बाखबर
राघवेंद्र सिंह
क्षेत्र कोई सा भी हो बिना पराक्रम और पुरुषार्थ के सफलता मुकद्दर साथ दे तो नामुमकिन भले ही न हो पर मुश्किल जरूर होती है। लेकिन भाग्य हमेशा साथ नहीं देता। सियासत भी इससे अलग नहीं है। इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव के सिलसिले में हम चर्चा करना चाह रहे हैैं। मसला चाहे मध्यप्रदेश को हो, छत्तीसगढ़ या राजस्थान का हो भाजपा जबरदस्त इलेक्शन मोड पर है। इसके इतर कांर्ग्रेस आलस को छोड़ कुछ अनमनी सी और अंदरुनी कलह के दौर से गुजर रही है।
Rahul Baba is so difficult to win …
अभी बहुमत मिलेगा या नहीं कुछ पक्का नहीं है। सब पराक्रम और धैर्य पर निर्भर है। लेकिन कांर्ग्रेस में मुख्यमंत्री कौन बनेगा इसको लेकर सिरफुटोव्वल के संकेत मिल रहे हैैं। हालांकि कांग्रेर्सी कल्चर में यह सब नया नहीं है। मगर 15 साल के वनवास के बाद थोड़ी भी चूक उन्हें फिर सत्ता के बाहर कर सकती है। कुल मिलाकर कह सकते हैैं सूत न कपास और जुलाहे में लट्ठम लट्ठा।
सोनिया गांधी के बाद कांर्ग्रेस की कमान युवा राहुल बाबा के हाथ में है। अब चुनाव में हार का मतलब सीधा ठीकरा राहुल गांधी के सिर। बचाव में अगर मगर, किंतु परंतु का कोई अवसर राहुल टीम के पास नहीं होगा। यह सब इसलिए भी 25 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री जन आशीर्वाद यात्रा के समापन पर मध्यप्रदेश आ रहे हैैं। दौरे के मान से मोदी मध्यप्रदेश में अब तक चार साल में सबसे ज्यादा दौरे करने वाले प्रधानमंत्री हो गए हैं। चुनाव तक आते आते यात्रा का आंकड़ा दर्जन के पार हो जाएगा।
इस तुलना में राहुल बाबा ने दो चर्चित दौरे किए हैैं एक तो मंदसौर में किसान गोली के दौरान पिछले साल जून में वे आए थे। इसके बाद गोलीकांड की बरसी पर फिर उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इससे उलट भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पिछले साल अगस्त से अब तक तीन बार दौरा कर सरकार संगठन और कार्यकतार्ओं को सक्रिय कर चुके हैैं। इसमें नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की ताजपोशी के साथ उनकी स्वीकार्यता के लिए भी वे भोपाल आ चुके हैैं।
राकेश सिंह प्रदेश के नेताओं में द्वितीय पंक्ति के माने जाते हैैं। इसलिए भी उनका कद और वजन बढाने की लगातार कोशिश अमित शाह ने की है। इतना ही नहीं भविष्य में कोई बड़ी जिम्मेदारी राकेश सिंह को दी जाए तो इसके लिये लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर हो चर्चा में भाजपा की तरफ से प्रथम वक्त उनका बनाया गया था। इसके पहले वे सिहस्थ के दौरान भी राज्य का दौरा कर चुके थे।
इसके विपरीत राहुल बाबा ने अरुण यादव के स्थान पर नए कांर्ग्रेस अध्यक्ष के रूप में वरिष्ठ नेता कमलनाथ की ताजपोशी तो कर दी। मगर प्रदेश की जमीनी राजनीति में आमद देने वाले कमलनाथ के लिए उन्होंने अमित शाह जैसी ना तो उंचाई दी, न ताकत और न ही समर्थन। भाजपा ने चुनाव के पहले प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर यदि नंदकुमार सिंह चौहान को बदला तो उनके उत्तराधिकारी राकेश सिंह के लिए भरपूर समर्थन भी दिया।
दूसरी तरफ कांर्ग्रेस ने मिस्त्री, मोहन प्रकाश से लेकर दीपक बाबरिया तक के ऐसे लीडर प्रदेश कांर्ग्रेस के सिर पर सवार कर दिए जो न तो भाजपा की चुनौती को समझ पा रहे और न ही कांर्ग्रेस से कार्यकतार्ओं की मनोदशा समझकर उन्हें सक्रिय कर पा रहे हैैं। जिस राज्य में दस साल तक मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड बनाने वाले दिग्विजय सिंह हों, छिंदवाड़ा से लेकर दिल्ली की राजनीति में प्रभावी प्रबंधक के रूप में कमलनाथ हों, युवा और आकर्षक व्यक्तित्व वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया हों ऐसे में दीपक बाबरिया जैसे जूनियर नेता को प्रभावी बनाकर झगड़े कम करने के बजाए कांर्ग्रेस में कलह बढ़ाने का काम ज्यादा हुआ है।
