कूड़ा उठाने वाले रंजीत चौधरी का बेटा अब बनेगा डॉक्टर, पास किया एंट्रेंस एग्जाम

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नई दिल्ली। मन में लगन हो और पंखों को उड़ान मिल जाए तो कोई आसमां ऊंचा नहीं। यह साबित कर दिखाया है आशाराम नाम के इस होनहार बच्चे ने। अभाव में जीवन व्यतीत करने वाले आशाराम ने एम्स के एंट्रेंस एग्जाम को पहले ही प्रयास में पास करके साबित कर दिया कि गरीबी सफलता में आड़े नहीं आ सकती। आशाराम के पिता रंजीत चौधरी कूड़ा उठाने का काम करते हैं।
Ranjit Choudhary’s son will now make the doctor, passed the Entrance Examination
वह इतने भी पढ़े-लिखे नहीं हैं कि यह समझ सकें कि उनके बेटे ने कौन सी परीक्षा पास की है। आशाराम ने जब उन्हें यह बताया कि उसने इतनी बड़ी परीक्षा पास की है तो वह इसका अर्थ ही नहीं समझ सके और बोले, ‘बेटा तू तो हमेशा ही पास होता है तो इस बार कौन सी नई बात है।’ तब उनके बेटे ने समझाया, ‘बाबा यह बहुत बड़ा इम्तिहान था और यह स्कूल भी बहुत बड़ा है। अब मैं अपने गांव के कल्लू डाक्टर की तरह एक डॉक्टर बन जाऊंगा।’

आशाराम अपने पिता के साथ एमपी के देवास जिले के एक छोटे से गांव विजयगंज मंडी में रहता है। ये लोग एक टूटी-फूटी झोपड़ी में रहते हैं और रंजीत कूड़ा बीनकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटा पाते हैं। 18 वर्षीय आशाराम ने जोधपुर-एम्स में अपनी सीट पक्की की है। आशाराम ने बताया, ‘मेरे पिता को अभी इस बारे में कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मुझे उन्हें समझाने में अभी कुछ वक्त लगेगा।’ आशाराम का आॅल इंडिया रैंक में 707वां स्थान है और ओबीसी कैटिगरी में उसे 141 वीं जगह मिली है।

इससे पहले आशाराम को पुणे की दक्षिणा फाउंडेशन ने स्कॉलरशिप के लिए चुना था। इसके तहत उसे पुणे में ही परीक्षा की तैयारी करवाई जा रही थी। आशाराम का कहना है कि उनकी सफलता में दक्षिणा का बहुत बड़ा योगदान है। आशाराम ने बताया, ‘हमें बेहतर शिक्षा मिल सके, इसके लिए मेरे पिता बहुत ही मेहनत से काम करते हैं। मुझे जो भी चाहिए होता है वह मुझे लाकर देते हैं।’ वह स्थानीय प्रशासन का भी शु्क्रगुजार है। उसका कहना है कि प्रशासन की मदद से ही उसे बीपीएल कार्ड मिला। इससे उसे अपनी पढ़ाई में काफी मदद मिली।

आशराम अब एम्स के मैस की फीस जुटाने के लिए प्रयासरत है। उन्होंने बताया, ‘मुझे 36 हजार रुपये मैस की फीस और 8 हजार रुपये किताबों के देने हैं। हालांकि मैंने किताबों के लिए पैसों का इंतजाम कर लिया है लेकिन मैस की फीस अभी नहीं हो पाई है। मैं चाहता हूं कि एमबीबीएस की पढ़ाई में हर साल मुझे गोल्ड मैडल मिले। मेरे गांव ने जो मुझे इतना कुछ दिया है मुझे वह लौटाना भी है। यहां एक भी अच्छा डॉक्टर नहीं है।’