भोपाल गैस कांड: राजकुमार केसवानी ने पहली ही चेता दिया था कई पीढिय़ां रहेंगी पीडि़त, तब बहरे कानों ने सुनीं होती आवाज तो आज चौथी पीढ़ी रहती सलामत

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शशी कुमार केसवानी

राजकुमार केसवानी देश के पहले पत्रकार थे जिन्होंने भोपाल गैस कांड से ढाई साल पहले ही यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में सुरक्षा चूक को लेकर आगाह कर दिया था। आखिरकार 3 दिसंबर 1984 को भोपाल में हुई इस दुनिया की भयानक औद्योगिक त्रासदी में 15 हजार से अधिक लोगों की जान चली गई थी। केसवानी ने एक आलेख में लिखा था, ‘1981 के क्रिसमस के समय की बात है। मेरा दोस्त मोहम्मद अशरफ यूनियन कार्बाइड कारखाने में प्लांट आॅपरेटर था और रात की पाली में काम कर रहा था। फॉस्जीन गैस बनाने वाली मशीन से संबंधित दो पाइपों को जोड़ने वाले खराब पाइप को बदलना था। जैसे ही उसने पाइप को हटाया, वह जानलेवा गैस की चपेट में आ गया। उसे अस्पताल ले जाया गया पर अगली सुबह अशरफ ने दम तोड़ दिया। अशरफ की मौत मेरे लिए एक चेतावनी थी। जिस तरह मेरे एक दोस्त की मौत हो गई, उसे मैंने पहले ही गंभीरता से क्यों नहीं लिया? मैं अपराधबोध से भर गया। उस समय मैं पत्रकारिता में नया था कुछ छोटी-मोटी नौकरियां की थीं। बाद में 1977 से अपना एक साप्ताहिक हिंदी अखबार रपट निकालने लगा था।



यह आठ पन्नों का एक टैब्लॉयड था। महज 2000 के सकु्रलेशन वाले इस अखबार को विज्ञापन से न के बराबर आमदनी होती थी। पर हां कुछ मेरे मित्रों का हमेशा सहयोग रहता था और इसके लिए एकमात्र सहारा था मेरा छापाखाना ‘भूमिका प्रिंटर्स’, जिसे बैंक से कर्ज लेकर शुरू किया था। जिसे मेरा छोटा भाई शशीकुमार केसवानी पूरा सहयोग करता था और पूरा समय भी देता था। इस अखबार की वजह से मुझे अपनी पसंद की खबरें बिना किसी रोक-टोक के छापने की आजादी मिली। बस यहीं से यूनियन कार्बाइड की पोल खोलने का अभियान शुरू हुआ। अखबार हम देर रात को छापा करते थे ताकि कोई मुश्किल खड़ी न हो सके। रातभर प्रेस पर मैं और मेरा भाई अपने सामने अखबार छपवाते थे। सुबह होेते ही मित्रों के सहयोग से उसका वितरण कर दिया जाता था। जो अपने आप में बहुत ही रोमांचकारी रहता था। कई मित्र कहते थे यार तुम लोग तो जान हथेली पर लेकर काम करते हो। भोपाल में 1984 में दो और तीन दिसंबर की मध्यरात्रि में अमेररिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड के संयंत्र से जानलेवा गैस लीक होनी शुरू हुई थी। देखते-देखते आसमान में मिक गैस का जहरीला बादल बन गया था। हजारों लोगों की मौत हुई और एक लाख से ज्यादा लोग इस हादसे में बेघर, बीमार या फिर अपंग हुए थे। मामले के दोषियों को नाममात्र की सजा मिली थी। गैस कांड के 26 साल बाद, सात जून 2010 को जब भोपाल जिला न्यायालय ने सात आरोपियों में से हर एक को दो-दो बरस की सजा सुनाई थी। केसवानी ने इसकी गणना कर बताया था कि भोपाल में हुई मौतों में से हर मौत के लिए महज 35 मिनट की सजा हुई।  रिपोर्ट के मुताबिक, 500,000 से अधिक लोगों की (जो 2259 के आसपास तुरंत मर गये) एमआईसी की जहरीली गैस के रिसाव के कारण मृत्यु हो गयी। बाद में, ये पूरे विश्व में इतिहास की सबसे बड़ी औद्योगिक प्रदूषण आपदा के रुप में जाना गया जिसके लिये भविष्य में इस प्रकार की आपदा से दूर रहने के लिए गंभीर निवारक उपायों की
आवश्यकता है।

