पंकज शुक्ला
लेखक वरिष्ठ पत्रकार है
इसबार के लोकसभा चुनावों में तमाम परिणामों के अलावा यह तथ्य रेखांकित हुआ कि भारतीय लोकतंत्र से जातीय राजनीति की काली छाया दूर हो गई है। जनता राजनीति के उस स्याह सच से वाकिफ हो गई जो बांट कर राज करना जानती थी। मगर, ऐसे तमाम दावे दो दिनों के भीतर ही टूटते नजर आ रहे हैं।
ऐसी बातें खुशफहमी से गलतफहमी में तब्दील होती जा रही हैं। जातीय संकीर्णता से मुनाफा कमाने की राजनीति का अंत हुआ या नहीं यह कहना मुमकीन नहीं है मगर यह तो साफ-साफ कहा जा सकता है कि समाज में जातीय भेदभाव की जड़ें खत्म नहीं हुई हैं। समाज के भीतर ही नहीं, सतह पर भी जातीय छुआछूत अपने पूरे क्रूर रूप में मौजूद है। हमारा समाज बार-बार सिद्ध कर रहा है कि समरसता लाने के तमाम प्रयास बहुत बौने हैं।
कबीर बहुत पहले कह गए थे –‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान, मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।’ इस कहे के इतने सालों बाद भी हम सोशल मीडिया पर जाति के आधार पर किसी व्यक्ति के ज्ञान, कौशल पर सवाल उठाते जोक पढ़ कर निर्लजता से हँसते हैं। चुटकुले के रूप में बहुत बात बार-बार पढ़ते हैं कि सरकारी अस्पताल में आरक्षण वाले डॉक्टर होते हैं जिन्हें इलाज नहीं आता और जिन्हें ज्ञान हैं वे तो प्रायवेट अस्पतालों में काम कर रहे हैं। ऐसे अपमानजनक ‘जोक’ पर हँसते समय हम यह भूल जाते हैं कि इस तरह हम जातीय खाई को गहरी करते जा रहे हैं। जिस व्यक्ति के बारे में कुछ जानते नहीं, उसके कौशल को जातीय आधार पर जज करते समय हम यह भूल जाते कि जिन्हें उच्च माना जा रहा वे भी प्राकृतिक रूप से ढपोरशंख हो सकते हैं। जातीय अभिमान के कारण उपजी छुआछूत को दूर करने के लिए समय-समय पर कई समाजसेवियों ने खूब-खूब काम किए। उन्होंने प्राण तक गंवा दिए मगर दुर्भाग्य है कि 21 वीं सदी के हाईटेक युवा भी शताब्दियों पुराने संकीर्ण समाज का ही प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो आज हमें डॉ. पायल तड़वी की आत्महत्या पर शर्म आ रही होती। मुंबई में मेडिकल की पढ़ाई कर रही जलगांव की छात्रा डॉ. पायल ने रैगिंग से तंग आकर हॉस्टल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली है। पुलिस के अनुसार मेडिकल कॉलेज की तीन वरिष्ठ छात्राएं पायल की रैगिंग कर रहे थे। पायल की मां ने कहा है कि मेरी बेटी को उसकी जाति के आधार अपमानित व प्रताड़ित किया जाता था। डॉ. पायल एमडी की छात्रा थीं। एमबीबीएस तक उनके कॅरियर में माता-पिता का अथक परिश्रम, जमा पूंजी, सपने सभी का निवेश हुआ था मगर जातीय भेद के चलते कुछ पलों में सबकुछ खाक हो गया।
यह सब तब हो रहा था जब हम लोकसभा चुनावों में जातीय राजनीति के तरीकों के ध्वस्त होने पर आनंदित हो रहे थे। मगर, ऐसे उदाहरण बताते हैं कि राजनीति के जातियों को साधने के पैंतरें और समीकरण बदले हैं, समाज का मुखौटा बदला है, भीतर की मांसपेशियां तो वहीं हैं। संकीर्ण, जातीय दंभ और हेय भाव से भरा हुआ समाज। जरा विचार कीजिए, कितना आसान होता है किसी पर फब्तियां कस देना? अपनी जाति को ऊंचा और दूसरे की जाति या वर्ग को नीचा बता कर व्यंग्य करना भी हमारे लिए मनोरंजन हो सकता है? मगर, ऐसा करते समय शायद ही कोई सोचता होगा कि हमारा यह ‘मजाक’ जानलेवा हो सकता है। छुआछूत के कारण किसी की जान जाती है तो कोई आरक्षण के चलते अपना हक छिन लिए जाने से दु:खी हो कर जान दे देता है। इधर का हो या उधर का, युवा तो जातिवाद की भेंट चढ़ ही रहा है।
इस जातिवाद को बढ़ावा देने में हमारी राजनीति का बढ़ा योगदान है मगर यह जातीय संकीर्णता अकेले राजनीतिक कोशिशों से न मिटेगी। इसके लिए पूरे समाज को संघर्ष करना होगा। हमने यह संघर्ष नहीं किया तो यह जातिवाद कल हमारे कई और बच्चों को ‘लाशों’ में तब्दील कर देगा।