे बात करने का क्या औचित्य ?सरकार स्पष्ट कर चुकी है कि वो किसी भी सूरत में बनाये गए क़ानून वापस नहीं लेगी .अब सवाल ये है कि क्या देश के आंदोलनकारी किसानों पर इतना धैर्य,सामर्थ्य है कि वे सरकार के झुकने तक अपने आंदोलन को ज़िंदा रख पाएंगे ?
आपको याद होगा कि केंद्र कि गठबंधन सरकार किसानों के मुद्दे पर अपने एक प्रमुख सहयोगी दल शिरोमणि अकाली दल की बलि दे चुकी है.इससे पहले महारष्ट्र में शिवसेना भाजपा से दूर जा ही चुकी है.अब सरकार के पास क़ुरबानी देने के लिए कुछ बचा नहीं है.जाहिर है कि सरकार किसानों के लिए अपने किये-धरे पर पानी नहीं फेरेगी उसे कुछ महीने बाद फिर से कुछ बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ना ही. सरकार का फोकस इन चुनावों पर है किसानों पर नहीं .
किसानों का आंदोलन कहने को अराजनीतिक है.संसद में भाजपा को छोड़ शायद ही कोई ऐसा दल होगा जिसने किसान आंदोलन का बाहर से समर्थन न किया हो,लेकिन ये आधा-अधूरा समर्थन है .कांग्रेस के राजकुमार बिना नंबर वाले ट्रेकटर पर सवार होकर संसद भवन पर प्रदर्शन कर चुके हैं.मुझे लगता है कि आने वाले दिनों में किसानों की ये लड़ाई और तेज होगी ,तब पता चलेगा कि असली संसद कौन सी है ?सड़क पर बैठती संसद या संसद भवन में बैठी संसद ?