शान ‘

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इक रूप नया कविता हर रोज़ गढ़ रही है !
मैं कह रहा हूँ शान से मेरी शान बढ़ रही है !!

हां ! बह रही है झूमते मेरे देश में गंगा,
हवा आयी है चूमने आज मेरे देश तिरंगा,

फ़ौज मेरे देश की जो सरहद पे लड़ रही है !
मैं कह रहा हूँ शान से मेरी शान बढ़ रही है !!

इक जवान के ही बराबर मेरे देश का किसां है,
इक लड़ रहा देश को बराबर दोनों का ईमां है,

मिट्टी मेरे वतन की जो सरहद पे उड़ रही है !
मैं कह रहा हूँ शान से मेरी शान बढ़ रही है !!

घर से दूर है इक बेटा जहां बियाबान बहुत है,
उसके लिए उसकी वर्दी उसका सम्मान बहुत है,

निःस्वार्थ ही फौज देश की रक्षा में लड़ रही हैं,
मैं कह रहा हूँ शान से मेरी शान बढ़ रही है !!

किसी एक ही नहीं हर एक की शान बन रही है,
है देश की तरक़्क़ी तो नयी पहचान बन रही है,

इक रूप नया कविता हर रोज़ गढ़ रही है !
मैं कह रहा हूँ शान से मेरी शान बढ़ रही है !!

प्रमोद कुमार आर्य
नई दिल्ली