संगठन की दृष्टि से भाजपा और कांर्ग्रेस की तुलना करें तो शायद कांग्रेर्सी नाराज हो सकते हैैं मगर सच यही है कि अंतर जमीन और आसमान का है। इसे काफी हद तक कार्यकतार्ओं से संपर्क और दौरे कर दिग्विजय सिंह ने कम करने की कोशिश की है। खास बात यह है कि मैदान में काम कर रहे दिग्विजय सिंह से भाजपा से ज्यादा कांर्ग्रेस के ही वे नेता डरे हुए हैैं जो अपने को मुख्यमंत्री की दौड़ में आगे मान कर चल रहे हैैं। सवाल यही है कि बहुमत आएगा तभी तो सरकार बनेगी।
जब भाजपा की तरफ से मोदी, शाह, नरेंद्र सिंह तोमर, शिवराज सिंह चौहान, राकेश सिंह के साथ संघ परिवार भी जुटा हो तो फिर दिग्विजय सिंह के पैर खींचने से काम नहीं चलेगा। बल्कि जो काम कर रहे हैैं उनकी हौैंसला अफजाई के साथ उन्हें साथ लेकर भी चलना पड़ेगा। यह काम तब ज्यादा असरदार दिखाई देगा जब राहुल बाबा मध्यप्रदेश में खंभ ठोंककर भले ही न बैठें मगर उन्हें माह में कम से कम एक बार कांर्ग्रेस के तजुबेर्कार शुभचिंतक नेताओं के साथ युवाओं की टीम को भी साथ लेकर चलना पड़ेगा।
अभी हालत यह है कि कमलनाथ और सिंधिया में दूरी है तो कुछ नेता दिग्विजय सिंह की सक्रियता को देखकर उन्हें फिर मुख्यमंत्री की जुगाड़ में लगा हुआ मान रहे हैैं जबकि दिग्विजय सिंह कह चुके हैैं वे मुख्यमंत्री की दौड़ में नहीं है। हाईकमान कहेगा तब भी वे इसके लिए तैयार नहीं होंगे। इसके अलावा कांर्ग्रेस में मंडलम के जरिए एक समानांतर व्यवस्था भी चल रही है जो सीधे हाईकमान को रिपोर्ट करती है। इससे कमलनाथ, दिग्विजय और सिंधिया का कद घटाने का जो काम भाजपा करती वह कांर्ग्रेस खुद ही करने में लगी है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जनआशीवार्दा यात्रा की तर्ज पर राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भी छह हजार किलोमीटर की यात्रा पर दो दिन पहले ही निकली हैैं। इसी तरह की यात्राएं छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री रमन सिंह कर रहे हैैं। इस तुलना में कांग्रेस के नेता कहां नजर आते हैैं? मध्यप्रदेश के संदर्भ में कहें तो कांर्ग्रेस पुरानी तर्ज पर राज्य को चार हिस्सों में बांट कर उसके नेताओं को कमान सौैंप सकती है। कार्यकतार्ओं से संपर्क और जनता के बीच सक्रिय उपस्थिति के बिना डेढ़ दशक बाद कांर्ग्रेस को विकल्प के रूप में लाना बड़ी चुनौती है।
फिलहाल तो कांर्ग्रेस इसमें कमजोर नजर आ रही है। भाजपा के पास कहने के लिए है कि 70 पार के कमलनाथ शिवराज के मुकाबले न तो दौरे कर पा रहे हैैं और न जनता से संवाद। ऐसे में अकेले दिग्विजय सिंह की यात्रा थोड़ा बहुत उपस्थिति दर्ज करा रही है। वह भी कांर्ग्रेस की गुटबाजी में उलझने की वजह से भविष्य में कितना असर छोड़ेगी पता नहीं। जब तक चुनावी मोर्चे पर खुले दिल दिमाग से राहुल गांधी खुद मध्यप्रदेश, छत्तीगढ़ और राजस्थान में सक्रिय नहीं होंगे तब तक लोग यही कहेंगे कि सत्ता में लौटने का काम तुमसे न हो पाएगा।
र्वजनिक जीवन में करने वाले सभी सज्जनों के लिए ये चार लाइनें खासी अहम लगती है…
आंधियों से न बुझूं ऐसा उजाला हो जाऊं,
वो नवाजे तो जुगनू से सितारा हो जाऊं;
एक कतरा हूं मुझे ऐसी सिफत दे मौला,
कोई प्यासा दिखे तो दरिया हो जाऊं…
जनआशीर्वाद से बदलता माहौल
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जनआशीर्वाद यात्रा के पहले जहां भाजपा का विरोध हो रहा था उसका ग्राफ अब नीचे जाता दिख रहा है। इस मामले में शिवराज को सुनने आ रहे ग्रार्मीण खासतौर से महिलाएं भाजपा के लिए फीलगुड का अहसास दिला रही हैैं। पूरे मामले में संगठन के साथ संघ परिवार का तंत्र भी माउथ पब्लिसिटी के तौर पर पार्टी की हालत में सुधार का संदेश दे रहा है। संगठन के भीतर कहा जा रहा है कि गणेश परिक्रमा बंद कर जन की परिक्रमा ही लाभकारी होगी। कांर्ग्रेस इससे भी सबक ले सकती है।
लेखक IND24 के प्रबंध संपादक हैं