पंकज शुक्ला
भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता संबित पात्रा मूलत: सर्जन हैं मगर राजनीति में वे अपनी खास तरह की आक्रामकता के कारण चर्चित हैं। यही कारण है कि जब मप्र में विधानसभा चुनाव के लिए संबित पात्रा को दिल्ली से मीडिया प्रभारी बना कर भेजा गया तो उम्मीद बंधी कि इस बार का चुनावी मीडिया प्रबंधन नए शीर्ष को छुएगा क्योंकि मप्र भाजपा के मीडिया सेल में कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने पूरे देश में राजनीतिक पैरोकारी के प्रतिमान गढ़े हैं। इन नामों में भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा सबसे अग्रणी है जिन्होंने देश में पहली बार भाजपा का मीडिया सेंटर निर्मित किया। मगर, अनुभव के साथ दिल्ली के जोश के मिलन की यह उम्मीदें आरंभ में ही धूमिल होती नजर आईं। भोपाल में घटे संबित पात्रा प्रसंग ने पार्टियों के मीडिया प्रबंधन से अलग मीडिया की भूमिका पर एक गंभीर बहस शुरू करने का मौका दे दिया है।
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जब संबित पात्रा को मप्र भाजपा में मीडिया प्रभारी बना कर भेजने की घोषणा हुई तब ही से राजनीति-मीडिया के गलियारों में एक खास तरह की गर्माहट महसूस की जा रही थी। संबित की भोपाल यात्राओं के दौरान मीडियाकर्मियों ने उनसे कई बार बात करनी चाही लेकिन उन्होंने हर बार मुस्कुराते हुए उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने को कहा। फिर वह मौका आया जब शनिवार को औपचारिक रूप से संबित से मुलाकात का आमंत्रण मिला। संबित की पत्रकार वार्ता से अधिक चर्चा में तो उनका तरीका, सवालों को अधूरा छोड़ कर जाना और उसके बाद चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन रहा। खुले में पत्रकार वार्ता करने का उद्देश्य क्या था और क्या वह लक्ष्य पूरा हुआ यह तो संबित जाने मगर इस पूरे मामले ने पूरे देश में भोपाल की मीडिया को चर्चा में ला दिया है।
संबित दिल्ली के मीडिया से संवाद के आदी हैं। यह संवाद अधिकांश समय टीवी स्टूडियो में होता है जिसका अपना एक प्रोटोकॉल होता है। वहां संबित एक मेहमान की तरह होते हैं तथा सवाल पूछने की भी अपनी कए मयार्दा या कहिए बंधन होता है। कई बार यह सीमा कमर्शियल ब्रेक के रूप में भी सामने आती है। लेकिन स्वयं द्वारा बुलाई गई पत्रकार वार्ता में ऐसा बंधन अमूमन नहीं होता। यही कारण था कि भोपाल के मीडियाकर्मियों ने संबित से खुल कर सवाल किए और अपनी बात तो कह गए वे सवालों को अनसुना कर चल दिए।
देशभर में चर्चा है दिल्ली का मीडिया गोदी मीडिया है। वह मनमाफिक सवाल पूछने और चुप रहने का आदी बनाया जा चुका है। यह उस नेपाली बहादुर की तरह है जो अपने आका की बात पूरी ईमानदारी से निभाता है जबकि भोपाल का मीडिया साहसिक रूप से बहादुर है जो दबंगता से प्रश्न पूछने की हिम्मत रखता है। नेताओं को बैचेन करते भोपाल के मीडियाकर्मियों के इन सवालों के आगे उन संदेहों का कोई मोल नहीं जो यह कह रहे हैं कि भाजपा के ही नेताओं ने अपने गोदी मीडिया से सवाल उठवा कर मेहमान संबित के मंसूबों पर पानी फेर दिया या कि यह दिल्ली के गुब्बारे की भोपाल में हवा निकालने की रणनीति थी।
संबित ने राष्ट्रीय स्तर पर भले ही चमक हासिल कर ली हो मगर उन्हें वह ठोस अनुभव पाना बाकी है जो नेताओं को तीखे सवालों के आगे अविचलित रहना सिखाता है। याद करेंगे तो दर्जनों नेताओं के नाम याद आएंगे जिन्होंने पत्रकारों के हर सवाल, कटाक्ष, आरोपों को खुल कर स्वागत किया और मौके के अनुरूप कभी चुटकी लेकर, कभी हास परिहास से तो कभी गंभीर बात कह कर अप्रिय स्थितियों को टाला है। मप्र भाजपा में सक्रिय नेताओं में से शायद ही कोई होगा जिसने मैदान में जन आक्रोश का सामना न किया होगा या जिससे मीडिया ने तीखे सवाल न किए होंगे। इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़ सभी ने अपनी समझ और सामथर््य के अनुसार उपयुक्त उत्तर दिए हैं। यही फर्क होता है एक मैदानी नेता और पैराशूट से उतरे नेता में।
संबित का पत्रकार वार्ता को अधूरा छोड़ कर जाना असल में उस सोच का परिणाम है जो मीडिया को टूल मान कर उपयोग करती है, जो यह मानती है कि मीडिया को खरीदा जा सकता है, जो दिल्ली के मीडिया को ही देश का मीडिया मानती है। पैमानों पर दिल्ली का मीडिया भले ही राष्ट्रीय मीडिया कहलाता है मगर आंख-कान-नाक तो क्षेत्रीय मीडिया के तीव्र हैं और यह हर खतरा उठा कर सवाल करने की ताकत रखता है। राजनीति जब मीडिया को माध्यम मानेगी तब तक तो ठीक है, मगर जब जब वह उसे टूल बनाया जाएगा यह बूमरेंग साबित होगा। भोपाल में दिखा मीडिया का यह रूप लोकतंत्र को आश्वस्त करता है।