2-3 दिसंबर की दरमियानी रात को हम लोग अपने परिवार के साथ सो रहे थे। मैंने भाई राजकुमार केसवानी को फोन कर बोला कुछ गड़बड़ हुआ है कुछ अजीब सा लग रहा है। कुछ घबराहट हो रही है। वो नींद में थे कहा कुछ नहीं सो जाओ। फिर उनका फोन बजा कहा मुॐक्के शक हो रहा है शायद गैस लीक हुर्ई है। तो मैं एकदम घबराकर उठा और एक मिनट बाद आंखे जलने लगी। क्योंकि हम गैस के बारे में जानते थे। अपनी पूरी सुरक्षा के साथ अपनी गाड़ियों पर सुरक्षित स्थानों की तलाश में निकले और परिवार को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। फिर मैं और भाई यूनियन कार्बोइड की तरफ चले गए।
और अपनी जान की परवाह न करते हुए लोगों को भागने-दौड़ने से मना करते रहे तथा कंट्रोल रूम जाकर एसपी को स्थिति से अवगत कराया।
शशी कुमार केसवानी


केसवानी ने दुनिया की सबसे खराब औद्योगिक त्रासदी से दो साल पहले 1982 में स्थानीय हिंदी साप्ताहिक समाचार पत्र रिपोर्ट में भोपाल में यूनियन कार्बाइड संयंत्र में सुरक्षा चूक पर तीन लेख प्रकाशित किए थे: पहले लेख का शीर्षक था; बचाइए हुजूर इस शहर को बचाइए। फिर, 26 सितंबर, 1984 को एक और लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था, ज्वालामुखी के मुहाने बैठा भोपाल इसके बाद एक और यानी तीसरा लेख आया, न समझोगे तो आखिर मिट ही जाओगे। 2-3 दिसंबर को संयंत्र से घातक गैस के रिसाव से ठीक छह महीने पहले, उन्होंने एक और लेख लिखा: ‘भोपाल: एक आपदा के कगार पर’, जिसमें एक संभावित आपदा के बारे में स्पष्ट चेतावनी दी गई थी। केसवानी ने नवंबर 1982 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को पत्र लिखकर संयंत्र से होने वाले खतरों की चेतावनी दी थी। उन्हे पत्र का कभी जवाब नहीं मिला।

दादा-पिता ने तड़पकर दम तोड़ा, चौथी पीढ़ी भी विकलांग

भोपाल के इंद्रानगर की रहने वाली फूलवती साहू आज 62 साल की हो चुकी हैं। 37 साल पहले हुए गैस कांड का वो मंजर आज भी नहीं भुला पाईं। उनके हाथ-पैर में पैरालिसिस (लकवा) है। भोपाल गैस कांड की पीड़ितों में से एक हैं। उन्होंने गैस हादसे को बहुत करीब से देखा। अपने सामने कई अपनों को तड़प-तड़पकर मरते देखा। सास-ससुर और पति की एक के बाद एक मौत हो गई। एक बेटा भी चल बसा। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी गैस त्रासदी को भले ही 37 साल बीत गए हों, लेकिन जख्म आज भी ताजा हैं। फूलवती की चौथी पीढ़ी गैस त्रासदी का दंश भोग रही है। फैक्ट्री के ठीक सामने जेपी नगर में ऐसा कोई घर नहीं है, जहां गैस की वजह से किसी की मौत न हुई हो या फिर कैंसर, शुगर या दिव्यांगता जैसी गंभीर बीमारियों से आज भी न जूझ रहा हो। पीड़ितों का दर्द सुनकर हर किसी का कलेजा भर आता है। जेपी नगर में ही गैस त्रासदी में मारे गए लोगों को याद करने के लिए एक स्मारक भी बनाया गया है। फूलवती बाई का कहना है कि उनकी फोटो से ही यह स्मारक बनाया गया है। गोद में जो बच्चा है, तब सबसे छोटा बेटा दीपक है, जबकि साड़ी का पल्लू जिसने पकड़ा है, वह सबसे बड़ा बेटा सुनील था। सुनील की 3 साल पहले ही मौत हुई है। इस हादसे को भले ही 37 साल बीत चुके हों और आज 38वीं बरसी मनाई जा रही है, लेकिन दर्द आज भी ताजा है। किसी ने पति-बेटों को आंखों के सामने मरते देखा तो किसी ने अपनी तीन पीढ़ियां खो दी। मैं विष्णु बाई। उम्र 70 साल है। फैक्ट्री की बाउंड्रीवॉल से सिर्फ 100 मीटर दूर पर ही कच्चा झोपड़ीनुमा मकान था। इसमें मैं और बड़ी बहन का परिवार रहता था, लेकिन गैस कांड ने हमारा सबकुछ छीन लिया। आज भी उस दर्दनाक मंजर को याद करती हूं, तो सिहर उठती हूं। रात के 12 बजे थे। हम सब गहरी नींद में थे, तभी शोर सुना। घर से बाहर निकलकर देखा तो चारों ओर भगदड़ मची थी। कई लोग भागते-भागते ही गिर रहे थे। लाशें बिछ रहीं थीं।

राजकुमार हरदम पीड़ितों की मदद में जुटे रहे

भारत में कहीं और क्लोरीन संयंत्र में हुए रिसाव का जिक्र करते हुए, जिसने कई लोगों को प्रभावित किया था, केसवानी ने अपने लेख में कहा था कि अगर भोपाल में ऐसी कोई दुर्घटना होती है, तो जो होगा उसकी गवाही देने वाला एक अकेला गवाह भी नहीं मिलेगा। उस लेख में केसवानी ने संयंत्र में सुरक्षा उपायों पर तीन अमेरिकियों द्वारा लिखी गई मई 1982 की एक रिपोर्ट का विस्तार से हवाला दिया था, जिन्हे यूनियन कार्बाइड के कॉरपोरेट मुख्यालय ने संयंत्र में समस्याओं की जांच के लिए भेजा था। केसवानी ने उन दिनों में घटी घटनाओं की एक श्रृंखला पर भी रिपोर्ट किया था, और कहा था कि 5 अक्टूबर, 1982 को संयंत्र से हुए रिसाव ने पड़ोस की स्लम बस्तियों के हजारों निवासियों को प्रभावित किया था जो डर के मारे वहां से भाग गए थे और वे करीब आठ घंटे के बाद ही वापस लौटे थे। 1975 में एम.एन. बुच, जोकि एक भारतीय नौकरशाह थे, ने भी यूनियन कार्बाइड संयंत्र को वर्तमान स्थान से दूर ले जाने के लिए कहा था क्योंकि इसके आसपास आवासीय बस्तियां तेजी से विकसित हो गई थी। यूनियन कार्बाइड का सौभाग्य है कि डेको कि बुच को जल्द ही उनके पद से स्थानांतरित कर दिया गया। केसवानी ने लिखा था कैसे यूनियन कार्बाइड ने अपने भारतीय अधिकारियों को सुरक्षा उपायों पर किफायत बरतने और सस्ती सामग्री का इस्तेमाल करने की सलाह देकर सुरक्षा हितों से समझौता किया था। संयंत्र कीटनाशकों का उत्पादन करता था और इस उद्देश्य के लिए, उसने मिथाइल आइसोसाइनेट को प्लांट में इकट्ठा किया हुआ था – जो जानकारी के हिसाब से मानव जाति के लिए सबसे घातक रसायनों में से एक है। उन्होंने लिखा कि दुर्घटना की स्थिति में फैक्ट्री बिना सुरक्षा प्रक्रियाओं के बड़ी मात्रा में एमआईसी का भंडारण कर रही थी। ठीक वैसा ही जिसकी की कल्पना की गई थी, 2 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को हुआ था। इस सब के चलते, राजकुमार ने हर कदम पर आपदा पीड़ितों की समस्याओं पर ध्यान आकर्षित किया, आपदा की रात वे हमीदिया अस्पताल में थे, और जो हो रहा था, उसके बारे में प्रत्यक्ष ज्ञान, जानकारी हासिल कर रहे थे। आखिरकार, जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारत यूनियन ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मामले को 45 करोड़ डॉलर की मामूली राशि में तय कर लिया था, और हर किस्म की आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने पर सहमति व्यक्त कर दी थी। यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन, जो उस वक़्त भारत आए थे और उन्हे हिरासत में ले लिया गया था, को जमानत पर रिहा कर दिया गया, और उसके तुरंत बाद वे देश छोड़कर भाग गए, फिर वापस नहीं लौटे।